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- काली अँधेरी रात में...
शंभूनाथ शुक्ल
हालाँकि मैं इस शृंखला की 35 कड़ियाँ लिख चुका हूँ। लेकिन 27 (A) लिखने की वजह यह है कि मैंने 27 वीं कड़ी को एक ऐसी जगह छोड़ दिया था, जिसके आगे लिखना बहुत ज़रूरी था। कुछ सुधी पाठकों ने कई बार पूछा और जो बस मेरा नाम देख कर लाइक का बटन दबा देते हैं, उनको पता नहीं कि मैंने कहाँ छोड़ा था। ख़ैर, उसके आगे।
टीटी ने उस काली अंधेरी रात में जिस स्टेशन पर मुझे उतारा, वह कोई छोटा-सा हाल्ट था। मेरे सिवाय वहाँ कोई नहीं उतरा। ईंटों का चबूतरा जैसा प्लेटफ़ॉर्म। लैम्प पोस्ट तो दूर कहीं कोई दीया तक नहीं। बिजली तो उस जमाने में वहाँ उस गाँव में अकल्पनीय थी। क़रीब 50 गज लम्बे प्लेटफ़ॉर्म के बीच एक झोपड़ी थी, जिसमें स्टेशन मास्टर बिराजते थे। मैं ऊहापोह में था, कि उस झोपड़ी जैसे केबिन से एक व्यक्ति आया और मुझे स्टेशन मास्टर के पास ले गया। स्टेशन मास्टर ने पूछा टिकट है? मैंने कहा, टिकट होता तो यहाँ उतरता? भूख की वजह से मैं झुँझला रहा था। फिर अगला सवाल आया, पढ़ते हो? जवाब भी तमक कर दिया, नहीं घास छीलता हूँ। वह आदमी झटके से अपनी कुर्सी से उठा और एक भरपूर तमाचा मेरे गाल पर रखा। अब मुझे गलती का अहसास हुआ। रुआँसा हो कर बोला, मुझे कानपुर जाना है। उसने कहा- फ़ौरन स्टेशन से निकल जाओ, वर्ना पुलिस को दे दूँगा। मैंने पूछा, अगली गाड़ी कब आएगी? बोला कल इसी वक्त। उस समय स्टेशन की घड़ी रात के पौने तीन बज़ा रही थी। मैं अँधेरे में कहाँ जाऊँ, कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन स्टेशन मास्टर मुझे वहाँ से फ़ौरन भगा देने को आमादा था। मैंने उसी दिशा में कदम बढ़ाया, जिधर को गाड़ी गई थी। प्लेटफ़ॉर्म जहां ख़त्म होता था, वहाँ से रास्ता कुछ नहीं सूझ रहा था। पाँवों से बार-बार ट्रैक किनारे की रोड़ी टकरातीं। ठंड ऊपर से। नवम्बर मध्य चल रहा था और मेरे बदन पर एक हाफ़ स्वेटर था। फुल पैंट और सफ़ेद रंग के पीटी शू। कुछ दूर बाद रेल पटरी दो पहाड़ियों के बीच घुसी चली जा रही थी। उस सूनसान अंधेरी रात में एक खोह में घुसने से पहले तो झिझका फिर अपनी साइड वाली पहाड़ी की तलहटी को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ा। आधा घंटे बाद में उस पार था। इसके बाद पहाड़ी किनारे एक चट्टान पर बैठ गया। पीठ टिका ली और फिर कब नींद आई, पता नहीं चला। किसी इंजन की तेज सीटी और छुक-छुक से नींद खुली तो देखा कि कोई मालगाड़ी धड़धड़ाते हुए गुज़र रही है। तब तक खूब उजाला भी हो आया था और धूप भी खिलने लगी थी।
मैं फिर आगे बढ़ा। यह पठारी इलाक़ा था। लाल-लाल पथरीला मैदान, कहीं-कहीं खेत और बीच-बीच में बहता पानी। दरअसल बुंदेलखंड के इस पठारी इलाक़े में छोटी-छोटी नदियाँ हैं, झरने तो कई हैं इसलिए पानी है तो यहाँ बहुत मगर वह सब बह जाता है। ज़मीन यहाँ के पानी को सोख नहीं पाती। ऐसे ही एक पहाड़ी नदी पर मैं रुका। निपटान हुआ, हाथ-मुँह धोया और फिर लाइन किनारे-किनारे आगे बढ़ा। अब भूख और ज़ोर से लग आई थी। किंतु खाता क्या! कुछ दूर पर एक बूढ़ा आदमी दिखा जो खेतों की रखवाली कर रहा था। मैं उसके पास गया तो वह बोला, दौआ राम-राम! मैंने भी उसे राम राम किया और बताया कि ज़ोरों की भूख लगी है। उसने कहा कि "दौआ हम तो चमार हैं, हमाओ छुओ तो तुम खइयो नाहीं। सामने गाम मा चले जाओ। हुआं पे पहलई घर यादव जी को है, बे गाम के मुखिया हैं, होईं मिल जैहे खानो!" मैंने कहा- दाऊ हमहूँ चमारै हैं, हमें तो तुम्हीं खिला दो"। उसने मुझे आश्चर्य से देखा फिर बाजरे के भुट्टे तोड़े और वहीं आग पर भून कर खिलाए। अब पेट में कुछ पड़ गया था। मैं आगे बढ़ा तो सामने देखा कि कोई 50 साला भव्य मूर्ति चली आ रही है। बढ़िया फिनले की धोती के ऊपर आसमानी रंग का कुर्ता और सदरी, कुरुम के जूते, रौबीली मूँछें। आँख के इशारे से बोले- आप कौन? मैंने अपना परिचय दिया तो बोले, यह डकैतों का इलाक़ा है, आप जल्दी से यहाँ से निकल जाओ। ये उसी गाँव के मुखिया थे। मुझे उन्होंने पानी को भी नहीं पूछा। मैं तेज़ी से आगे बढ़ लिया। घंटे भर बाद रेलवे लाइन किनारे चहल-पहल दिखी। यहाँ सड़क पर चल रहे वाहन भी दूर से नज़र आने लगे। यह एक बड़ा रेलवे स्टेशन था। प्लेटफ़ॉर्म पर बोर्ड लगा था- निवाड़ी। थका-माँदा मैं प्लेटफ़ॉर्म पर पड़ी एक बेंच पर बैठ गया। यह बेंच प्लेटफ़ॉर्म के आख़िरी किनारे पर थी। मैं थोड़ा सचेत भी था, क्योंकि अगर स्टेशन के मुख्य भवन के पास बैठता तो कोई भी आकर पूछ-ताछ कर सकता था। यहाँ तो मैं स्टेशन पर था भी और नहीं।
अचानक एक चमकती चीज़ पर मेरी निगाह पड़ी। मैंने उसे उठाया, वह एक अठन्नी थी। उस समय 1971 में अठन्नी की क़ीमत थी। इसमें मुझे ढाई सौ ग्राम पकौड़ी और चाय मिल सकती थी। मैं ऐसा कुछ सोच रहा था कि रेलवे का एक खलासी कुछ ढूँढ़ता हुआ वहाँ दिखा। मैंने पूछा, क्या ढूँढ रहे हो? उसने कुछ उदास भाव में कहा, कि अठन्नी कहीं गिर गई है। मैंने कहा, ये लो। मुझे मिली है। वह बड़ा खुश हुआ। बोला, कहाँ जा रहे हो। मैंने उसे पूरा क़िस्सा बताया तो उसने कहा कि अभी 12 बजे हैं। शाम पाँच बजे झाँसी जाने वाली गाड़ी यहाँ रुकेगी, उसमें चढ़ जाना। फिर बोला, कुछ खाया है? मैंने कहा, नहीं। तब उसने कहा, आज स्टेशन पर बड़े अफ़सर आ रहे हैं, सो उनके स्वागत के लिए काफ़ी कुछ बना है। यहीं बैठो ले आऊँगा। थोड़ी देर बाद वह मुझे ढेर सारी पूरियाँ, सब्ज़ी, पकौड़े और चाय व मिठाई लाकर दे गया। मेरा दिव्य भोजन हो चुका था। शाम पाँच बजे ट्रेन आई तो वह मुझे टीटी के पास ले गया और बोला, कि मास्टर साहब के रिश्तेदार हैं, झाँसी तक ले जाना। गाड़ी आगे बढ़ी। एक स्टेशन बरुआ सागर आया। यहाँ पर अदरक आठ आने सेर थी। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि उस जमाने में भी अदरक कानपुर में एक रुपए की पाव भर ही मिलती थी। शाम साढ़े सात बजे गाड़ी झाँसी पहुँची और आउटर पर रुक गई। उस समय भारत-पाक युद्ध चल रहा था और अंधेरा होते ही छावनी वाले शहरों में ब्लैक आउट हो जाता, ताकि पाकिस्तान के बमवर्षक भारत के शहरों को ज़ान न पाएँ। टीटी ने कहा, यहीं उतर कर निकल जाओ, झाँसी में स्टेशन के बाहर निकलना मुश्किल होगा।