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रेवड़ी कल्चर गरीब देशों की मजबूरी या नेताओं का शौक

रेवड़ी कल्चर गरीब देशों की मजबूरी या नेताओं का शौक
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लोकलुभावन योजनाओं की शुरुआत के बाद फिर सरकार बनाने में मतदाताओं को लुभाने की परंपरा चल पड़ती है

सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त लुभावनी योजनाओं के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेवड़ी कल्चर बोलकर ऐसी योजनाओं को बंद करने या कम करने के लिए बोला था। तो आखिर ये लोकलुभावन योजनाएं ग़रीब देशों की मजबूरियां हैं या फिर सिर्फ राजनीतिक दलों का चुनाव जीतने का एजेंडा है।

सरसरी तौर पर लोकलुभावन योजनाएं राजनीतिक दलों और नेताओं के चुनाव जीतने का आसान तरीका नज़र आता है लेकिन इसकी जड़ों में दुनिया के वित्त माफिया जिन्हें हम आइएमएफ, विश्वबैंक आदि जिसे हम ब्रेटन वूड्स के नाम से जानते हैं आदि ने एक ऐसा मायाजाल दुनिया में फैलाया जिसमें देखते देखते गरीब देश फंसते चले गए और जो बचने कोशिश करता उसे किसी युद्ध में या डरा धमकाकर फंसा दिया जाता। ऐसे संस्थानों को अमेरिका की पुश्तपनाही ई हासिल है। इन वित्त माफियाओं के काम करने के तौर तरीके भी बहुत अजीब हैं ‌। इनका मकसद होता है गरीब देशों के संसाधनों और उनकी संपदा को लूटकर अपनी दौलत को बढ़ाना। इन माफियाओं के पीछे हैं दुनिया के बड़े देश।

ये सबसे पहले गरीब देशों के नेताओं को सलाह देते हैं कि जनता की समस्याओं जैसे गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, स्वास्थ्य आदि को दूर करने के लिए कदम बढ़ाना चाहिए और उसके लिए पैसे की आवश्यकता हम पूरी करेंगे जिसके लिए कुछ शर्तें हमारी माननी होंगी। गरीब देश की सरकारें इन बातों को इसलिए स्वीकार करती हैं कि शायद देश प्रगति और विकास की ओर बढ़े और ऐसे इन वैश्विक वित्त संस्थानों के चंगुल में फंसने की शुरुआत होती है। इसी पैसे के लेनदेन से एक ओर चीज़ पनपती है वह है भ्रष्टाचार। योजनाओं के लिए मिले इन अकूत कर्ज़ों से भ्रष्टाचार के दरवाज़े खुल जाते हैं और बहुत बड़ी धन दौलत मंत्रियों के हिस्से में आता है और इस बेईमानी की धन दौलत को रखने के लिए ही स्विस बैंक की स्थापना की गई यानी बेईमानी की बड़ी रकम बिना हिसाब किताब स्विस बैंक में जमा होती है और कभी वापस किसी को नहीं मिलती क्योंकि कोई भी खुल कर बेईमानी पर क्लेम नहीं कर सकता। इस तरह काफी बड़ा पैसा वापस वहीं पहुंच जाता है जहां से वह आया है। ये है रेवड़ी कल्चर की असली जड़।

लोकलुभावन योजनाओं की शुरुआत के बाद फिर सरकार बनाने में मतदाताओं को लुभाने की परंपरा चल पड़ती है। राजनीतिक दल एक से बढ़कर एक योजनाओं की घोषणा कर वोट हासिल करते हैं, सरकारें बनाते हैं। सियासी पार्टियों की इन चालबाजियों का चस्का जनता को लग जाता है और जनता इंतजार करने लगती है कि जो भी ज्यादा मुफ्त योजनाओं का ऐलान करेगा हम उसे अपना वोट देंगे। एक बार जोर शौर से कही जाती है उन लोगों की ओर से कही जाती है जो इनकम टैक्स देते हैं कि उनके टैक्स के पैसे से इन योजनाओं को पूरा किया जाता है जबकि वह यह जानते ही नहीं कि उनका टैक्स इतना नहीं है जो यह काम हो सके, ये योजनाएं पूरी होती हैं संसाधनों को गिरवी रखकर ऋण लेने से। इस सब माया चक्र में एक बात और खास है कि इन देशों की सरकारें जनता पर तरह तरह के टैक्स भी इसलिए लगाती हैं की कर्ज देने वाले लोगों को दिखा सकें कि हम इस कर्ज को वापसी करने की भी हिम्मत रखते हैं। इस दिखावे के चक्कर में जनता पर अंधाधुंंध टैक्स थोप दिए जाते हैं और जनता टैक्स देने में ही अपनी जिंदगी खत्म कर देती है।

इन बातों को भारत के संदर्भ में देखें तो यहां भी हर आदमी अच्छी तरह समझ सकता है कि लोकलुभावन वादों और नारों के पीछे भी यही ऋण माफिया जिम्मेदार हैं, इसके अलावा सरकारों द्वारा लगाए गए टैक्स भी इसका उदाहरण है कि दुनिया यह देख सके कि भारत लिए गए कर्जे को वापस करने की सलाहियत रखता है।

भारतीय जनता पार्टी की बात करें और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रेवड़ी कल्चर वाले बयान की चर्चा करें तो हम पाते हैं कि भारतीय जनता पार्टी खुद ऐसी ही लोकलुभावन योजनाओं के वादे करके सत्ता में आई थी और भारतीय जनता पार्टी ने न सिर्फ लोकलुभावन वादे किए थे बल्कि धर्म की चाशनी भी लोगों को चटाई थी, अब प्रधानमंत्री इस रेवड़ी कल्चर को खत्म करना चाहते हैं तो इसके पीछे वजह यह हो सकती है कि वह आने वाले समय में विपक्ष को किसी सूरत लोकलुभावन वादों या नारो से दूर रखना चाहते हैं जिससे के विपक्ष उन्हें कोई मजबूत टक्कर ना दे सके। जिस प्रकार आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल लगातार लोकलुभावन और मुफ्त योजनाएं जनता के बीच ला रहे हैं उससे भाजपा को ज्यादा घबराहट है क्योंकि भाजपा के पास भी लोकलुभावन नारों के अलावा कुछ नहीं है। इसी घबराहट को देखते हुए और खासतौर से गुजरात के चुनाव को सामने रखते हुए भाजपा ने यह पैंतरा खेला है कि दूसरे दलों को ऐसी लोकलुभावन योजनाओं से रोक दिया जाए। मुझे नहीं लगता कि सरकार या सुप्रीम कोर्ट लोकलुभावन इन योजनाओं के वादों को खत्म करा सकते हैं क्योंकि दुनिया के वित्तीय संस्थान पसंद ही नहीं करते कि कोई गरीब देश उन से ऋण लेने में कतराए।

पड़ोसी देश पाकिस्तान का उदाहरण देख सकते हैं कि कैसे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने कई बार ऋण माफियाओं को यह कहकर बेनकाब किया था कि वह ऋण देकर गरीब देशों को अपने चंगुल में फंसाते हैं और वह पाकिस्तान को ऋण माफियाओं के चंगुल से निकालना चाहते हैं फिर जिसका परिणाम यह निकला कि उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया गया और वहां यह बात सामने आई कि उन्हें हटाने की पीछे कोई विदेशी साजिश है। यह विदेशी साजिश इसलिए हुई है कि उन्होंने पाकिस्तान को इन ऋण माफियाओं से दूर रखने की कोशिशें शुरू कर दी थी। अब क्या भारतीय सरकार इतनी हिम्मत जुटा सकती है कि वह लोग लुभावना नारों और वादों पर प्रतिबंध लगाकर दुनिया के ऋण माफियाओं से देश को, देश के संसाधनों को बचा सके। अब देखना यह होगा कि सरकार और हमारा न्यायालय इस मामले में कितना साहस दिखा पाता है।

माजिद अली खां

माजिद अली खां

माजिद अली खां, पिछले 15 साल से पत्रकारिता कर रहे हैं तथा राजनीतिक मुद्दों पर पकड़ रखते हैं. 'राजनीतिक चौपाल' में माजिद अली खां द्वारा विभिन्न मुद्दों पर राजनीतिक विश्लेषण पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किए जाते हैं. वर्तमान में एसोसिएट एडिटर का कर्तव्य निभा रहे हैं.

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