दिल्ली

"भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,आज कल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ" - कुमार विश्वास

Shiv Kumar Mishra
1 Sep 2020 3:06 PM GMT
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,आज कल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ - कुमार विश्वास
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कुमार विश्वास ने दिल्ली सरकार से किया सवाल

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे डॉ कुमार विश्वास ने एक बार फिर केजरीवाल सरकार की खिचाई की है. उन्होंने कहा है कि सरकारों की ग़ैरज़िम्मेदार दुलकी चाल पर ज़रा तंज कस दो तो नेताओं व पार्टियों के पालित बुद्धिबंधक, की-बोर्ड क्रांतिकारी राशन-पानी लेकर ऐसे चढ़ते हैं. जैसे किसी आदमी के फोड़े को छू लिया हो और वो दर्द से करह रहा हो.

आजकल तो किसी भी सरकार से ज़रा सा कोई सवाल पूछ लो, सरकारों की ग़ैरज़िम्मेदार दुलकी चाल पर ज़रा तंज कस दो तो नेताओं व पार्टियों के पालित बुद्धिबंधक, की-बोर्ड क्रांतिकारी राशन-पानी लेकर ऐसे चढ़ते हैं जैसे उनके नेताओं की बेईमानी का सूचकांक ही माँग लिया हो ? हमने चेतना की शुरुआत से ही ये सवाल पूछे हैं, पूरी शिद्दत से पूछे हैं और जनता के सवाल, अहंकारी सरकारों से पूरी हनक के साथ पूछने की जनता की कवि से अपेक्षा को हरबार पूरा किया है ! पूज्य अटल जी से उनके सामने ही मंच पर हरबार तन कर पूछे और उनकी मुस्कराहट को आश्वस्ति माना ! पिछली सरकारों के मुखों और मुखियाओं से तो देश के हर गली-चौराहे पर चढ़ के पूछे और सहमति के सर न हिलते देख देश के हर सर को हिला दिया !

आज याद आता अपना वो पूर्वज जिसने सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उस वक़्त की सरकारों से हरबार चुभते हुए, तीखे सवाल पूछे ! हरबार उन सरकारों के चमचे-चिंटूओं ने अपने नेताओं से कहा कि "यह कवि राष्ट्र के ख़िलाफ़ बोल रहा है, इसपर कार्यवाही करिए !" क्यूँकि हर युग में पार्टी पालित चिंटू अपने आका को न केवल "राष्ट्र" समझने लगते हैं बल्कि जो राष्ट्र को राष्ट्र और किराएदार-आका को केवल किराएदार ही समझता है उसके ख़िलाफ़ फ़तवे भी पारित करते-कराते रहते ही हैं !

पर हमारा औघड, हमारा औलिया, हमारा फ़क़ीर सच कहने में न एक पल चूका न एक लफ़्ज़ रुका ! ऐसी आग, जो सत्ताओं को आईना दिखाती रहती है...ऐसे मुहावरे, जिनके बिना देश में कोई आंदोलन नहीं होता...ऐसे अशआर, जो क्रांति की मशाल में ज्वाला उत्पन्न करते हैं...एक ऐसा शब्द-दूत जिसने हिन्दी ग़ज़ल में जो गढ़ दिया, आज भी हिन्दी ग़ज़ल उसी भाषावली के आस-पास घूमती रहती है। शब्दों को उनके अर्थ की हर हद तक निभाने के जादूगर, मेरे कबीले, मेरी बेचैनी, मेरे इलाक़े और मेरी ज़बान के बाबा दुष्यंत कुमार को उनके जन्मदिवस पर उन्हीं की आग को लगातार जिलाए रखने की टिटिहरी कोशिश में जुटे इस वंशज का सादर प्रणाम, लड़ेंगे-जीतेंगे.

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