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ये हॉकी वॉकी मेडल सेडल सब ऐसे ही है, बड़ा खेल अब भी राष्ट्रवाद ही है, कल भी था, आज भी है

ये हॉकी वॉकी मेडल सेडल सब ऐसे ही है, बड़ा खेल अब भी राष्ट्रवाद ही है, कल भी था, आज भी है
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आज चौराहे पर एक रेगुलर बोला- बधाई हो भाई साहब! मैंने कहा- आपको भी। उसके बाद उसने बधाई का सबब बताया। मैं हाँ हाँ करता रहा। फिर उसने अंत में कहा- पांच अगस्त तो दोबारा इतिहास बन गया। मैंने कहा- जी! फिर वो चला गया। ऐसी ही बातें और लोगों से भी सुनने को मिलीं- चौथे क्लास से लेकर पहले क्लास तक। बाद में पता चला कि ट्विटर भी इसी मोड में है।

मैं इसीलिए खेलों पर एक अक्षर नहीं लिखता हूँ। ये हॉकी वॉकी मेडल सेडल सब ऐसे ही है। बड़ा खेल अब भी राष्ट्रवाद ही है। कल भी था। आज भी है। हर खेल में राष्ट्र की एक जीत राष्ट्रवाद के खेल में एक और गोल है। गोल किस पर दागा गया ये अपनी-अपनी आस्था का मामला है। आप खेल को खेल मानते रहिए अपनी सदिच्छा में, वे नहीं मानते जो देश चलाते हैं। वे हमेशा लार्जर केटेगरी खोजते हैं। खेल ऐसी ही केटेगरी है। ऊपर से देखने में बंदगोभी। एकदम चिकना, हरा, विचारहीन। भीतर परजीवी कीड़ों से भरा, जो दिमाग में घुस जाएं तो जान ले लें।

जवानी में हम लोग कुश्ती खेलते थे। पासी, मुसहर, अहीर, ठाकुर और हम लाला। अखाड़ा एक। जोड़ी अनेक। मिल के दूध घी पीते थे। सुअरी के दूध में गोदा सान के खाते थे। साथ दौड़ते थे फौज में भर्ती होने के लिए। पानी बरसे तो फुटबॉल लेकर मैदान में हल जाते थे। साथ मार करते थे। कभी मेडल के लिए कोई नहीं खेला। ऐसे ही कभी मेडल के लिए पढ़ाई नहीं किए। मेडल के लिए नौकरी नहीं किए। मेडल मिलने वाले की गाड़ी के पेडल पर पैर किसी और का होता है, ये बात बहुत पहले समझ आ गई थी। जबरी का हल्ला मचाये हुए हैं...!

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