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हिंदी वालों को बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं से नाता तोड़ लेना चाहिए?
रंगनाथ सिंह (पूर्व पत्रकार, बीबीसी)
अभी अजय कुमार ने लिखा, "हिंदी वालों को बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं से नाता तोड़ लेना चाहिए। वह गलत जगह इन्वेस्टमेंट कर रहे हैं। हिंदी की पूरी दुनिया सरकारी स्कूलों से बनी हुई है। भारत के नामी-गिरामी पढ़ाई के संस्थान जो गिनकर 1 फ़ीसदी से भी कम होंगे। वह अमीरों की मिल्कियत है। अंग्रेजी में है। भारतीय सरकार का हर बड़ा पद काबिलियत परखता रखता है। काबिलियत पैदा करने की काबिलियत सरकारी स्कूलों और भारत के 99 फ़ीसदी शिक्षण संस्थानों में नहीं है। जहां पर हिंदी वाले पढ़ते लिखते हैं।"
लोकसेवा आयोग के नतीजों के मद्देनजर देसी माध्यमों की बहस फिर से शुरू हो चुकी है। मैं इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था लेकिन अजय कुमार की मार्मिक टिप्पणी के मद्देनजर लिखने का मन कर गया। आखिर वो कौन लोग हैं जो इस देश में हिन्दी माध्यम होते हैं? हम जैसे लोग जब हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी माध्यम की वकालत करते हैं तो अंग्रेजी-माध्यम-टाइप या उनके दफ्तरों में उनके मुँहजोही करने वाले हिन्दी को वर्चस्ववादी भाषा बताने लगते हैं। जाहिर है कि ऐसे लोग हिन्दी भाषा के इतिहास से अनभिज्ञ होते हैं या फिर खास तरह की एजेंडा सेटिंग के तहत जानबूझकर शरारत करते हैं। इसलिए हिन्दी को थोड़ी देर के लिए किनारे रख देते हैं।
हमें देखना चाहिए कि सभी भारतीय भाषाओं के कितने प्रतिशत विद्यार्थी राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं में चयनित हो पाते हैं! आज भारतीय भाषाओं में किन वर्गों और जातियों के बच्चे परीक्षा देते होंगे। सच यही है कि भारतीय भाषा माध्यम मतलब गरीब एवं ग्रामीण दलित, पिछड़े आदिवासी जिनकी पहली पीढ़ी शिक्षा पा रही है। अगड़ी जातियों में भी वही भारतीय भाषा माध्यम में पढ़ रहे हैं जो गरीब या ग्रामीण इलाकों में होंगे। आदिवासी इलाकों में चलने वाले मिशनरी स्कूल इसका अपवाद हैं लेकिन उनके उद्देश्य को लेकर अलग बहस की जरूरत है।
प्रिंट में प्रकाशित एक ताजा रपट के अनुसार अखिल भारतीय NEET परीक्षा की शुरुआत के बाद तमिल माध्यम के छात्रों का इसमें चयन करीब 15 प्रतिशत कम हो गया है। तमिल का उदाहरण इसलिए दिया कि वो सबसे ज्यादा हिन्दी विरोध करते हैं। मुझे पूरा भरोसा है आने वाले कुछ दशकों में तमिल माध्यम से राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाएँ निकालने वाले और कम होते जाएँगे। यही हाल अन्य भाषाओं का होगा। भारतीय भाषाएँ आपस में लड़ती रहेंगी और धीरे-धीरे अंग्रेजी की अधीनता स्वीकार करती जाएँगी।
जब भी भारतीय भाषाओं की बात आती है तो कुछ विद्वान दुहाई देने लगते हैं कि इनमें नोबेल विजेता वैज्ञानिक तैयार होना बंद हो जाएँगे। विज्ञान और तकनीक की बात फिलहाल छोड़ देते हैं। लोकप्रशासन में अंग्रेजी की क्या भूमिका होती है? UPSC वाले यूपी-बिहार-गुजरात-केरल में कौन से नोबेल पुरस्कार की खेती करते हैं? तमिलनाडु या यूपी का प्रशासन चलाने के लिए अंग्रेजी की जानकारी ज्यादा जरूरी है या तमिल या हिन्दी या अन्य स्थानीय भाषाओं की? यही हाल वकालत और मुंशीगिरी का है। विदेशी भाषा का वर्चस्व मूलतः लोकतंत्र विरोधी है। ब्रिटेन में अंग्रेजी फ्रेंच और लैटिन को अपदस्थ करके राजकाज और ज्ञान की भाषा बनी क्योंकि वो अवाम की भाषा थी।
राजशाही में हुक्मरान की भाषा सीखने का बोझ अवाम पर डाला जाता था। दरबारी बनने की यह बाध्यकारी शर्त थी। लोकशाही में अवाम की भाषा सीखने का दायित्व उनपर होता है जो उस अवाम की नुमाइंदगी करने का ख्वाब देखते हैं। यूपीएससी में इंग्लिश मीडियम हावी है लेकिन कोई यह दावा कर सकता है कि इन काबिल लोगों में भ्रष्टाचार प्रादेशिक सेवाओं से कम है या काबिलियत प्रादेशिक सेवाओं के अफसरों से ज्यादा है? नहीं कर सकता। यूपीएससी का मॉडल कोलोनियल कंट्रोल टूल के तौर पर विकसित किया गया था। जब तक यह नहीं टूटेगा सही मायनों में देश में लोक प्रशासन नहीं होगा।
गौतम बुद्ध और महावीर इस मामले में भी जीनियस थे कि उन्होंने अपने समय की वर्चस्वशाली भाषा (संस्कृत) को नकार कर मागधी और अर्ध-मागधी को अपने उपदेशना का आधार बनाया। दो सौ साल से ज्यादा वक्त हो गया भारत में इंग्लिश मीडियम स्कूलों के शुरू हुए। साल 2011 की जनगणना में महज ढाई लाख लोगों ने इसे अपनी पहली भाषा बताया। करीब आठ करोड़ ने दूसरी और चार करोड़ ने तीसरी भाषा बताया। जरा सोचिए, 250 सालों से ज्यादा समय से चले आ रहे इंग्लिश एजुकेशन के बाद यह स्थिति है। यह ऐसे लोगों का आँकड़ा है जो खुद ही अंग्रेजी को अपनी दूसरी या तीसरी भाषा बता रहे हैं।
उच्च शिक्षा या वैज्ञानिक शिक्षण में जिन्हें अंग्रेजी माध्यम रखना है वो रखें लेकिन प्रशासन एवं कानून इत्यादि क्षेत्रों को भारतीय भाषाओं में पूरी तरह लागू करना बहुत जरूरी है। लोकसेवा में जाने के इच्छुक अभ्यर्थियों को अन्य भारतीय भाषाएँ सीखने को प्रेरित करना बहुत आसान है। लोकसेवा आयोग की परीक्षा के नतीजे जाहिर करते हैं कि विद्वान से विद्वान अभ्यर्थी किसी अन्य सेवा के बजाय IAS में जाने के लिए चार-पाँच प्रयास कर सकता है। यानी वह अन्य सेवाओं को IAS से कमतर समझता है। ऐसे में IAS में भाषायी प्रवीणता की शर्त रखी जानी चाहिए। हर प्रदेश की भाषा के हिसाब से IAS की सीट होनी चाहिए।
अगर कोई अभ्यर्थी केवल हिन्दी जानता है और उसकी रैंक इतनी अच्छी नहीं है कि वो हिन्दी प्रदेशों में IAS बन सके तो उसे दूसरी सेवा से संतोष करना पड़ेगा। अगर वह हिन्दी प्रदेश लायक रैंकिंग न लाये लेकिन गुजराती या मराठी या तमिल लिखने-बोलने-पढ़ने की योग्यता साबित कर सके तो उसे तमिलनाडु कैडर का आईएएस बनने का विकल्प मिल सकेगा।
जो लोग खुद को देश में सबसे काबिल समझते हैं उन्हें न्यूनतम शिक्षित व्यक्ति की भाषा में कामकाज करने से डरने की जरूरत नहीं। पाँचवी-आठवीं-दसवीं पास गरीब-ग्रामीण अगर वह दस्तावेज पढ़ सके जो देश के सबसे मेरिट वाले तैयार करते हैं तो इसमें सबका भला है। मेरिट वाले IAS तो कोई भी भाषा चटपट सीख सकते हैं। कम मेरिट वालों पर अंग्रेजी सीखने का बोझ वो नाहक डालते हैं। मेरिट वाले अंग्रेजी पढ़कर नोबेल लाएँ, IFS बनें और कम मेरिट वालों को तमिल, बांग्ला, हिन्दी पढ़कर IAS/IPS इत्यादि बनने दें।