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Common Indian become poor: हकीकत और दावों के बीच आम भारतीय तो गरीब हुआ है

Special Coverage Desk Editor
16 Jan 2022 9:08 AM GMT
Common Indian become poor: हकीकत और दावों के बीच आम भारतीय तो गरीब हुआ है
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Common Indian become poor: चुनावी राज्यों- पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश को रोशन करने के लिए उत्तरी आकाश में चमकता सितारा बनने और गोवा तथा मणिपुर जैसे दूरदराज के राज्यों से प्रशंसा हासिल करने का इरादा था। हालांकि यह उल्कापिंड साबित साबित हुआ, सात-आठ जनवरी को थोड़ी देर के लिए तो चकाचौंध हुई, पर दिन खत्म होने से पहले ही यह ओझल हो गया।

Common Indian become poor: चुनावी राज्यों- पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश को रोशन करने के लिए उत्तरी आकाश में चमकता सितारा बनने और गोवा तथा मणिपुर जैसे दूरदराज के राज्यों से प्रशंसा हासिल करने का इरादा था। हालांकि यह उल्कापिंड साबित साबित हुआ, सात-आठ जनवरी को थोड़ी देर के लिए तो चकाचौंध हुई, पर दिन खत्म होने से पहले ही यह ओझल हो गया।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने 2021-22 के लिए राष्ट्रीय आय के प्रथम अग्रिम अनुमान (एफएई) सात जनवरी को जारी किए थे। प्रेस बयान का असल हिस्सा 9.2 फीसद का आंकड़ा था। एनएसओ ने रेखांकित किया कि 2020-21 के स्थिर मूल्यों पर जीडीपी (-7.3 फीसद) में आए संकुचन के मुकाबले 2021-22 के स्थिर मूल्यों पर जीडीपी वृद्धि 9.2 फीसद रही।

सरकार के प्रवक्ताओं के मुताबिक हम 2020-21 की गिरावट से पार पा लेंगे और 2019-20 से करीब 1.9 फीसद ज्यादा रिकार्ड वृद्धि हासिल कर लेंगे। यदि यह सही साबित हो गया, तो मैं सबसे खुश व्यक्ति होऊंगा। (विश्व बैंक का अनुमान 8.3 फीसद का है।)

अफसोस! यह खुशी समय से पहले ही खत्म हो जाएगी। 2019-20 में स्थित मूल्यों पर जीडीपी 145,69,268 करोड़ रुपए थी। 2020-21 में महामारी के कारण यह घट कर 135,12,740 करोड़ रुपए पर आ गई थी। ऐसा सिर्फ तभी है जब जीडीपी 2019-20 के आंकड़े को पार कर जाती, तो क्या हम कह सकते हैं कि गिरावट को खत्म किया जा सकता है और हम उस स्थिति में आ गए हैं, जो 2019-20 के अंत में थी। एनएसओ के अनुसार नतीजा 2021-22 के समान ही है, जबकि कई प्रेक्षकों को ऐसा नहीं लग रहा। कोविड-19 और इसके नए स्वरूप के फिर से फैल जाने के कारण संदेह और गहरा गया है।

बने रहने की कोशिश

एनएसओ के अग्रिम अनुमानों पर जरा और गहराई से विचार करें। एनएसओ के अनुसार जीडीपी 145,69,268 करोड़ रुपए से थोड़ी-सी यानी 1,84,267 करोड़ रुपए (1.26 फीसद) और बढ़ जाएगी। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो यह बहुत ही मामूली रकम है। अगर कहीं कोई एक चीज भी गड़बड़ाती है, तो अनुमानित वृद्धि खत्म हो जाएगी। उदाहरण के लिए अगर निजी खपत में जरा भी गिरावट आ गई या जरा-से बाजारों को निर्यात जरा भी गड़बड़ा गया या निवेश में मामूली-सी भी कमी आ गई तो 'अधिकता'साफ हो जाएगी।

इसके लिए हम जो सबसे बेहतर उम्मीद कर सकते हैं वह यह कि 2021-22 में स्थिर मूल्यों पर जीडीपी 145,69,268 करोड़ रुपए के बराबर रहेगी, इससे कम नहीं। इस आंकड़े को हासिल कर लेने का मतलब होगा कि दो साल बाद भारतीय अर्थव्यवस्था 'उसी स्थिति' में आ जाएगी, जिसमें वह 2019-20 में थी। शुक्रिया महामारी का और अर्थव्यवस्था के अक्षम प्रबंधन का भी।

इस शेखी में कुछ नहीं धरा है कि भारत दुनिया की सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्था है या होगी। जीडीपी तेजी से गिरी है, इसलिए इसका ऊपर आना शानदार दिख रहा है। अगर जीडीपी और तेजी से गिरती तो इसका उठना और ज्यादा चमत्कार भरा दिखता! दो सालों में, जिनमें भारत की अर्थव्यवस्था (-)7.3 और (+)9.2 फीसद का रिकार्ड दर्ज करेगी, जीडीपी सपाट हो गई है। चीन ने अनुमानित दर 2.3 और 8.5 फीसद हासिल कर रिकार्ड बनाया है। इसलिए कौन-से देश की अर्थव्यवस्था बढ़ी है और कौन-सा देश फर्जी दावों में लगा हुआ है?

औसत भारतीय गरीब

एनएसओ के आंकड़े यह भी बताते हैं कि 2019-20 के मुकाबले 2020-21 में औसत भारतीय गरीब था और 2021-22 में भी रहेगा। इसके साथ ही, उसने 2019-20 में जितना खर्च किया था, उसके मुकाबले वह अब कम खर्च करता है और करेगा। पिछले तीन सालों में प्रति व्यक्ति आय और प्रति व्यक्ति खपत खर्च के आंकड़े इस प्रकार हैं-

  • 2019-20 108645 62056
  • 2020-21 99694 55783
  • 2021-22 107801 59043

चिंता पैदा करने वाले और संकेतक भी हैं। सरकारी खर्च काफी हद तक बढ़ाने की अपीलों के बावजूद पिछले वर्षों की तुलना में 2020-21 में सरकार का अंतिम पूंजीगत खर्च सिर्फ 45003 करोड़ रुपए ज्यादा रहा। इसी तरह पूर्व वर्ष के मुकाबले 2021-22 में यह सिर्फ 1,20,562 करोड़ रुपए ज्यादा रहेगा। निवेश लड़खड़ा रहे हैं। 2019-20 में हासिल किए गए स्तर के मुकाबले सकल स्थिर पूंजी निर्माण बढ़ कर 1,26,266 करोड़ रुपए पर चला जाएगा, जो महामारी से पीड़ित अर्थव्यवस्था के लिए एकदम अपर्याप्त है।

असलियत की जांच

हालांकि लोगों के बीच जीडीपी से कहीं ज्यादा गैस, डीजल और पेट्रोल के दामों को लेकर बातें हो रही हैं। बेरोजगारी को लेकर भी चिंता है। सीएमआइई के मुताबिक शहरी बेरोजगारी की दर 8.51 फीसद और ग्रामीण बेरोजगारी की दर 6.74 फीसद है। असल हालात डरावने हैं। जिनके पास काम है, वह केवल दिखावा ही है। दालों, दूध और खाने के तेल जैसी जरूरी चीजों के दाम चिंता बढ़ा रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिंता अलग है।

ग्रामीण भारत और शहरी भारत के पड़ोसी इलाकों में पिछले दो सालों से बच्चों की कोई पढ़ाई-लिखाई नहीं हो पाई है। सुरक्षा भी चिंता की एक बात है। उत्तरी और मध्य भारत में मिश्रित समुदायों के भीतर विस्फोटक हालात जैसा भय पैदा हो गया है, जो आग लगाना शुरू कर देगा। नफरती भाषण और डिजिटल माध्यमों पर नफरती बातें, अपराध और पीछे पड़ने, खासतौर से महिलाओं व बच्चों के खिलाफ घटनाएं भी चिंता बढ़ाने वाली हैं। महामारी और विषाणु के नए-नए रूपों को लेकर भी चिंता है।

लोगों की असल समस्याओं और चिंताओं को लेकर शासक परवाह नहीं करते हैं। वे चुनावी लड़ाइयों के बड़े रास्ते पर निकल चुके हैं। इस रास्ते पर वे शिलान्यास कर रहे हैं, अधबने पुलों को खोल रहे हैं, खाली अस्पतालों का उद्घाटन कर रहे हैं, दावा कर रहे हैं कि अस्सी फीसद, बीस फीसद से लड़ेंगे और हर दिन नया नारा उछाल रहे हैं। यह अवास्तविकता है। यह शेखी भी कि भारत सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था है, अवास्तविकता है।

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