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विश्व दीपक
जब यूपीए गठबंधन दोबारा जीतकर सत्ता में आया तो 2009-10 में राहुल गांधी ने कांग्रेस के अंदर लोकतंत्र को मजबूत करने और ज़मीनी नेताओं को, युवाओं को उभार कर सामने लाने का जोरदार प्रयार किया.
यहां तक कहा कि वो खुद वंशवाद की उपज हैं. यह बुराई है. राजनीति में इसे समाप्त किया जाना चाहिए. यह एक दुस्साहसी कनफेशन था. कौन कर सकता है आज के राजनीतिक दौर में ऐसा कनफेशन?
राहुल की कोशिशों के बाद कई राज्यों में NSUI, IYC में अमेरिकी चुनाव की तर्ज पर चुनाव कराए गए. जहां तक मुझे याद है कि अकेले गुजरात चुनाव में ही 2-4 करोड़ खर्च किए गए थे. उत्तराखंड में भी चुनाव कराए गए.छात्र संगठन और यूथ कांग्रेस के अंदर तो चुनाव हो गया लेकिन कांग्रेस पार्टी के अंदर नहीं हो पाया. क्यूं नहीं हो पाया?
क्यूंकि यही नेता - यही आज़ाद, यही कपिल सिब्बल, यही आनंद शर्मा, यही सीनियर नेता जो आज आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस के अंदर फीडबैक का कोई सिस्टम नहीं रह गया या थियरिटकली कहें तो इंटरनल डिमॉक्रेसी नहीं रह गई - नहीं चाहते थे कि कांग्रेस पार्टी के अंदर चुनाव हो. कोई बड़ी खिड़की खुले.
खिड़की खुलती तो ज़मीनी प्रतिभाएं आतीं और ये सब सीनियर नेता अप्रासंगिक हो जाते. चूंकि अप्रासंगिकता का डर खतनाक होता है खासतौर से राजनीति में (जहां सत्ता का खेल होता है) तो इस पूरी मुहिम को उस दौर के नेताओं ने मिलकर पटरी से उतार दिया.
बाद में युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने के मकसद से कांग्रेस पार्टी ने मनीष तिवारी, सिंधिया, आरपीएन, जितिन प्रसाद आदि को मंत्री बनाया गया. जब तक ये सब मंत्री रहे, सत्ता के शीर्ष पर रहे तब तक इन सबको न तो कांग्रेस के अंदर के लोकतंत्र से दिक्कत थी, न ही फीडबैक मैकेनिज्म से.
अब चूंकि कई सालों से सत्ता से बाहर हैं तो उनके पेट में लोकतंत्र की बुलबुल नाचने लगी. इसीलिए सब बारी-बारी से भाग रहे हैं.
कांग्रेस बड़ा और जटिल संगठन है. जिन्हें लगता है कि छड़ी घुमाने से सुधार हो सकता है वो अपने चार लोगों को परिवार में एक सुधार करके दिखाएं. समझ आ जाएगा.
लोकतंत्र की दुहाई वो दें जिन्होंने लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए काम किया है. जब बुलबुल की सवारी करने वाले और उनके अनुचर लोकतंत्र की दुहाई देते हैं हंसी भी आती है और इस मुल्क के सामूहिक पतन पर अफसोस भी होता है.




