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कौन-कौन कितने पानी में..

Desk Editor
18 Sep 2021 1:23 PM GMT
कौन-कौन कितने पानी में..
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विज्ञापनों और फ़िज़ूल की चमक-दमक से लोगों को लुभाने की कोशिशें ज़रूर की जा रही हैं। पर किसे नहीं पता कि कोरोना में असंख्य लोग इसलिए मरे क्योंकि उनको समुचित इलाज़ नहीं मिला।

-- शंभूनाथ शुक्ल (वरिष्ठ पत्रकार)

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए राजनैतिक दलों के अंदर भले ही बेचैनी हो लेकिन प्रदेश की जनता शांत है। उसे कोई हड़बड़ी नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह योगी आदित्य नाथ की सरकार से खुश है बल्कि असलियत यह है कि वह अब कंफ्यूज़्ड है। उसे समझ नहीं आ रहा कि वह किसकी तरफ़ झुके। मोटे तौर पर दो दल चुनावी मैदान को मार लेने के लिए व्यग्र हैं। एक तो सत्तारूढ़ भाजपा और दूसरी सपा। इनके नेता रणनीति बना रहे हैं, जातियों के भीतर की जातियाँ तलाश रहे हैं और गठजोड़ की संभावना पर माथापच्ची कर रहे हैं।

लेकिन जनता का मूड़ भाँपने की कोई कोशिश नहीं कर रहा। पिछले दिनों बुंदेलखंड और इटावा, औरय्या, फ़तेहपुर व बांदा, चित्रकूट तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ और सहारनपुर मंडलों का दौरा मैंने किया। लेकिन मुझे कहीं भी पब्लिक चुनाव के लिए आतुर नहीं दिखी। लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने अपने दफ़्तरों को रंगा-पोता है और नेताओं के चेहरे भी चमके हैं। सपा, बसपा के अतिरिक्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल की ख़ासी ताक़त है। इसलिए वह राकेश टिकैत के किसान आंदोलन को अपने फ़ेवर में करने को लालायित है। लेकिन इतने लम्बे किसान आंदोलन के बावजूद फ़िलहाल उत्तर प्रदेश के किसान रालोद के जयंत चौधरी को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिखे।

जनता की इस उदासीनता की वज़ह जानने की कोशिश मैंने की तो पता चला कि पिछले 15 साल के अनुभव ने उसे निराश किया है। वर्ष 2007, 2012 और 2017 में उसने जिसको भी जिताया दिल खोल कर जिताया किंतु हर राजनीतिक दल ने उसे निराश किया। किसी ने भी उसकी पीड़ा और आधारभूत ज़रूरतों को समझने की कोशिश नहीं की। बसपा, सपा और भाजपा तीनों क्रमशः अपने एजेंडे पर चलीं और चुनावी वायदों में से एक भी पूरा नहीं हुआ। बीजेपी राज में दो वर्ष तो कोरोना महामारी में निकल गए, जिससे उबरने में सरकार बुरी तरह फेल रही।

विज्ञापनों और फ़िज़ूल की चमक-दमक से लोगों को लुभाने की कोशिशें ज़रूर की जा रही हैं। पर किसे नहीं पता कि कोरोना में असंख्य लोग इसलिए मरे क्योंकि उनको समुचित इलाज़ नहीं मिला। गाँवों में तो लोग देखते-देखते काल-कवलित हो गए। मरने वालों की संख्या इतनी अधिक थी कि लोगों को अपने परिजनों की अंत्येष्टि तक की जगह नहीं मिली। श्मशान घाट फुल और नदी किनारे लकड़ियाँ कहीं मिलीं तो कहीं नहीं मिलीं इसलिए लोगों ने परिजनों के शव यूँ ही नदियों में बहा दिए। इसके अलावा हज़ारों-लाखों लोगों की नौकरियाँ गईं या उनके वेतन तिहाई कर दिए गए। नतीजा ईएमआई की मार से जूझते मिडिल क्लास ने बच्चों को स्कूल से निकाल लिया और अधिकांश तो अपने-अपने मूल स्थान को चले गए। ऐसी मारा-मारी तथा अव्यवस्था लोगों ने कभी नहीं झेली। सरकार के लोगों ने सिवाय खाना-पूर्ति के कुछ नहीं किया। इसके कारण मिडिल क्लास परेशान है और ग्रामीण आवारा पशुओं से ऊबे हुए हैं। किसान रात भर जाग कर खेतों की रखवाली करता है किंतु सरकार किसानों की परेशानी की अनदेखी कर रही है।

लोगों का कहना है, हम किस पर भरोसा करें? मायावती बहन जी के जमाने में सरकारी लूट बहुत थी। हर काम के पैसे! और अखिलेश के सपा राज में चोरी, छिनताई और लूट का ख़तरा था। इसके बाद थानों में रिपोर्ट नहीं लिखी जाती थी। पीड़ित जब थाने पहुँचता था तो पता था कि अपराधी थानेदार का बग़लगीर है। योगी राज में अपराधी एनकाउंटर के डर से भयभीत हैं तो पुलिस स्वयं अपराधी का रोल निभा रही है। पिछले दिनों महोबा के एक व्यापारी ने इसलिए आत्म हत्या कर ली क्योंकि एसपी महोदय उससे पैसा माँग कर रहे थे। ऐसी अनगिनत घटनाएँ सामने आई हैं, लेकिन लोग शिकायत करें तो किससे? किसी विधायक, सांसद या जन प्रतिनिधि की कोई औक़ात नहीं है। मुझे बांदा में एक भाजपा विधायक ने स्वयं कहा, कि एक थानेदार तक उनकी बात नहीं सुनता, एसपी, डीएम को तो मारिए गोली। जब उनकी नहीं सुनी जाती तो पब्लिक की कौन सुनेगा? विकास प्राधिकरण, नगर पालिकाएँ और नगर निगम आदि पब्लिक डीलिंग वाले सभी विभागों में लूट मची है। शुभ्र भगवा चोले वाले मुख्यमंत्री अपने धर्म की रक्षा में व्यस्त हैं और आम आदमी उन पब्लिक सर्वेंट्स के हवाले है, जो पैसा देकर पद पाते हैं और पैसा देकर अपने खून माफ़ करा लेते हैं।

ऐसे में जनता की उदासीनता समझ में आती है। सच बात तो यह है कि 1989 में प्रदेश से जब से कांग्रेस पार्टी गई तो कोई भी ऐसा दल नहीं उभरा जो सबको साथ लेकर चल सके। कम्यूनल कास्टिस्ट पॉलिटिक्स ने लोगों के अंदर से सोचने समझने की क्षमता समाप्त कर दी है। बहुसंख्यक हिंदुओं की हर जाति की अपनी पार्टी है। राजवंशी, राजभर, पासी, निषाद, कुर्मी, कोईरी, कोरी, काछी, धोबी, कश्यप, यादव-अहीर से भी जी न भरा तो जाति के भीतर की जाति। कुर्मी, यादव में तो एकाधिक जातियाँ हैं और हर जाति अपने को सही और सर्वोच्च प्रतीक मानती है। इसके बाद अनगिनत, ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया हैं। शुक्र है कि अभी तक मुसलमान और सिख समुदाय के बीच जातियों का बँटवारा नहीं हुआ लेकिन देर-सेबर होगा। क्योंकि अब ओवैसी उनके वोट बँटवाने आ पहुँचे हैं। राजनीति के इस कुचक्र में यूपी का वोटर उलझा है। इसी कारण वह किसी को कुछ नहीं बता रहा। उलटे वह शहरों से पहुँच रहे यू-ट्यूबर और मेनस्ट्रीम मीडिया के पत्रकारों से ही पूछ लेता है, आप किसे वोट दोगे? ऐसी स्थिति से शायद पहले कभी किसी पत्रकार को रू-ब-रू होना पड़ा होगा।

लगभग सभी राजनीतिक दल आजकल ब्राह्मण वोटों के लिए फ़िक्रमंद हैं क्योंकि यह अब लीड करने की बजाय एक वोट बैंक में तब्दील हो गया है। कांग्रेस की संभावना दूर-दूर तक क्षीण है। और जिस बीजेपी के राम मंदिर के शिगूफे में आकर यह पिछले तीन दशक से इस भगवा पार्टी का झंडा उठाये है, वह हर बार इसे गच्चा देती आई है। 1991 से बीजीपी को यूपी में सत्ता मिलनी शुरू हुई तो तीन बार ओबीसी कोटे से कल्याण सिंह, एक बार राम प्रकाश गुप्ता और दो बार राजपूत समुदाय को मौक़ा मिला। पहले राजनाथ और अब योगी आदित्य नाथ। इसके नेताओं के अंदर भी सत्ता की हूक उठती होगी इसलिए सपा, बसपा दोनों मुख्य विपक्षी दल ब्राह्मणों के वोट पाने के लिए प्रयासरत हैं। किंतु ब्राह्मण को योगी का भगवा चोला दीखता है और धर्म इस जाति की बड़ी कमजोरी है। योगी राज की अव्यवस्थाओं से वह भी लुट रहा है लेकिन धर्म रक्षा का दवा करने वाले इस समुदाय की पहली पसंद अभी तो योगी ही दिख रहे हैं। यूँ भी जाति के अंब्रेला से धर्म का अंब्रेला विशाल और व्यापक होता है।

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