

नवीन शाहदरा में रहने वाले 75 साल के बिजनेसमैन कुलदीप सिंह चंडोक ने यमुना में 1962 और फिऱ 1978 में आई बाढ़ को करीब से देखा था। वे अब फिर से राजधानी के बहुत से एरिया को पानी-पानी होते देख रहे हैं। जब 1962 में बाढ़ आई थी तब नवीन शाहदरा डूब गया था। बाढ़ प्रभावित लोग दाने-दाने को मोहताज थे। दरअसल 1962 की बाढ़ को दो वजहों से याद नहीं किया जाता। पहला, तब तक यमुनापार में शाहदरा और नवीन शाहदरा ही बड़ी कॉलोनियां थीं। कृष्णा नगर और गीता कॉलोनी बस रहीं थीं। हां, गांव तो थे ही। विवेक विहार और विकास मार्ग के आसपास बसी कॉलोनियां तो 1970 के बाद बनी और बसी। दूसरा,1962 में यमुनापार को शेष दिल्ली से सिर्फ पुराना लोहे का पुल ही जोड़ता था। इसलिए यमुना पार की तरफ बाकी दिल्ली वालों का आना-जाना कम ही होता था।
दरअसल 1978 की बाढ़ में पानी राजधानी की दर्जनों अमीरों और मजदूरों की बस्तियों में चला गया था। उसने दर्जनों गाँवों को जल मग्न कर दिया था। जिस मुखर्जी नगर में आजकल हर साल सैकड़ों नौजवान प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते और रहते हैं वहां पर पानी ने घरों को पूरी तरह से अपनी चपेट में ले दिया था। मॉडल टाउन का तो हाल मत पूछिए। वहां बाढ़ का पानी फर्स्ट फ्लोर तक आया हुआ था। हकीकत नगर भी डूब गया था। सिविल लाइँस की कोठियों के अंदर भी पानी चल गया था। उधर, साउथ दिल्ली के पॉश एरिया जैसे महारानी बाग, जिसमें इंद्र कुमार गुजराल रहते थे, फ्रैंड्स कॉलोनी, जामिया मिलिया और ओखला में रहने वालों को कहा गया था कि वे सुरक्षित जगहों पर चले जाएं। हालांकि इधर बाढ़ के तबाही नहीं मचाई थी।
दरअसल 1978 की बाढ़ पर चर्चा करते हुए ये तथ्य नजरअंदाज कर दिय जाता है कि तब हालात बेकाबू इसलिए हुए थे क्योंकि हथिनीकुंड बांध से जब पानी दिल्ली में तेज रफ्तार से आया तो उसने कई जगहों पर बांधों को तोड़ दिया। नजफगढ़ के पास ढासा बांध टूटने से बाहरी दिल्ली के लगभग 43 किलोमीटर क्षेत्र में पानी कृषि भूमि में खड़ा हो गया। इन सब इलाकों में पानी कई दिनों तक खड़ा रहा था। इसके चलते बाहरी दिल्ली के गांवों जैसे सुल्तानपुरी, जोंती, लाडपुर,कंझालवा, घेवरा वगैरह में खरीफ की खड़ी फसल तबाह हो गई थी। इस कारण किसानों की माली हालत प्रभावित हुई थी। इसके अलावा झुग्गियों में रहने वाले लाखों लोग सड़कों पर आ गए थे। बाढ़ का पानी सबसे पहले जहांगीरपरी में घुसा था। उसक बाद उसने सारी उत्तर दिल्ली को अपनी चपेट में ले लिया था।
तब यमुना में दो तटबंध टूटने से इंदिरा नगर, मजलिस पार्क, गोपाल नगर, किंग्सवे कैंप, दिल्ली यूनिवर्सिटी, बेला रोड वगैरह में पानी चल गया था। निश्चित रूप से 1978 में स्थिति सिर्फ हथिनीकुंड से छोड़े गए पानी के कारण ही हाथ से नहीं निकली थी। जीटी रोड पर करनाल तक पानी भरा हुआ था। जाहिर है, इस कारण से यातायात रूक गया था।
ये याद रखिए कि 1978 में कोई पहली बार दिल्ली में बाढ़ नहीं आ रही थी। पर वो सबसे खराब बाढ़ की स्थिति थी। तब यमुना पुराने लोहे के पुल के ऊपर 2.66 मीटर बह रही थी। मतलब खतरे के निशान से बहुत ऊपर। तब यमुना का जल स्थर 207. 49 मीटर तक पहुंच गया था। उसके बाद 2010 में जल स्तर 207.11 मीटर और 2013 में 207.32 मीटर तक चला गया था।
जानने वाले जानते हैं कि दिल्ली में जिन बांधों को आप देख रहे हैं, ये 1960 और 1970 के दशकों में बने थे। जब 1978 में बाढ़ आई तो हालत इसलिए खराब हुई क्योंकि उन बांधों को बेहतर और मजबूत नहीं किया गया था। इसलिए पानी निचले इलाकों में बांधों को दरार करके घुस गया। इन बांधों के निर्माण से पहले तो यमुना का पानी यमुनापार या यमुना के आसपास के इलाकों में हर साल ही पहुंच जाया करता था। तब सरकार को होश आई तो कुछ बांध बने।
बेशक, 1978 की बाढ़ के बाद दिल्ली में यमुना के दोनों तरफ तटबंध बनाए गए। इसके पीछे इरादा ये था कि अब जब हरियाणा के हथीनीकुंड बांध से पानी छोड़ा जाएगा तो दिल्ली पानी-पानी नहीं होगी। तटबंधों की ऊंचाई को भी ऊंचा किया जाता रहा। नए सिरे से तटबंधों के बनाए जाने के बाद माना जा रहा था कि अब फिर से देश की राजधानी में कभी 1978 वाला भयानक मंजर देखने को नहीं मिलेगा। पर ये सोच गलत साबित हुई।
अब फिर से दिल्ली का एक बड़ा भाग बाढ़ की चपेट में है। हजारों दीन-हीन लोग स़डकों पर हैं और लाखों अन्य लोग प्रभावित हैं। सरकार के हाथ-पांव फूले हुए हैं। पर कोई ये नहीं कह रहा कि 1962 तो छोडिए 1978 से अब तक दिल्ली की आबादी कई गुना बढ़ गई पर यहां पानी की निकासी की ठोस व्यवस्था नहीं हुई। सीवरेज सिस्टम चरमरा चुका है। यहां के जलाश्य खत्म हो गए। बुरा ना मानिए, हमने अपनी दिल्ली का ख्याल कहां किया।
विवेक शुक्ला