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कोरोना के दौर ने समझा दिया कि हमारे सच्चे नायक कौन हैं, जिनके हाथ में शक्ति थी, उन्होंने तो बस वोट मांगे

हमने दो दशकों की प्रगति 15 महीनों में खो दी। लेकिन अब इसका रोना रोने से कोई फायदा नहीं। यह शायद शासन के तरीके पर पुनर्विचार करने का वक्त है।

कोरोना के दौर ने समझा दिया कि हमारे सच्चे नायक कौन हैं, जिनके हाथ में शक्ति थी, उन्होंने तो बस वोट मांगे
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प्रीतीश नंदी, वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता

अब तक यह स्थापित हो चुका है कि महामारी को संभालने में केंद्र सरकार बुरी तरह असफल रही है। यहां तक कि दब्बू मीडिया भी ऐसा कहने लगी है। हालांकि थोड़ी अनिच्छा से और यह बताने की कोशिश करते हुए कि हमें बदनाम करने की एक वैश्विक साजिश हो रही है। यह सत्य नहीं है। कोई भारत को नीचा दिखाना नहीं चाहता। वैश्विक मीडिया ने सिर्फ हमारी अकुशलता बताई है और इससे भी बुरा कि हम कैसे मौत के वास्तविक आंकड़े छिपा रहे हैं। पत्रकारिता का सार्वभौमिक कानून है: उन्हें सामने लाएं, जो कुछ छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। यह कुप्रबंधन की बड़ी कहानी है।

सरकार ने पहले इसे मानने से इनकार कर दिया। फिर कहा कि हमारी बड़ी आबादी के कारण मुश्किल बढ़ी। साथ ही विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्यों ने केंद्र की योजनाओं को सही ढंग से लागू किया। उनका दावा है कि सभी असफलताएं अंतिम स्तर पर हुईं। बिजनेस समुदाय अभी भी पेशोपेश में है। कई कंपनियों में शानदार नतीजे दिए। स्टॉक मार्केट ऐसे व्यवहार कर रहा है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। लॉकडाउन ने छोटे बिजनेस को बर्बाद कर दिया है। करीब 12.2 करोड़ लोगों की नौकरियां चली गईं।

अर्थव्यवस्था 7.3% से संकुचित हो गई। फिर भी शीर्ष 100 अरबपतियों की संपत्ति 35% बढ़कर 12,97,822 करोड़ रुपए हो गई। इतनी राशि से 13.8 करोड़ गरीब भारतीयों में प्रत्येक को 94,045 रुपए मिल सकते हैं। पहली लहर में 23 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीचे आ गए। दूसरी और घातक रही है। हमने दो दशकों की प्रगति 15 महीनों में खो दी। लेकिन अब इसका रोना रोने से कोई फायदा नहीं। यह शायद शासन के तरीके पर पुनर्विचार करने का वक्त है।

इसका जवाब कड़े आदेशों और मर्दानगी दिखाने में नहीं है। प्रधानमंत्री समझदार व्यक्ति हैं। उन्हें महसूस करना चाहिए कि उनके रक्षक उनके आलोचकों की तुलना में सरकार की विश्वसनीयता को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। अगले आम चुनाव तीन साल दूर हैं। यह सही रास्ते पर आने, नफरत कम करने, मतभेद सुनने के लिए पर्याप्त समय है। नाखुश किसान, बेचैन छात्र, जेल में बंद सामाजिक कार्यकर्ता, आलोचक सरकार के दुश्मन नहीं हैं।

सबसे शानदार बात यह है कि इस त्रासदी के बीच भी हमें अपने नायक मिले हैं। बिना थके, जोखिम में काम कर रहे हमारे डॉक्टर, हेल्थ वर्कर हमारे नायक हैं। इनमें हजारों की जान गई। केंद्र ने कोर्ट में कहा कि मृतक स्वास्थ्य कर्मियों का डेटाबेस नहीं बनाया। जिन्होंने हमारे लिए अपनी जान दे दी, क्या हम उनका नाम तक नहीं जा सकते? और नागरिक बचाव के लिए आगे आए हैं। मशहूर शेफ विकास खन्ना मे मैनहेटन (अमेरिका) में बैठकर 4 करोड़ लोगों का पेट भरा।

अभिनेता सोनू सूद ने हजारों प्रवासी मजदूरों को घर पहुंचाया। लेकिन सेलिब्रिटीज की नहीं, आम लोगों की गिनती होती है। इनमें अपनी थोड़ी बचत को भी जरूरतमंद को देने वाले, एम्बुलेंस के मना करने पर अस्पताल पहुंचाने वाले पड़ोसी, अनजानों का अंतिम संस्कार करने वाले शामिल हैं। हमारा एनजीओ भी जोखिम में फंसे कैदियों, बेघरों और छोड़ दिए गए बुजुर्गों की देखभाल में अथक रूप से लगा है। जब व्यवस्था असफल होती है, ऐसे लोग आगे आते हैं।

यह सब खत्म होने के बाद, लोग उन्हें याद रखेंगे। जब सासंदों और विधायकों ने कोविड खत्म करने के लिए गोमूत्र पीने की अपील की, जब योग गुरु बिजनेसमैन ने एलोपैथी के डॉक्टरों को बदनाम किया, तब आम भारतीय ही थे जिन्होंने उस भारत का झंडा बुलंद रखा, जिसे हम बनाना चाहते हैं। उन्होंने नहीं, जिनके हाथ में चीजें बदलने की शक्ति थी। इसकी जगह उन्होंने वोट मांगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Shiv Kumar Mishra
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