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ज़माना मीर की कब्र को नही बचा सका मगर "निशान ए मीर" ज़रूर बना गया

- हाफीज किदवई
मत सहल हमें जानो,फिरता है फलक बरसों ।
तब खाक़ के पर्दे से इंसान निकलते हैं ।।
आज मीर तक़ी मीर का दुनिया ए फ़ानी से पर्दे के दिन था । तो लखनऊ में मीर की तमाम यादों को एक चौखट में बंद करके तामीर हुए "निशान ए मीर" तक जा पहुँचे । जाते तो हर साल है या जब कभी भी उधर से गुजरें तो सलाम दुआ तो होती ही है ।
आजके रोज़ यहाँ न जाऐं,तो यह पत्थर आइंदा से सलाम का जवाब भी देना बंद कर दें । मीर के जिस्म ने पर्दा किया है मगर मीर खुद हर तरफ मौजूद हैं ।
सिटी स्टेशन लखनऊ के एक तिकोने चौराहे पर बरगद के पेड़ के नीचे उन्हें टांग दिया गया है । ज़माना मीर की कब्र को नही बचा सका मगर "निशान ए मीर" ज़रूर बना गया ताकि आने वाली नस्लें जाने की यही कहीं मीर के पाँव पड़ते थे,यहीं कहीं मीर ने वह अल्फ़ाज़ बुलंद किये,जो रहती दुनिया तक मीर के नाम की गूंज ज़माने को नस्ल दर नस्ल बतलाते रहेंगे ।
यहाँ पहुँचकर दिल को सुकून मिलता है,हमें बिखरी हुई बदइंतज़ामी नही दिखती है, हम बस यह देखते रहते हैं कि आज भी यह निशान बाकी है, बस यही तसल्ली बहुत है, कभी हाथों में ताक़त आई तो मीर के निशान भी दर्ज किए जाएँगे....




