- होम
- राज्य+
- उत्तर प्रदेश
- अम्बेडकर नगर
- अमेठी
- अमरोहा
- औरैया
- बागपत
- बलरामपुर
- बस्ती
- चन्दौली
- गोंडा
- जालौन
- कन्नौज
- ललितपुर
- महराजगंज
- मऊ
- मिर्जापुर
- सन्त कबीर नगर
- शामली
- सिद्धार्थनगर
- सोनभद्र
- उन्नाव
- आगरा
- अलीगढ़
- आजमगढ़
- बांदा
- बहराइच
- बलिया
- बाराबंकी
- बरेली
- भदोही
- बिजनौर
- बदायूं
- बुलंदशहर
- चित्रकूट
- देवरिया
- एटा
- इटावा
- अयोध्या
- फर्रुखाबाद
- फतेहपुर
- फिरोजाबाद
- गाजियाबाद
- गाजीपुर
- गोरखपुर
- हमीरपुर
- हापुड़
- हरदोई
- हाथरस
- जौनपुर
- झांसी
- कानपुर
- कासगंज
- कौशाम्बी
- कुशीनगर
- लखीमपुर खीरी
- लखनऊ
- महोबा
- मैनपुरी
- मथुरा
- मेरठ
- मिर्जापुर
- मुरादाबाद
- मुज्जफरनगर
- नोएडा
- पीलीभीत
- प्रतापगढ़
- प्रयागराज
- रायबरेली
- रामपुर
- सहारनपुर
- संभल
- शाहजहांपुर
- श्रावस्ती
- सीतापुर
- सुल्तानपुर
- वाराणसी
- दिल्ली
- बिहार
- उत्तराखण्ड
- पंजाब
- राजस्थान
- हरियाणा
- मध्यप्रदेश
- झारखंड
- गुजरात
- जम्मू कश्मीर
- मणिपुर
- हिमाचल प्रदेश
- तमिलनाडु
- आंध्र प्रदेश
- तेलंगाना
- उडीसा
- अरुणाचल प्रदेश
- छत्तीसगढ़
- चेन्नई
- गोवा
- कर्नाटक
- महाराष्ट्र
- पश्चिम बंगाल
- उत्तर प्रदेश
- राष्ट्रीय+
- आर्थिक+
- मनोरंजन+
- खेलकूद
- स्वास्थ्य
- राजनीति
- नौकरी
- शिक्षा
- Home
- /
- हमसे जुड़ें
- /
- देवानंद की 'गाईड' याद...
वीर विनोद छाबड़ा
देवानंद की 1965 में रिलीज़ हुई 'गाईड' अगर उस साल बॉक्स ऑफिस पर बहुत सफल भले नहीं रही लेकिन चर्चित ज़रूर रही. इसने उस साल के सात फिल्मफेयर अवार्ड हासिल किये, जिसमें बेस्ट हीरो, हीरोइन, डायरेक्टर, फिल्म के अवार्ड भी शामिल हैं. इसे बेस्ट फोटोग्राफी, संवाद और स्टोरी के भी अवार्ड मिले लेकिन त्रासदी ये रही कि इसके लेखक आरके नारायण ने इसे 'मोस्ट अनगाईडेड गाईड' करार दिया. वो इसके ट्रीटमेंट से खुश नहीं थे. मूल उपन्यास 'द गाईड' में हीरो किसी अनाम स्थान की तरफ कूच कर जाता है लेकिन फिल्म में उसकी मृत्यु दिखा दी गई. संक्षेप में कथा यों है कि उम्रदराज़ मार्को (किशोर साहू) अपनी जवान पत्नी रोज़ी (वहीदा रहमान) के साथ राजस्थान में खोयी हुई गुफाओं की खोज में आता है. वो पुरातत्वविद है और उसे विश्वास है अगर उसने उन गुफाओं को खोज लिया तो वो इतिहास में अमर हो जाएगा.
इस खोज के लिए उसे राजू (देवानंद) गाईड का सहारा मिला. इधर मार्को गुफाओं की खोज में व्यस्त है और उधर राजू बोर हो रही उसकी पत्नी रोज़ी को सैर कराने में व्यस्त हो गया. राजू को पता चलता है रोज़ी वास्तव में एक तवायफ़ की बेटी है जिसे समाज में पत्नी का स्टेटस हासिल करने के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी. अपने डांस के शौक को तिलांजलि इसलिए दी क्योंकि मार्को को उसका नृत्य-संगीत पसंद नहीं था. राजू रोज़ी को उसके सपने पूरे करने का आश्वासन देता है.
रोज़ी अब मार्को को छोड़ कर राजू के घर रहने लगी. एक नाचने वाली का घर में रहना न राजू की माँ (लीला चिटनीस) को पसंद आया और न मामा (उल्हास) सहित तमाम रिश्तेदारों को. राजू का दोस्त गफ़ूर (अनवर हुसैन) भी उससे किनारा कर गया. समाज ने भी इस रिश्ते को ग़लत बताया. लेकिन राजू अपनी ज़िद्द पर अड़ा रहा. रोज़ी ने सफलता की बुलंदियों को छूना शुरू किया और राजू को जुए और शराब की लत ने जकड़ लिया. एक दिन मार्को वापस आता है, लेकिन राजू उसे रोज़ी से मिलने नहीं देता क्योंकि उसे डर है कि रोज़ी को चालाक मार्को बहका न ले. मार्को को पैसों की ज़रूरत है. वो राजू से डील करता है.
रोज़ी के जाली दस्तख़त करके राजू वो तमाम ज़ेवर मार्को के हवाले कर देता है जो बैंक के लॉकर में रखे थे. राजू को जालसाज़ी के आरोप में पुलिस गिरफ़्तार कर लेती है. रोज़ी उसे जेल से छुड़ाने में कोई मदद नहीं करती है. राजू उसे याद दिलाता है कि वो जिन बुलंदियों पर खड़ी है, वहां तक पहुंचाने में उसका हाथ है. जबकि रोज़ी का मानना है कि इसमें उसकी अपनी प्रतिभा और मेहनत का योगदान है. राजू को दो साल की जेल हो जाती है. जेल की मियाद पूरी होने पर जब रोज़ी और राजू की माँ उसे लेने जेल जाते हैं तो पता चलता है कि अच्छे बर्ताव के चलते राजू तो छह महीने पहले ही रिहा हो चुका है. आख़िर राजू गया कहाँ?
पता चला कि राजू साधुओं की टोली में शामिल होकर शांति की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है. वो एक गाँव पहुँचता है जहाँ सूखा पड़ा हुआ है. ग़लतफ़हमी में उसे एक ऊँचे कद का स्वामी मान लिया जाता है जो बरसात होने के लिए अनशन करने आया है. राजू वहां से भागने का प्रयास करता है मगर भोले गाँव वालों के विश्वास ने उसे रोक लिया. उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल जाती है. राजू की माँ और रोज़ी को पता चलता है तो वो उसे वापस ले जाने को आते हैं, लेकिन राजू वापस नहीं जाता. वो बहुत आगे निकल चुका है. बरसात होगी या नहीं होगी?
उसे नहीं मालूम. गाँव वालों का विश्वास वो नहीं तोड़ सकता. आख़िरकार बरसात होती है लेकिन तब तक राजू शरीर त्याग चुका होता है. ये खूबसूरत और भावुक कर देने वाली कथा सिनेमा प्रेमियों की समझ में नहीं आयी. उस दौर का समाज भी इतना पिछड़ा हुआ था कि वो हज़म ही नहीं कर पाया कि कोई ब्याहता किसी ग़ैर मर्द के साथ खुलेआम रहे.
'गाईड' की मेकिंग की शुरूआत मज़ेदार है. Tad Danielewski नामक फ़िल्मकार, जो लेखिका पर्ल बक के सहयोग से एक फिल्म कंपनी चलाते हैं, ने देवानंद की शख़्सियत से मोहित होकर उन्हें हॉलीवुड में काम करने का न्यौता दिया, जिसे देवानंद ने ठुकरा दिया. लेकिन कुछ समय बाद बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में देव की भेंट Danielewski से फिर होती है. वहां देवानंद अपनी 'हम दोनों' लेकर गए हुए थे. उन्होंने देव को आरके नारायण का उपन्यास 'द गाईड' पढ़ने की सलाह दी. देव को ये उपन्यास बहुत पसंद आया. लेकिन उन्होंने शर्त रख दी कि फिल्म अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी बनेगी. काम शुरू हुआ. लेकिन जल्दी ही अड़चनें आने लगीं. पहले अंग्रेज़ी में संवाद बोलो और फिर हिंदी में. उच्चारण गड़बड़ होने लगे. तब फ़ैसला हुआ कि पहले अंग्रेज़ी में फिल्म शूट हो जाने दो फिर हिंदी में बनेगी.
अंग्रेज़ी वर्ज़न Danielewski ने डायरेक्ट किया. इस बीच हिंदी वर्ज़न के डायरेक्टर बड़े भाई चेतन आनंद को भी फुर्सत मिल गयी और वो 'हक़ीक़त' बनाने में जुट गए. जब हिंदी में बनने की बारी आई तो चेतन आनंद 'हक़ीक़त' शूट करने में व्यस्त थे. देव ने छोटे भाई विजयानंद पर हिंदी संस्करण डायरेक्ट करने का भार डाल दिया. इस बीच अमेरिका में बड़े शोर-शराबे से अंग्रेज़ी की 'द गाईड' रिलीज़ हो गयी, जिसे हैरतअंगेज़ तरीके से बहुत ठंडा रिस्पॉन्स मिला. स्क्रिप्ट और डायरेक्शन में अनेक खामियां थीं.
ताल-मेल में भी काफी कमी थी. इससे सबक लेते हुए विजयानंद ने हिंदी 'गाईड' की स्क्रिप्ट दोबारा लिखी. विजयानंद अथक मेहनत और रूचि को देखते हुए देव को विश्वास हो गया कि अंग्रेज़ी जैसा हश्र नहीं होगा. मगर इस बीच बहुत अड़चनें आयीं. देवानंद ने अपनी ऑटोबायोग्राफी 'रोमांसिंग विद लाईफ' में लिखा है, एंटी गाईड लॉबी जैसे बन गयी हो. उन पर फब्तियां कसी गयीं कि ये पागलपंती का प्रोजेक्ट है. देव ने स्वीकार किया कि दुनिया में तमाम बड़े कारनामे पागलपंती का ही परिणाम हैं.
इधर सेंसर ने भी कई ऐतराज़ लगाए. सुना गया कि देव को तत्कालीन प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप करने का अनुरोध करना पड़ा. पहले से चल रही एंटी-पब्लिसिटी के चलते क्षेत्रवार डिस्ट्रीब्यूटर मिलने में बड़ी कठिनाई हुई. और जैसा कि ख़राब एंटी-गाईड प्रोपेगंडा के चलते अपेक्षित था, 'गाईड' का शुरूआती दौर बहुत ख़राब गया. बाद में फिल्म थोड़ी उठी. मगर कुल मिला कर फाइनेंशियली फ्लॉप की श्रेणी में ही रही. हां कुछ समीक्षकों ने इसे 'क्लासिक' का दर्जा ज़रूर दिया. इन पंक्तियों के लेखक को भी ये बहुत पसंद आई, अलग अलग पीरियड्स में कई मरतबे देखी. गीत-संगीत की दृष्टि से तो ये बहुत ऊँचे दर्जे की रही. शैलेन्द्र ने गाने बहुत अच्छे लिखे थे.
उन्हें शुरू में कुछ ऐतराज़ था. क्योंकि वो राजकपूर कैंप के थे. लेकिन देव अड़ गए, गाने तो आप ही लिखेंगे. तब शैलेन्द्र ने ऊँची क़ीमत की डिमांड की, ये सोच कर कि देव मना कर देंगे. लेकिन देव ने उन्हें मुंहमांगी क़ीमत दी. सचिन देव बर्मन ने बड़ी तबियत से संगीत दिया. इसके गाने आज भी जुबां पर हैं - आज फिर जीने की तमन्ना है...दिन ढल जाए रात न जाए...क्या से क्या हो गया बेवफ़ा तेरे प्यार में...पीया तोसे नैना लागे रे...सैयां बेईमान... वहां कौन है तेरा मुसाफ़िर...गाता रहे मेरा दिल...अल्लाह मेघ दे पानी दे... मगर अफ़सोस कि नॉमिनेशन श्रेणी में आने के बावजूद फिल्मफेयर ने बेस्ट म्यूज़िक का अवार्ड 'ख़ानदान' के लिए रवि शर्मा को दिया.
कुछ भी हो, मेरे विचार से फ्लॉप के तमगे के बावजूद देवानंद की 'गाईड' का स्मरण किये बिना फिल्म इतिहास अधूरा है.
-
रिपीट.
---
२६ सितंबर २०२१
( फेसबुक वॉल से )