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दिल्ली में बीस साल बाद एक ऐसी सरकार बनी है जो न भारतीय जनता पार्टी की और ना ही कांग्रेस पार्टी की। हां, इस बार दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है क्योंकि इस पार्टी के नेताओं न सिर्फ कहना बल्कि पूरा दावा भी है कि इस से पहले दिल्ली की कुर्सी पर खास लोगो की हुकूमत हुआ करती थी। इन बीस सालों में बीजेपी की सरकार तो एक बार आई लेकिन मुख्यमंत्री तीन बार बदले गऐ।
1993 में भी बीजेपी अपनी अन्दरुनी कलह से जूझ रही थी और 2014 में वो चरम पर पहुची जिसका नतीजा ये हुआ कि जुम्मे जुम्मे चार दिन पुरानी पार्टी के चार नेताओं ने मिल कर दिल्ली बीजेपी को ‘’थ्री व्हीलर’’ पर बिठाकर विधानसभा भेज दिया और पंद्रह साल तक लगातार एक क्षत्र राज्य करने वाली कांग्रेस पार्टी का वर्तमान विधानसभा में सिरे से सूपडा साफ हो गया।
अब सवाल ये है कि राजनीति मे बदलाव, शुचिता, पारदर्शिता, जवाबदेही और स्थापित मानदंडो से हट कर सियासत का दावा करने और भ्रष्टाचार मुक्त दिल्ली को साफ सुथरी सरकार देने के वादे के साथ आप पार्टी सत्ता तक पहुची। मगर शपथ लेने से आज तक के सफर मे चाल, चलन और चरित्र जो आम आदमी पार्टी ने दिखाया है उससे तो एक ऐसे हालात बन रहे है जिससे ऐसा लगता है कि आप पार्टी सरकार में आने के बाद भी चुनावी मोड से न सिर्फ बाहर आ पाई है बल्कि उसने इस चुनावी लडाई को हर स्तर पर जारी रखने का फैसला कर लिया है। हो सकता है ये नुस्खा आप की सरकार की सेहत को तो मुफीद साबित हो रहा होगा मगर दिल्ली की आम जनता का स्वास्थ्य दिन ब दिन गिरता जा रहा है। पहले केन्द्र सरकार पर हमला बोला कि वो हमे काम नही करने दे रहे फिर दिल्ली के उपराज्यपाल पर धावा बोला, प्रधानमंत्री पर आरोप की वो उपराज्यपाल के कन्धे का सहारा लेकर सरकार का तख्ता पलट कराना चाहते है।
राष्ट्रपति से हस्तक्षेप की गुहार, उच्च न्यायालय से लगातार एक के बाद एक मिल रही फटकार से घायल केजरीवाल की सरकार अभी संभल भी नही पा रही थी कि पारदर्शिता और लोगो की राये से चलाने का दावा करने वाली आप, सरकार के एक मंत्री फर्जी डिग्री मामले में जेल मे है। एक विधायक फरार था जिसने कोर्ट मे समर्पण कर दिया है। 19 ऐसे एमएलऐ जिन पर अलग-अलग आपराधिक मामलों में दिल्ली पुलिस चार्जशीट दाखिल करने की तैयारी में है। विधान सभा की 70 में से 67 सीटें लेकर दिल्ली वासियों ने पिछली बार की गलती को सुधारकर पांच साल केजरीवाल को देकर उन्हे इस बार भागने के सारे रास्तो को संकरा कर दिया। मगर उन्हे नही मालूम था कि सास भी कभी बहु थी धारावाहिक उन्हे इस बार साक्षात देखने को मलेगा।
पूर्ण राज्य के दर्जे को लेकर बीजेपी-कांग्रेस भले ही एक दूसरे पर मसय-समय पर आरोप लगाती रही है मगर ये अब साफ हो गया कि 1993 में दिल्ली राज्य मे बीजेपी की सरकार थी तब केन्द्र ने उनकी पूर्ण राज्य की मांग ठुकरा दी थी और 1998 में राज्य मे कांग्रेस की सरकार तो केन्द्र मे बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार थी तब बीजेपी ने शीला दिक्षित की मांग पर कान नही दिए लेकिन इस नूराकुश्ती का पटाक्षेप तब हुआ जब केन्द्र मे दस साल कांग्रेस और राज्य में भी कांग्रेस की सरकार लगातार रही मगर मनमोहन सिंह ने अपनी ही पार्टी की शीला दिक्षित की मांग को ठंडे बस्ते मे डाल कर साबित किया कि मांग मात्र एक चुनावी स्टंट से ज्यादा कुछ नही है और देश की राजधानी मे सताऐ तो दो हो सकती हैं लेकिन उसकी कमान केन्द्र के हाथ मे ही रहेगी।
अब सवाल ये है कि अगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नही दिया जा सकता या देश हित में नही दिया जाना चाहिए तो फिर ये आधा-अधूरा राज्य को क्यूं बनाया गया । क्यों नही इसे 1993 से पहले की ही स्तिथि मे रखना चाहिए। ये भी तर्क दिया जा रहा है कि देश की राजधानी पर दुनिया की नगाहे होती है इसलिए इसे सत्ता संघर्ष का अखाडा नही बनाया जा सकात।
वोट बैंक की राजनीति के चलते पहले ही दिल्ली स्लम में तबदील होती जा रही है ऐसे में कोण में खाज उस वक्त हुआ जब लम्बे समय से एमसीडी पर काबिज़ बीजेपी को पटखनी देने की नीयत से शीला सरकार ने 2012 में चुनावो की दहलीज़ पर खडी दिल्ली के एमसीडी के तीन टुकडे कर दिऐ और फंड आवंटन को लेकर राजनीति का गलीज़ चेहरा सामने आया। अब दिल्ली मे एनडीएमसी के अलावा तीन स्थानीय निकाय हैं। पूर्वी, उत्तरी और दक्षिण दिल्ली नगर निकाये बना दीए गए।
वित्तीय संस्थानो के मोर्चे पर पूर्वी और उत्ती नगर निगम की खस्ताहाल किसी से छिपी नही है इसके चलते सफाई कर्मचारियो को महीनो से वेतन न मिलने से हुई हडताल से देश की राजधानी कूडे के ढेर मे तबदील हो गई। हाईकोर्ट की फटकार के बाद दिल्ली की सरकार को फंड रीलीज करने पर मजबूर होना पडा मगर इस बीच केजरीवाल और केन्द्र के बीच फसे दिल्लीवासियों को नाक पर रुमालो के ढेर ने उनकी सांसे उखाड दी। केन्द्र फिर उपराज्यपाल, उच्चतम न्यायालय और अब एमसीडी के चुनाव पर निशाना साधने की गर्ज से आप पार्टी की सरकार के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने स्थानीय निकायो के लिऐ चालू वित्त वर्ष में 5908 करोड रुपये की सहायता राशी का प्रस्ताव किया जो कुल बजट का 14.4% है। पार्टी नही चाहती कि उसके वोटबेंक को कोई छेडे इस गरज से जिन इलाकों मे बडी संख्या मे झुग्गी- झोपडीयां है वहां बिजली, पानी के बिल वसूलने के लिए अधिकारियो को सख्त मनाही है। ऐसे मे क्या दिल्ली मे लुभावने वादो के सहारे सरकार का सत्ता पर काबिज़ होने की होड ने ऐतिहासिक दिल्ली के अंतराष्ट्रीय स्वरुप पर बदनुमा दाग लगा दिया है? तो क्या वक्त आ गया है कि दिल्ली को एक बार फिर 1993 से पहले की स्थिति मे रखने की तरफ बढा जाऐ। आर्थिक संकट से जूझ रही दिल्ली के भोगोलिक क्षेत्र का 9 फीसदी और आबादी का 25 फीसदी हिस्सा पूर्वी एमसीडी के हिस्से मे आया।
एकीकृत निगम मे वह 14 प्रतिशत राजस्व देता था और 24 प्रतिशत खर्च होता था । आमदनी और खर्च मे अंतर का आंकडा 421 करोड रुपये सालाना पर आ गया। उत्तरी एमसीडी का राजस्व 1000 करोड रुपय से कम रहा मगर खर्च इससे बहुत अधिक है। तीनों निगमो का खर्च का सबसे बडा बोझ कर्मचारियो के वेतन मे निकल जाता है और उससे भी ज्यादा उसके रिटायर्ड कर्मचारियो के पेंशन पर। ऐसे मे एक ऐसी सरकार जिसके पास कोई बहुत अलग से काम करने को नही है उसने सात मंत्रियो, मुख्यमंत्री इतना बडा सचिवालय, हज़ारो कर्मचारियो और बाबूओ ने दिल्ली पर बोझ ही बढाया है।
क्यों न दिल्ली को सीधे तौर पर केन्द्र, उपराज्यपाल के माध्यम से चलाए। चुनाव की राजनीति को यहां विराम देने से एक सौ पच्चीस करोड की जनसंख्या वाले देश के लोकतंत्र को कोई खतरा नही होने वाला। उपराज्यपाल सात मंत्रियो के स्थान पर देश के जाने माने अलग अलग क्षेत्रो के ऐकस्पर्ट को दो साल के लिए नियुक्त करें और जो दिल्ली की जरुरते है जैसे सडक, पानी- बिजली सप्लाई, कूडे की सफाई आदि पर प्रोफेशनल तरीके से काम करे। इससे लालफीताशाही खत्म होगी। अंधाधुंध चुनावी वादों का लालच नही देना पडेगा, वोट बैंक की मजबूरिया नही होंगी , आर्थिक बोझ कम होगा, राजस्व बढाने के उपायो पर बल रहेगा, अगले चुनाव की चिंता नही सताऐगी और सारा फोकस गुड गवर्नेस पर रहेगा।
लेखक : वरिष्ठ पत्रकार, पुष्पेंद्र कुमार
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