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राजनीति बनाम सदिच्छा: संदर्भ अरुंधति रॉय, क्या बदलेगा देश का निजाम?
कोई ढाई-तीन साल पहले की बात है जब दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक मित्र के किताब लोकार्पण के प्रोग्राम में संजय जोशी से भेंट हुई थी- वही संजय जोशी, प्रधान जी के शिकार, भाजपा के पूर्व महासचिव। चाय-पान के दौरान दरियागंज का वह लोकल पुस्तक प्रकाशक जोशी जी का काफी करीबी निकला। उसी ने मिलवाया। मैंने कोने में दो-तीन सवाल पूछने की कोशिश कि, तो जोशी बड़ी विनम्रता से बोले- हफ्ते भर बाद घर आइए, बैठते हैं, एक बड़ा धमाका होने वाला है। बड़ा धमाका? लोकसभा चुनाव से पहले? बहरहाल, वह मुलाकात हुई या नहीं, इससे ज्यादा यह बताना जरूरी है कि कहीं कोई धमाका नहीं हुआ, बड़ा चाहे छोटा। जोशी बिहार चुनाव के प्रचार में व्यस्त रहे, मूल बिहार का वह प्रकाशक उनके साथ टंगा रहा जाने किस आस में, मीडिया में अटकलें लगती रहीं कि संजय जोशी की भाजपा में बड़े पद पर वापसी हो रही है और नितिन गडकरी ऊल-जुलूल मोदी-विरोधी बयान देकर पत्रकारों को गलत ट्रैक पर डालते रहे।
2019 का चुनाव सम्पन्न हो गया। संजय जोशी दिल्ली में अब भी गडकरी के दिलवाए उसी आवास में रहते हैं। मिलने वालों का तांता अब भी लगा रहता है। उनकी लोकप्रियता का अपना ही एक दायरा है। गडकरी के नाम पर संघ की प्लान-बी वाली थ्योरी आज भी रह-रह कर सिर उठाती है। सुब्रमण्यम स्वामी ने इस लिहाज से कुछ भी नया नहीं कहा है, लेकिन गडकरी को ब्राह्मण, संघप्रिय, बढ़िया मैनेजर ठहराते हुए और राजमार्ग निर्माण का श्रेय देते हुए मोदी को रिप्लेस करने की मांग फिर से उठ गई है। संघ को जानने वाले जानते हैं कि कब कौन सा तीर तरकश से निकाल के संघ फेंकेगा। जो नहीं जानते, वे ऐसे हर तीर को लौक लेते हैं और गलत पटरी पकड़ लेते हैं। 2019 के चुनाव से ठीक पहले संघ के प्लान-बी यानि गडकरी-जोशी प्लान को तमाम ठीक-ठाक लोगों ने एंडोर्स कर लिया था, आज मोहभंग की स्थिति में वे फिर उधर ही बहक रहे हैं। स्वामी का काम बहकाना है, सो वे बहका रहे हैं।
इन सब से इतर आश्चर्य होता है उन पर जो प्रधानमंत्री के पद से नरेंद्र मोदी का इस्तीफा मांग रहे हैं और जाने किस उम्मीद में (दबे-छुपे, बिना नाम लिए) संघ से उन्हें रिप्लेस करने की दरख्वास्त कर रहे हैं। प्लान-बी के पैरोकारों और इस्तीफा मांगने वालों के बीच कोई फ़र्क नहीं है सिवाय इसके कि इस्तीफा मांगने वाले बस वैकल्पिक प्रत्याशी का नाम नहीं ले रहे। क्या फ़र्क पड़ जाता है उससे? मोदी की जगह कोई भी हो, तो क्या देश की हालत सुधर-सँवर जाएगी? क्या ये मामला केवल प्रबंधन का है या विचार और नीयत का? सोचिए, ये कितना शर्मनाक है कि देश का सर्वश्रेष्ठ बौद्धिक "अपने स्वाभिमान को ताक पर रख के हाथ जोड़ के याचना कर रहा है" प्रधानमंत्री से कि वो कुर्सी से हट जाएं, इस्तीफा दे दें! ऐसा कहते-लिखते हुए विवेक को तो कम से कम ताक पर नहीं रखना था न!
दिक्कत किससे है? व्यक्ति से? विचार से? विचार के वाहक संगठन और उसकी राजनीति से? जब मनुष्यता के सबसे कमजोर क्षण में मनुष्यता के विरोधी अपनी राजनीति कर रहे हों, तब मनुष्यता के प्रबलतम समर्थकों से क्या हम लिजलिजे भावनात्मक रेटरिक (rhetoric) की उम्मीद रखते हैं? सिर्फ इसलिए कि यह बात अरुंधति रॉय ने कह दी, हम उसे ले उड़ेंगे बिना दिमाग लगाए? क्या वाकई इतना बुरा दिन आ गया कि लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी हुई एक संवैधानिक सरकार के आधिकारिक मुखिया को हटाने के लिए हम एक असंवैधानिक संगठन से परोक्ष अपील करें और उम्मीद पालें कि "आरएसएस की सहमति से" भाजपा का कोई और व्यक्ति सरकार का नेतृत्व करे और संकट प्रबंधन समिति की कमान संभाले?
विरोधी संगठन और उसकी विचारधारा में मौजूद अंतर्विरोधों को तीखा करना और अपनी राजनीति के हक में इस्तेमाल करना एक स्वीकार्य और कारगर राजनीति है, लेकिन भावना के किसी क्षण में इसे ऐसे स्थूल रूप में जाहिर कर देना राजनीतिक दिवालियापन है। क्या आपने सुना है कि 2004 से 2014 के बीच तमाम भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के बावजूद मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद से हटाने की अपील संघ या उससे जुड़े लोगों ने कभी सोनिया गांधी से की रही हो? उन्होंने बस अपनी राजनीति की, आज भी कर रहे हैं। हम तब भी सदिच्छा के मारे थे, आज भी हैं।