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बात पुरानी है, एक कहानी है...

Shiv Kumar Mishra
22 Oct 2020 2:18 PM IST
बात पुरानी है,  एक कहानी है...
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मनीष सिंह

दूर गगन के पार एक राज्य हुआ करता था,नाम था बंगाल। वहां सिराज का राज था। सिराज के बाप दादे मुगलों के नौकर हुआ करते थे, लेकिन मुगलों के पराभव के दौर में अपनी सल्तनत जमा ली।

जब सिराज गद्दी पर बैठा, जवान था, जरा परेशान था। परेशानी का सबब वो कम्पनी थी, जिसे उसके बड़ो ने, बड़ा होने का मौका दे दिया था। अब वो और बड़ी होना चाहती थी। इतनी बड़ी की राज्य से बड़ी हो जाये।

सिराज ने तलवार उठाई और कम्पनी के मुख्यालय में कत्लेआम मचा दिया। दस बाई दस के कमरे में कम्पनी के डेढ़ सौ नौकर बन्द कर दिए, सुबह तक सब दम घुटने से मर गए।

अब कम्पनी ने बदले की ठानी, राज के गद्दार खोजे। गद्दार पार्टी और कंपनी ने मिलकर सिराज पर हमला किया। नवाब सिराजुद्दौला मारा गया, गद्दारो के अच्छे दिन आ गए। उन्हें गद्दी दे दी गयी।

अब गद्दी कम्पनी कृपा से मिली थी, तो गद्दीनशीन भी कम्पनी को सरेंडर हुए। आप तो बस यूं समझिये नए वाले नवाब का नाम सरेंडरउद्दीन था। पर जाहिर है, अपना सरेंडर भाई सिर्फ नाम का नवाब था।

-तो कम्पनी ने कहा, भई सरेंडर.. दीवानी हमारी, फौजदारी तुम्हारी। याने कानून व्यवस्था, पुलिस, विदेशी हमला और बाकी यूजलेस काम तुम्हारे। हम टैक्स और व्यापार देख लेंगे। और हां, न्याय व्यवस्था भी हमारे ही अंडर में होगी। सरेंडर चिंतित हुए- पूछा, हजूर.. हमरा खर्चा कैसे चलेगा। कम्पनी ने कहा- वो हम देंगे।

सरेंडर उद्दीन निश्चिन्त हुए। और बंगाल में दोहरी शासन व्यवस्था नाम का अनूठा प्रयोग हुआ। कम्पनी ने रियाया से टैक्स उगाहना शुरू किया। जैसे नवाब सरेंडर ने, उन्हें राज्य का ठेका दे दिया था, उन्होंने स्थानीय लोगो को रोजगार और ठेका दे दिया। अब ठेके का तीन सूत्री कार्यक्रम चला- (1) वसूलो, (2) और वसूलो (3) और भी ज्यादा वसूलो।

बंगाल देश का सिरमौर था। यू समझिये की उसका आकार बिहार, अवध, बांग्लादेश और उड़ीसा के बराबर साइज का था। मेहनतकश लोग, उपजाऊ जमीन, खेती समृद्ध, कला, शिल्प व्यापार उत्तम। यहां कपास, पटसन, रेशम का कपड़ा, दीगर सामान पूरी दुनिया को जाता। लेकिन कम्पनी का अपना भी व्यापार था। अपने मुनाफे और कम्पटीशन खत्म करने के लिए, उसने इन उद्योगों को चौपट करना शुरू किया।

करघे जलवा दिए, कपास लूट लिया, रेशम उठवा लिया, दस्तकारों के अंगूठे काट लिए।न्याय व्यवस्था उनके अंडर थी। राजा का कम्पनी पर बस न था। लूट में उसका भी हिस्सा होता। लोगो की कहीं सुनवाई नहीं। शिल्पियों, आढ़तियों, व्यापारियों ने धंधे छोड़ दिये। दूसरे राज्यों में चले गए। दस साल में बंगाल वो बर्बाद हुआ कि तीन सौ साल में न उबर स्का।

अब बंगाल बरबाद हो गया, जनता में फटेहाली नाचने लगी, तो राज्य का टैक्स कलेक्शन भी गिरने लगा। तब किसानों पर नजरें इनायत हुई। लगान दिन पर दिन बढ़ने लगा।

कम्पनी वसूली के ठेके की बोली लगवाती। ऊंचा बोलिदार, बोली की रकम कम्पनी को अदा करता, और किसानों से मनमाना वसूल करता। पर कम्पनी में बोली हर साल ऊंची होती जाती, ठेके ऊंचे उठते, तो किसानों का बोझ भी बढ़ जाता।

ज्यादातर अनाज की खरीद कम्पनी ही करती, मगर अपनी शर्तों पर। तो कीमत पूरी न मिलती, लगान कोड़े मारकर वसूला जाता। जमीने छीन ली जाती। अब लोगो ने किसानी छोड़ दी। चोर डाकू बन गए।

ठेकेदारों और कम्पनी के अफसरों को लूटने लगे। कानून व्यवस्था बिगड़ गयी। अब कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी, याने फौजदारी तो सरेंडरउद्दीन की जिम्मेदारी थी। जाहिर है, वह अपनी जिम्मेदारियों में फेल हो गया। ऐसे में उसे गद्दी पर बिठाकर लूट का हिस्सा देना जायज नही था।

तब कम्पनी ने सरेंडरउद्दीन को गद्दी से उतार फेंका। सत्ता सीधे सीधे अपने हाथ मे ले ली। कम्पनी राज का उदय हुआ।

बात पुरानी है। महज एक कहानी है ..

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