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इमरजेंसी पर आरएसएस और मोदी : सूप बोले तो बोले चलनी भी बोल उठी, जिसमें बहत्तर सौ छेद

Shiv Kumar Mishra
28 Jun 2023 9:02 AM GMT
इमरजेंसी पर आरएसएस और मोदी : सूप बोले तो बोले चलनी भी बोल उठी, जिसमें बहत्तर सौ छेद
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RSS and Modi on Emergency: When soup was spoken, the sieve was also spoken, in which there were 72 hundred holes.

बादल सरोज

इस बार भी आरएसएस और उसके स्वयंसेवक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1975 की 25 जून की आधी रात को लगी इमरजेंसी के बारे में अपनी आदत के अनुरूप ऊंची फेंकी है। तब से इन पंक्तियों के लेखक की ग्वालियर की इमरजेंसी की जेल की कनस्तर स्मृति ताज़ी हो गयी।

जेल से डाक भेजने के लिए पोस्ट ऑफिस का परम्परागत लाल डिब्बा नहीं था -- उसकी जगह एक कनस्तर - टिन की एक पतली चादर का 2 बाय 3 अनुपात का डब्बा इस्तेमाल होता था। कनस्तर की नजदीकतम अंगरेजी "कन्टेनर" है, जो उस छवि के बिम्ब को अभिव्यक्त करने के लिए नाकाफी है, जो कनस्तर सुनते ही दिमाग में उभरता है। यह हमारे मीसाबन्दी कैंपस के लिए नियुक्त हेयर ड्रेसर की अठपहलू "कटिंग शॉप" की खिड़की पर रखा रहता था। रोज सुबह खाली होने जाता था -- तुरतई लौट आता था। एक दिन देखा कि कनस्तर अचानक एक की जगह दो कर दिए गए। बिन मांगे मिली सौगात के बारे जब पूछाताछी की, तो पता चला कि एक डब्बा 'ओवरफ्लो' होने लगा था, इसलिए दूसरा कनस्तर लाना पड़ा। अचानक इत्ती चिट्ठियां क्यों लिखी जाने लगीं? आँख मारते हुये बोले डाक मुंशी -- "रोज इंदिरा गांधी और संजय गांधी के लिए चिट्ठियां भेज रहे हैं तुमाए जे नेता। दिन में दो-दो बार भेज रहे हैं माफीनामा!!"

खबर मजेदार थी। सीपीएम के मीसाबंदियों की बैरक नम्बर 10/4 ऊपर की बैरक थी। ठीक हमारी खिड़की के सामने से नीचे दिखाई देते थे कनस्तर-पोस्टबॉक्स!! अब हम लोगों ने देखरेख शुरू की। पाया कि रात 11 बजे फलाने जी चले आ रहे है, तो साढ़े ग्यारह बजे अलाने जी। लाइन लगाकर इत्ते माफी नामे अर्पित हो रहे हैं कि लाज से झुके जा रहे हैं कनस्तर जी।

कुल मिलाकर ये कि सीपीएम, कुछ समाजवादियों और एक दो सर्वोदयी को छोड़ कर पूरी जेल में ऐसा एक भी नहीं बचा था, जिसने इस कायरता के राजदार और माफीनामे के मेघदूत कनस्तर की गटर में बारम्बार डुबकी न लगाई हो। एक फ्रेंच कहानी है, जिसमे प्रिय की चिट्ठी के लिए डाकिये का इन्तजार करते-करते अंत में डाकिये से ही प्रेम हो जाने का जिक्र है। जेल में संघी कुटुंब का कनस्तर-प्रेम कुछ इसी अवस्था तक पहुँच चुका था।

इमरजेंसी खत्म होने के कई महीनों के बाद निर्मम आत्मव्यंग की विशिष्ट योग्यता वाले एक वरिष्ठ जनसंघी से मुलाकात हुयी। जनता-राज में चाशनी से महरूम रह गए इन काका जी ने "मंज़िल उन्हें मिली, जो शरीके सफर न थे" की वेदना के साथ जेल के कई और गोपनीय चुटकुले सुनाते हुए कहा कि अमुक जी वाली भाभी जी बता रही थीं कि इनकी हालत ये हो गयी है कि घर में कहीं भी कनस्तर दिखता है, उसमे इंदिरा गांधी के लिए चिट्ठी डालने का इनका मन होने लगता है।

कायरता और पलायन के इतने कलंकित रिकॉर्ड के बाद भी जब स्वयंसेवक प्रधानमंत्री और आरएसएस इमरजेंसी के खिलाफ, लोकतंत्र की हिमायत के योद्धा होने का अभिनय करते हैं, तो "सूप बोले तो बोले चलनी भी बोल उठी, जिसमे बहत्तर सौ छेद" की कहावत याद आती है।

इसी तरह की निर्लज्ज झूठबयानी में ही पारंगत है यह खल मंडली। वह जमात इमरजेंसी के खिलाफ लड़ने का दावा ठोंक रही है, जिसने उसकी शान में कसीदे लिख कर जितने कागज़ काले किये हैं, उतने तो जनसंघ-भाजपा के अब तक के सारे दस्तावेजों में भी जाया नहीं हुए होंगे। पूरी जनसंघ-आरएसएस बरास्ते कनस्तर इंदिरा गांधी और संजय गांधी की शरणागत हुयी पडी थी। नीचे से ऊपर तक सब के सब सिर्फ इन माँ-बेटों के आगे ही नहीं, जो भी मुक्त करा दे, उनके आगे नतमस्तक थे।

इनकी इस माफी-परायणता को देखकर एक दिन बातों-बातों में ही सेन्ट्रल जेल में हम युवाओं ने हवा फैला दी कि इंदिरा-संजय को चिट्ठी भेजने से क्या होगा? न उन तक पहुंचेगी, न वे पढ़ेंगे । भेजना है तो फलाने (तबके जिला कांग्रेस के नेता और उन दिनों की गुंडा-वाहिनी सेठी ब्रिगेड के संरक्षक, बाद में भाजपा के विधायक भी हुये) ढिकाने (एक युवा कांग्रेसी, जिनकी हैसियत उस जमाने में ग्वालियर के संजय गांधी जैसी थी) या ढिमकाने (एक और टाइटलर धजा का युवा कांग्रेसी) को भेजो। उनकी सिफारिश ही चलेगी। गप्प ऐसी हिट हुयी कि पता लगा कि उनके नाम से भी जेल के अंदर से चिट्ठियां और जेल के बाहर से चिट्ठीरसाओं के परिवारियों की तरफ से मिठाइयां जाना शुरू हो गयीं!!

यह सिर्फ ग्वालियर जेल की कहानी नहीं थी -- पूरे देश में यह माफी पर्व मना था। आरएसएस की खासियत यह है कि वह कायरता को सांस्थानिक रूप देकर उसे इतना आम बना देता है कि जो कायर नहीं होते हैं, वे अकेला महसूस करने लगते हैं।

अंग्रेजों के जमाने में इसने यही किया। यही इमरजेंसी में हुआ। इमरजेंसी में आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी और संजय गांधी और वीसी शुक्ला और पीसी सेठी तक न सिर्फ दूत दौड़ाये थे, बल्कि बाकायदा चिट्ठियां भी लिखी थीं। इन चिट्ठियों-संदेशों मे इंदिरा गांधी के बदनाम 20 सूत्रीय कार्यक्रम और संजय गांधी के कुख्यात 5 सूत्री कार्यक्रम (जिसका एक परिणाम थी जबरिया नसबन्दी) को राष्ट्र-हित में किये जा रहे महान कार्य निरूपित करते हुए कातर गुहार की गयी थी कि हम सब को रिहा किया जाए, ताकि इन दोनों महान कार्यक्रमों को पूरा करने के राष्ट्रीय कर्तव्य में आरएसएस भी प्राणपण से जुट सके। आरएसएस की ये चिट्ठियां राष्ट्रीय रिकॉर्ड का हिस्सा हैं - उपलब्ध हैं। अटल बिहारी वाजपेई पूरी इमरजेंसी भर पैरोल पर छूटे रहे। विदेश मंत्री बाद में बने, कई देश आपातकाल में ही घूम आये।

हिंदुत्व गिरोह का चिट्ठी सरेण्डर विनायक दामोदर सावरकर के जमाने से चल रहा है। उन्होंने रानी विक्टोरिया के हुजूर में एक नहीं, पांच-पांच चिट्ठियां लिखी थीं और उनमें किये गए स्वतन्त्रता संग्राम में फिर कभी हिस्सा न लेने के वचन को ताउम्र निबाहा। इसकी एवज में 60 रूपये महीने का वजीफा भी पाया। उस जमाने में साठ रूपये महीना थानेदार की तनखा भी नहीं हुआ करती थी।

यही चिट्ठी-सरेंडर 1948 में गांधी हत्याकांड के बाद लगे प्रतिबन्ध में भी आजमाया गया। नेहरू और पटेल को लिखी गोलवलकर की चिट्ठियां सरकारी रिकॉर्ड के अलावा अनेक किताबों की शोभा बढ़ा रही हैं, फिर भला इमरजेंसी कैसे छूट जाती। खातिर जमा रखें, यदि आगे भी जरूरत पडी, तो यही आजमाया हुआ नुस्खा अमल में लाया जायेगा। फासिस्ट व्यक्ति के रूप में स्वभावतः इतने ही भीरू, डरपोक और कायर होते हैं। उनकी "वीरता" दूसरों को उकसाने और सत्ता संरक्षण में धमाल मचाने तक ही है।

इसीलिए जब मध्यप्रदेश में मीसाबंदियों को पेंशन देने की शुरुआत की गयी, जो अब 30 हजार रूपये महीना हो चुकी है, तब उस पेंशन को ठुकराते हुए सीपीएम ने सवाल उठाया था कि जिन्होंने दलबल सहित, लिखा-पढ़ी में इमरजेंसी को सही माना, उसका समर्थन किया, उसके दमन के औजार 20 सूत्री तथा 5 सूत्री कार्यक्रमों को लागू करवाने में मदद की पेशकश की, वे "लोकतंत्र सैनानी" होने का दावा कैसे कर सकते हैं ? जिनका बड़ा हिस्सा 19 महीने के आपातकाल में मात्र कुछ महीने जेल में रहां और माफी मांगकर छूटा, वह किस कुर्बानी की पेंशन ले सकता है?

सीपीआई(एम) ने इन सारे माफीनामों को सार्वजनिक करने की मांग की थी। आज भी यही मांग कायम है। स्वयंसेवक प्रधानमंत्री के थोथे दावे के बाद तो यह और भी प्रासंगिक हो जाती है।

लेखक साप्ताहिक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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