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राष्ट्रीय खेल दिवस पर विशेष: देशी खेलों की बढ़ी मुश्किले

सुजीत गुप्ता
29 Aug 2021 10:36 AM GMT
राष्ट्रीय खेल दिवस पर विशेष: देशी खेलों की बढ़ी मुश्किले
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डॉ दर्शनी प्रिय

युवा होते देश में खेलों का लगातार युवा होते जाना शुभ संकेतक है। उसमें भी एक ऐसे देश में जहां चमचमाते खेलों के महंगे आकर्षण में लोग बेलौस होकर मंत्रमुग्ध हो, वहां खेलों का इस तरह देसी रुआब के साथ जवाँ होना ठिठकाता है। ये खेलों के प्रति प्रतिबद्धता नहीं तो और क्या है जो वयोवृद्ध फ्लाइंग सिख, मिल्खा को अपना नाम इतिहास में दर्ज़ कराने को प्ररित करता है वहीं दूसरी ओर ओर नीरज चोपड़ा जैसे नौजवान को एक अनाकर्षक खेल के जरिए झटके में स्वर्ण पदक दिला देता हैं।

पीढ़ियों के इन फ़ासलों ने खेलों के रंग-ढंग को करीने से बदला हैं। ध्यानचंद से शुरू हुआ यह सफर मीराबाई चानू तक आते-आते अपने क्रमिक विकास के कई दौड़ से गुजरता है। इस बीच संभावनाओं और असंभावनाओं से जुड़े खेलों के इस दर्पण में कई ऐसे अक्स उभरे जो निराशा की धून्ध में कहीं गुमशुदा हो गये तो कुछ ऐसे भी रहे। बदी जिन्होनें तमाम जद्दोजहद के बाद भी खेलो के प्रति अपने लालित्य बोध को नहीं छोडा है।प्रतिभावान और जुझारू खिलाड़ी अपने हौसले के बूते संघर्ष की राह तय ही कर रहे थे कि यकबयक महामारी के दानव ने उस पर ब्रेक लगा दिया।

एस के सिराज कोलकाता फुटबॉल टीम के सेमी प्रोफेशनल खिलाड़ी अपनी आपबीती बताते हुए कहते है-" मैं एक दिन के भीतर सड़क पर आ गया।मेरे जैसे सेमी स्पोर्ट्स मैन के पास किसी कंपनी या असोसिएशन के साथ कोई समझौता पत्र नहीं था ।जिसके चलते मुझे अब हायर नहीं किया जाता।

अब मेरी नौकरी खतरे है। मेरे घर में पत्नी,माँ पापा,दादी छोटे भाई बहनो का सारा दारोमदार उनके कन्धों पर है।कुछ दिनो पहले (कोरोना से पूर्व)असम के एक लोकल लीग के साथ खेलकर आये थे वहां पच्चीस हज़ार से तीस हज़ार महीना मिल जाता था । पर अब हालात बद्त्तर है। घर चलाने के लिये उन्हे बाज़ार में मीट बेचने का काम करना पड़ा। 24 वर्षीय सिराज कहते है मुझे अपने घर में लोगो का पेट पालना है। इसलिये मेहनत मज़दूरी से क्या डरना। खेल बाद में पहले खाने की व्यवस्था तो कर लू।

महामारी के क्रूर दौर ने खेलों के स्वर्णिम युग को हासिये पर धकेला है।और पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। टोकियो ओलम्पिक में सौ खिलाड़ियों के जत्थे को भागीदारी के लिए भेजा गया।इस वायरस के कारण दुनिया जैसे थम सी गई है। लेकिन खेलों की बात करें तो पहली बार ऐसा कुछ हुआ जिसकी कल्पना किसी ने भी न की थी। जिन खिलाड़ियों का पूरा दिन मैदान पर बीत जाता था। उनके लिए खेल से दूर पूरा दिन घर पर बीताना मुश्किल हो रहा था। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 300 छोटे बड़े चैम्पियनशिप को कोरोना महामारी के चलते टालना पड़ा जिससे भविष्य के कई खिलाड़ी अपनी प्रतिभा दिखाने से चूंक गये।

अकेले कोलकाता लीग के पास 286 टीम और छह हज़ार खिलाड़ी है। औसतन प्रत्येक सीजन में चौदह सौ मैच खेले जाते है ।पर अब इनमें से जयादा ठप्प है। उनमें से कईयों ने तो खेल छोड़ कोई अन्य पेशा अपना लिया।आने वाले समय में बेशक स्थिति सामान्य हो जाए लेकिन कोरोनावायरस के खत्म होने के बाद भी उसका असर खेलो पर दिखता रहेगा। इसके चलते ज्यादातर खेल प्रतियोगिताएं, क्रिकेट सीरीज और फुटबॉल मैच या तो स्थगित कर दिए गए हैं या उन्हें रद्द किया जा चुका है। भारतीय एथलेटिक्स फेडरेशन के अनुसार कई घरेलू टूर्नामेंटों पर ग्रहण लग चुका है और सभी नेशनल ओर रीजनल चैंपियनशिपों कोअनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया है।

हमारे यहां देसी खेलों को निम्नतर आंकने का रवैया रहा है।भले ही पिछ्ले कुछेक सालों में इन खेलो के प्रति प्राधिकरण का रवैया बद्ला हो पर अब भी ये हासिये के खेल ही माने जाते है। क्रिकेट जैसे महंगे और ग्लैमरयुक्त खेलों के वनिस्पत मिट्टी से जुड़े खेलों के प्रति उपेक्षात्मक रैवैया ही रहा है। बड़े और स्थापित खेलों पर तो इस महामारी से कोई खास असर नहीं पड़ा लेकिन इसने स्थानीय खेलों को लगभग निगल ही लिया। पिछले साल 2 साल के दरमियां ऐसे कई क्षेत्रीय खेलों के दरवाजे बंद हुए हैं जिनसे संघर्षरत युवा खिलाड़ियों की रोज़ी रोटी चलती थी।

हालांकि खेलों के प्रति उनके जज्बे और जुनून पर भले ही कोई फर्क नहीं पड़ा हो लेकिन उनका मनोबल तो टूटा ही है।आंकड़े बताते हैं कि छोटे बड़े ऐसे कई आयोजन कर्ता और संस्थान है जिनपर कोरोना की भारी मार पड़ी है। खेल जिनका ईमान , धर्म और जीने का जरिया हो और सबसे बढ़कर रोजी-रोटी का साधन हो उनके लिए स्थितियां निश्चित ही प्रतिकूल है। बड़े और ग्लैमरस खेलों के आयोजन,लीज, वनडे आदि तो फिर भी किसी तरह अपनी रफ्तार में चलते रहे पर जमीन से जुड़े कई खेलों का तो अस्तित्व ही मिट गया ।

महमारियों की मार ऐसी पड़ी कि खिलाड़ियों को सफेदी से लेकर रिक्शा खींचने और भाजी तरकारी तक बेचने को विवश होना पड़ा है।ट्रॉफी, मैचों और फुटकर चैम्पियनशिप से आने वाले पैसे जब बंद हुए तो पेट की खातिर कमाई के दूसरे विकल्पों की ओर मुड़ना पड़ा। ऐसे में न केवल खेल प्रभावित हुए बल्कि खिलाड़ियों के मन भी प्रभावित हुए।भारतीय फुटबॉल संघ के सचिव ने इस बात को माना कि स्थानीय और देशी खेल अपने समय के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। जिंदा रहना जरूरी है तो भरपेट खाना जरूरी है। और इक्की दुक्की ट्राफीयोँ के बूते तो ऐसा बिल्कुल सम्भव नही है।

लंबे लॉक डाऊन ने इन खिलाड़ियों को भुखमरी के कगार पर ला खडा किया है जिन्होने खेल भी इसलिये चुना ताकि अपना घर चला सके।खेल के प्रति उन्के अदम्य प्रेम और जज्बे ने ही उन्हे अपने सपनों को जीने का हौसला दिया। यही वज़ह है की ऐसी विकट हालात में भी वे मुस्तैदी से डटे हुए है। रग्बी, फुटबॉल,कबड्डी,खो-खो आदि से जुड़े हजारों ऐसे खिलाड़ी हैं जिनके समक्ष कोरोनावायरस ने मुश्किलें पैदा की है जिससे उन्हें खेलों के प्रति अपने अनुराग का त्याग करना पड़ा या फिर हमेशा के लिए उन्हें अलविदा कहना पड़ा।

विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जमीन से जुड़े खेलों की कमी के चलते हम आने वाले समय में भारी मात्रा में अच्छे खिलाड़ियों को खो देंगे। क्योंकि पस्त हौसलों के साथ उन्हें वापस खेल के मैदान से जोड़ना इतना आसान ना होगा।

कोरोनावायरस से सभी ट्रॉफीयां बंद हैं और देसी खेलों के भविष्य पर संकट छा गया है। आंकड़े बताते हैं कि खेलों में आनेवाले 90% बच्चे आम मध्यमवर्गीय परिवारों से संघर्ष के रास्ते आते हैं। केवल 10% सक्षम परिवार से ताल्लुकात रखते है।ज्यादातर का ऊद्देश्य आर्थिक उपार्जन करना होता है।

सच में यह वह कठिन दौर है जब खिलाड़ी मानसिक और शारीरिक दोनों मोर्चों पर एक साथ लड़ रहे हैं।सवाल जब पेट और राशन दोनों का हो पैशन का मोटिवेशन कोरी बातें लगती है।देसी खेलों के बंद होने से आजीविका पर तो फर्क पड़ा ही है। साथ ही कईयों का खेल करियर भी दांव पर लग गया है ।आर्थिक अवसाद और खेलों में निष्क्रियता की खीज ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया है। उन्हें अपना भविष्य अंधकार मय दिख रहा है।

महामारी के दानव ने न केवल खिलाड़ियों बल्कि रेफरी,कोच, ग्राउंड मैन, टूर्नामेंट आयोजक, खेल के मैदान पर आने वाले वेंडर और फेरी वालों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। लंबे लॉकडाउन से उपजे तनाव और आर्थिक अस्थिरता ने मानसिक पारिस्थितिकी का एक ऐसा संजाल खड़ा किया है जहां सभी खिलाड़ी घुट रहे है।

सवाल है देसी खेल बचेंगे तभी तो ओलंपिक का सफर भी बचा रहेगा। जमीन से जुड़े खेल,खेलों के महाकुंभ की ताकत है। इनका बने रहना बेहद अहम है। ताकि और ज्यादा देसी खिलाड़ियों को मेडल के लिए तैयार किया जा सके। आखिर मिट्टी के रंग में रंगा खिलाड़ी ही मैदान में असली दमखम के जरिए ही अपनी असली पहचान हासिल करता है। आकर्षक, महंगे और चमकीले खेलों की आड़ में देसी खेलों की चमक कहीं फीकी न पड़ जाए। इसका विशेष ध्यान रखना होगा ताकी खरा सोना अपनी पूरी चमक और शान के साथ बना।


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