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उनकी राजनीति, हमारे दिलासे: संदर्भ पांच गिरफ्तारियां, जो हो रहा है वह केवल ट्रेलर है, पिक्चर अभी बाकी है!
हाल में हुई पांच गिरफ्तारियों पर अदालत की ओर से अगले गुरुवार तक लगी अस्थायी रोक को लेकर दो दिनों से एक आम राय यह सुनने में आ रही है कि सरकार के लिए यह मामला बैकफायर कर गया है क्योंकि सरकार ने इस अप्रत्याशित घटनाक्रम की कल्पना तक नहीं की होगी। इस सुकूनदेह निष्कर्ष में एक खिलंदड़ेपन का एलेमेंट भी जुड़ गया है। लोग थोकभाव में खुद को अरबन नक्सल कह रहे हैं। कल जंतर-मंतर पर प्रोटेस्ट में 'मैं भी अरबन नक्सल' लिखी हुई टीशर्ट 200 रुपये में बिक रही थीं। ज्यादातर लोगों का मानना है कि सरकार ने जिस मसले को इतनी गंभीरता से उठाया था, लोगों ने उसे इतना अतिरंजित कर डाला कि अरबन नक्सल का मज़ाक बनकर रह गया। इस तमाम बतकही में एक तथ्य अब भी अटल है कि अगले गुरुवार तक पांच व्यक्तियों की जिंदगी और किस्मत अटकी पड़ी है और उसके बाद चाहे जो हो, जांच की सुई दूसरों की ओर घूमने के लिए फ्री है।
आसन्न संकट से निपटने के लिए उसे हवा में उड़ा देना ज्यादा से ज्यादा एक तरकीब हो सकती है, राजनीति नहीं। न्यायालय के जिस आदेश को जीत समझा जा रहा है, वह दरअसल सत्ता के लिए एक सुविधा है। अगले गुरुवार की सुनवाई तक क्या होगा, इसे समझने के लिए टीवी के समाचार पिछले दो दिन और अगले पांच दिन ध्यान से देखिए। कैसे कुछ कथित चिटि्ठयों के सहारे एक खास किस्म का जनमत तैयार किया जा रहा है और अचानक हुई इन गिरफ्तारियों का जस्टिफिकेशन स्थापित किया जा रहा है। बार-बार एक ही बात कही जा रही है। एक ही चेहरे दिखाए जा रहे हैं। जिन लोगों पर तलवार लटकी है, बेशक उन्हें आम मतदाता नहीं जानता। वे उसी दिन भीतर चले जाते तो उन्हें गिरफ्तार करने की औचक कवायद से सत्ता का कोई हित नहीं सधता। सत्ता का हित इससे सधता है कि उन्हें नज़रबंदी में पोसा जाए और लगातार उसकी खबरें चलाई जाएं।
कल कोई हंसते हुए कह रहा था कि साठ साल में जितने लोग नक्सलवाद को नहीं जान पाए उतने दो दिन में ही जान गए। मामला वास्तव में सूचना का है या उस परिप्रेक्ष्य व संदर्भ का जिसमें लोग एक नए शब्द को जान रहे हैं? और उन्हें जनवाने के लिए बाकायदे एक हफ्ते का 'न्यायिक' वक्त मिला हुआ है! ये दिलचस्प है! यहां 'नक्सल' नाम के एक शब्द को उसके अतीत, उसकी विचारधारा, उसके संदर्भों व उसकी अर्थछवियों से काटकर बिल्कुल तात्कालिक संदर्भ में और ठीक उलटी वैचारिकी में लपेट कर लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। यहां सूचना, विचार के खोल में पैकेज कर के पहुंचायी जा रही है। विचार सत्ता का है, संज्ञा-सर्वनाम-विशेषण सत्ता-विरोधियों के! सरकार जानती थी कि इतने बड़े-बड़े विद्वानों को पकड़ने पर प्रतिक्रिया भी भीषण होगी। यह प्रतिक्रिया ही सत्ता का खाद-पानी है। भयंकर डायवर्जन है। प्रताप भानु मेहता तो इसे 'इनवर्जन' कह रहे हैं मने अनिवार्य विमर्श का बिलकुल उलट!
यह सरकार के लिए बैकफायर नहीं है, ऑक्सीजन है। सब कुछ उसकी योजना के अनुरूप हो रहा है। न्याय से लेकर अन्याय तक। जो न्याय जैसा दिखता है, वह दरअसल अन्याय की व्यापक वैधता कायम करने के काम आने वाला है। सत्ता आगे और बड़े व मशहूर लोगों को पकड़ेगी, प्रतिक्रिया और तेज होगी। मैसेज और फैलेगा। ध्रुवीकरण और व्यापक होगा। सवाल उठता है कि ऐसे दमन का क्या किया जाए जिसकी प्रतिक्रिया दमनकारी को ही ऑक्सीजन पहुंचाती है और असल मुद्दों से ध्यान भटकाती है? मेरा मानना है कि राजनीति के लिहाज से ये पांचों गिरफ्तारियां सत्ता का मास्टरस्ट्रोक हैं। साथ में मुझे यह भी लगता है कि इस राजनीति का कोई तोड़ सोचना तो दूर की बात रही, अभी सत्ताविरोधी लोग इस राजनीति का 'र' भी नहीं पकड़ पाए हैं।
एक वे हैं जो विशुद्ध राजनीति कर रहे हैं और अपनी राजनीति बाकायदे जनता को समझा भी रहे हैं। एक हम हैं कि उन्हीं के उठाए कदमों को उनका सेल्फ-गोल मानते हुए खुद को जबरन दिलासा दिए जा रहे हैं। मैं फिर से कह रहा हूं- जो हो रहा है वह केवल ट्रेलर है, पिक्चर अभी बाकी है!