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- कृष्ण बलदेव वैद की आज...
कृष्णबलदेववैदविषयक
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कृष्ण बलदेव वैद की आज जन्मतिथि है। वह 1927 की 27 जुलाई थी, जब उन्होंने अविभाजित भारत में जन्म लिया—जन्म-स्थान : डिंगा (पंजाब, पाकिस्तान)। वह उन लेखकों में हैं, जिन्होंने भारत-पाक विभाजन की यातना और याद का अपने जीवन और लेखन दोनों में ही सीधा साक्षात्कार किया। गए बरस की 6 फ़रवरी को उनका न्यूयॉर्क (अमेरिका) में देहांत हो गया। वह 92 वर्ष के थे और लंबे समय से अस्वस्थ थे। भाषा और कथ्य के इस उस्ताद ने अपनी डायरी में तन्हाई, ख़ामोशी, उदासीनता, अवज्ञा और अवहेलना को अपनी ज़िंदगी का हासिल क़रार दिया है। यहाँ पेश है, इन पंक्तियों के लेखक को उनके मार्फ़त कभी न लिखा गया एक ख़त :
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प्रिय अविनाश,
मैंने तुम्हें कभी कोई ख़त नहीं लिखा। दरअस्ल, तुम्हारी उम्र के नौजवानों से मेरा संवाद और संबंध बहुत मुद्दत पहले भारत छोड़ने के साथ ही कुछ छूट-टूट गया। हाँ, इधर बीच कुछ 'कलावादी' कहाने वाले ज़रूर मुझसे संपर्क साधे रहे। हिंदुस्तान में मेरे इंतिक़ाल की ख़बर शायद इनके ज़रिए ही मंज़र-ए-आम होगी।
लब्बोलुआब यह कि हिंदी की नई नस्ल या कहें नस्लें मेरे बारे में कम जानती हैं या कहें नहीं जानती हैं या कहें जानना ही नहीं चाहती हैं। यह कोई मायूब बात नहीं है। किसी को जानना या न जानना किसी का भी बुनियादी हक़ है।
मैं कभी ऐसा लेखक नहीं रहा जिसे तुम सीने से लगाओ। अगर तुम हिंदीवाले हो तो तुम्हें सीने से प्रेमचंद, रेणु और मुक्तिबोध को ही लगाना चाहिए; मुझे नहीं।
मैं उस कथा-त्रिकोण का आख़िरी कोण था, जिसके शेष दो कोण कृष्णा (सोबती) और निर्मल (वर्मा) थे। मैं त्रिकोण कह रहा हूँ, त्रयी नहीं, ध्यान देना क्योंकि हिंदी में त्रयियाँ तुम्हें आज भी आसानी से दिख जाएँगी, लेकिन त्रिकोण नहीं। त्रिकोण से मेरी मुराद एक बिल्कुल महीन व्यक्ति को घेरे दो परस्पर तिरछे व्यक्तित्वों से है। त्रयी में ये कहाँ? त्रयी बेसिकली औसत और यारानों की मारी शख़्सियतों की मंडली है; जिसमें फ़ायदे की उम्मीद में एक व्यक्ति दूसरे को और दूसरा तीसरे को फ़ायदा पहुँचाता रहता है, लेकिन चूँकि ये यार कम और मक्कार अधिक होते हैं; इसलिए बहुत जल्द इस तरह की त्रयियाँ मिस्मार हो जाती हैं। तुमने मेरे हमअस्र राजेंद्र (यादव), (मोहन) राकेश और कमलेश्वर की त्रयी के बारे में तो सुना ही होगा; जिन्होंने ठीक से कभी कोई नई कहानी नहीं लिखी, लेकिन ख़ुद को नई कहानी का पुरोहित पुकारने लगे। बाद में नामवर (सिंह) जी ने इन्हें ठीक या कहें ग़लत किया, जब उन्होंने निर्मल की 'परिंदे' को 'नई कहानी की पहली कृति' लिख मारा। नामवर भुवनेश्वर की 'भेड़िये' को भूल गए और मुझे भी।
ख़ैर, जाने दो मैं कभी ऐसा लेखक नहीं रहा जिसे तुम सीने से लगाओ। अगर तुम हिंदीवाले हो तो तुम्हें सीने से प्रेमचंद, रेणु और मुक्तिबोध को ही लगाना चाहिए; मुझे नहीं।
लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आता कि तुम्हारी नई पीढ़ी के कुछ बेअक़्ल बुढ़ापे तक निर्मल और कृष्णा को भी सीने से लगाए क्यों घूमते हैं। उन्होंने ऐसा क्या कर दिया, जो मैं न कर सका। हाँ, साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ वग़ैरह न हासिल कर सका। कभी हिंदी की चुग़द चालों के नज़दीक नहीं रहा। मंच का मवाली बनने से बचा। किसी मंडली में शामिल नहीं रहा। किसी को कोई फ़ायदा पहुँचा सकूँ, इस सूरत में भी कभी नहीं रहा। मैं तो बाहर रहा। हिंदुस्तान से ही नहीं, हर उस जगह से जहाँ कुछेक कोशिशों के बाद लोग मुझे भी सीने से लगाने की कोशिश करते। मुझे तो कोई पढ़ भी ले, तब भी उसे उन मायनों में कोई फ़ायदा नहीं मिलता; जिन मायनों में कथित हिंदी साहित्यकार को पढ़कर मिलता है—गहरी वैचारिक और क्रांतिकारी दृष्टि, अप्रतिहत प्रतिबद्धता, जनवादी उजास, त्रासद लोक-जीवन, आंचलिक वैभव, अमर प्रेम-कथासुख... यह सब अपने कथित पाठक को सप्लाई करना कभी मेरा मक़सद नहीं था।
मेरी कथा-कृतियों से गुज़रने के लिए तो बहुत तैयारी और धीरज चाहिए, लेकिन कभी मौक़ा लगे तो मेरी डायरियों से गुज़रना... वहाँ तुम्हें मेरे मक़सद का अंदाज़ा होगा। शायद मैं लेखकों का लेखक हूँ। प्रयोगधर्मिता, स्मृति, अकेलापन, यौन-जीवन, अवसाद, असफलता, आयु-बोध और मृत्यु-बोध मेरे साहित्य के मूल पक्ष हैं।
काम और उसे अपने मुताबिक़ न कर पाने का अफ़सोस मुझ पर ताउम्र अवहेलना की तरह ही तारी रहा। यह अजीबतर है कि हिंदी में काम भी काम नहीं आता है। सब वक़्त सब तरफ़ इतने विपन्न टकराते रहते हैं, जिन्होंने कोई काम नहीं किया; लेकिन कितनों के काम के बने हुए हैं—मरने के बाद भी। एक मैं हूँ कि जीते जी ही... जाने दो, आगे मुँह मत खुलवाओ...
मैं अपने नज़दीकतर व्यक्तियों की सीमा का रूपक हूँ। वे सब जो चाहकर भी कर-कह नहीं पाए, मैंने कर-कह दिखाया। वे इसके लिए मुझसे मुहब्बत भी करते रहे। लेकिन मैं एक लघु-समूह-प्रेम का शिकार होकर रह गया, क्योंकि इस प्रकार के समूह सबसे पहले उसकी ही बलि देते हैं; जिसे वे सबसे ज़्यादा चाहते हैं। कुल मिलाकर देखो तो मेरी समग्र साहित्यिक तैयारी एक आत्मघातक प्रक्रिया है। हेमिंग्वे ने कहा था कि लिख न पाने के बाद जीना बेकार है। मैं मानता हूँ कि अपनी तमाम आत्मघातक कोशिशों के बावजूद मैं बेकार नहीं जिया हूँ, बेवक़ार भले ही जिया हूँ।
मेरा लेखन बहुतों को ऊब और उबकाई से भरा हुआ लगता है। कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या मैं महज़ एक वमनोत्तेजक लेखक हूँ। मेरी डायरियों में ही, मेरे इस सवाल का जवाब है। वहाँ तुम पाओगे कि मैंने कई ख़्वाब लिखे हुए हैं। दरअस्ल, मैं जब भी सोने को तत्पर हुआ, नींद मेरे क़रीब वैसे ही आई; जैसे वह किसी नाउम्मीदी और नाइंसाफ़ी से घिरे शख़्स के पास आती है। इसलिए मेरे ख़्वाब मुझे अधनींद ही जगा देते थे और मैं उन्हें लिखने लगता था :
"अब कुछ ऐसा लिखना चाहिए जिसके लिए अगर सूली पर भी चढ़ना पड़े तो झिझक न हो—ख़ौफ़नाक, गहरा, नरम।"
डरा हुआ, उथला और सख़्त लेखन मेरे लिए कभी कांक्षणीय नहीं रहा। मैंने काली सूचियों में दर्ज हो जाना क़बूल किया, लेकिन कभी वैसी प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष नहीं किया जो आपके काम से ज़्यादा आवाज़ करती है। मेरे बाद अगर तुम मुझे पढ़ना, तब इस तथ्य पर ज़रूर ग़ौर फ़रमाना कि मैं अलोकप्रिय होते हुए भी एक आलोकप्रिय लेखक हूँ—मेरे लेखन में जगह-जगह झलकते-छलकते अंधकार के बावस्फ़।
यह युगों से नई नस्ल का एक सनातन और राजनीतिक कार्यभार रहा आया है कि वह अपने पूर्ववर्तियों के साथ हुई नाइंसाफ़ी की जाँच करे। मौजूदा दौर के मुख्य विमर्शों को देखो, वे आख़िर हैं क्या अपने पूर्ववर्तियों के साथ हुई नाइंसाफ़ी की जाँच के सिवा।
मैं फ़िलहाल बस इतना चाहता हूँ कि बाआसानी और बासहूलत मेरा पाठ संभव हो, यह जानते हुए भी कि मैं कभी ऐसा लेखक नहीं रहा जिसे तुम सीने से लगाओ। अगर तुम हिंदीवाले हो तो तुम्हें सीने से प्रेमचंद, रेणु और मुक्तिबोध को ही लगाना चाहिए; मुझे नहीं। लेकिन मैं कोई ऐसा लेखक भी नहीं रहा, जिसे तुम अपनी शेल्फ़ में या सिरहाने भी रखना पसंद न करो।
तुम्हारा,
के. बी.