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पिछड़ों के सामने सामाजिक समता के लिए संविधान द्वारा दी गई आरक्षण व्यवस्था गंभीर चुनौती

Shiv Kumar Mishra
7 Dec 2022 2:11 PM GMT
पिछड़ों के सामने सामाजिक समता के लिए संविधान द्वारा दी गई आरक्षण व्यवस्था गंभीर चुनौती
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1999-2000 मे करिया मुंडा की अध्यक्षता में गठित तीस सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति ने उच्च और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में आरक्षण की व्यवस्था में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की सर्वसम्मत अनुशंसा की थी.

देश का उच्च और उच्चत्तम न्यायालय जाति आधारित हमारे समाज को प्रतिबिम्बित नहीं करता है. प्रारंभ से न्यायपालिका में सवर्ण समाज का वर्चस्व रहा है. लेकिन अतीत में कई संवेदनशील मामलों में न्यापालिका ने प्रायः तटस्थ और न्यायप्रिय दृष्टिकोण का परिचय दिया है. इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण 1992 में उच्चतम न्यायालय के नौ सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा इंदिरा साहनी मामले में मंडल कमीशन द्वारा अनुशंसित सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के आरक्षण को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने का है. उसी पीठ ने नरसिंह राव सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग के लिए दस प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था को असंवैधानिक घोषित कर अमान्य कर दिया था. लेकिन वह दौर था जब देश में सामाजिक समता के लिए पिछड़े वर्गों ने आंदोलनों के ज़रिए दबाव बनाया था.

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में पिछड़े वर्गों की एकता कमजोर हुई है. दूसरी ओर सत्ता संरक्षित सवर्ण मानसिकता का दबाव हर क्षेत्र में बढ़ा है. फलस्वरूप उच्च न्यायपालिका पर भी अपने सामाजिक परिवेश के पूर्वाग्रहों से उपर उठने का दबाव कमजोर हुआ है. बल्कि न्यायपालिका की टिप्पणियों और फ़ैसलों में सवर्ण मानसिकता प्रकट होने लगी है.

कल पटना हाईकोर्ट के एक जज द्वारा सरकार के एक पदाधिकारी से यह पूछना कि आप आरक्षण के द्वारा सरकारी सेवा में आये हैं ! इसी मानसिकता का द्योतक है. उक्त न्यायाधीश के कोर्ट में उपस्थित वकीलों द्वारा आरक्षण के द्वारा सरकारी सेवा में आये उक्त पदाधिकारी पर व्यंग्योक्ति न्यायपालिका के चरित्र को उजागर करता है.

अभी उच्चतम न्यायालय में सामान्य वर्ग के ग़रीबों को दस प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर पाँच सदस्यीय संविधान पीठ के दो माननीय जजों ने कहा कि पिछले पचहत्तर वर्षों से हमारे देश में आरक्षण की व्यवस्था है. अब इस पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. आरक्षण के औचित्य पर उच्चतम न्यायालय से निकली आवाज़ और पटना हाईकोर्ट के जज साहब द्वारा आरक्षण से सरकारी सेवा में आये पदाधिकारी का उपहास के लहजे में पूछा गया सवाल एक ही तरह की मानसिकता की उपज है.

आज पिछड़ों के सामने एक गंभीर चुनौती है. सामाजिक समता के लिए संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण व्यवस्था के सामने गंभीर चुनौती दिखाई दे रही है. हमारे यहाँ उच्च न्यायपालिका का चरित्र समावेशी नहीं है. सदियों से जातियों में बँटे हमारे समाज में तटस्थता अपवाद है. इससे बचाव के लिए ही 1999-2000 में करिया मुंडा की अध्यक्षता में गठित संसद की तीस सदस्यीय संयुक्त समिति ने उच्च और उच्चतम न्यायालय में जजों की नियुक्ति में आरक्षण व्यवस्था लागू करने की सर्वसम्मत अनुशंसा की है. पिछड़े, दलित और समतामूलक समाज व्यवस्था में यक़ीन रखने वाले प्रगतिशील तबकों को करिया मुंडा समिति की अनुशंसा को लागू करने के लिए मज़बूत आवाज़ उठाने की ज़रूरत है.

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