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आज प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर उबैदुल्लाह अलीम की बरसी है, अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये
जैसी प्रसिद्ध शायरी देने वाले अलीम जन्म के तौर पर द्वितीय विश्व युद्ध के समय सन् 1939 भोपाल में जन्मे और सन् 1997 ई को जमींदोज हो गए। उबैदुल्लाह की कहानी भी कुछ जौन एलिया की तरह की है। जौन की तरह अलीम का पाकिस्तान जाना, वहां एक-दूसरे की मुलाकात होना सब मिल्लत-ए-बयां पेश करते हैं।अलीम दिलसितानी शायर है उसकी कलम सदा सितमजद़ आवाम के लिए उठती थी।
जौन और अलीम दोनो का चोली दामन जैसा साथ रहा। पेश है डाॅ खुर्शीद अब्दुल्लाह की अगुवाई में 6 जुलाई 1986, प्रेस क्लब करांची में उबैदुल्लाह अलीम की किताब "वीरान सराय का दिया" पर जौन भाई का मंजूम खत'
आज मुझे एक बात याद आयी अलीम से जाॅन का हमेशा ये झगड़ा रहा है। जाॅन बोलता है, यार अलीम! तू तरक्की पसंद क्यूं नही है?
तो अलीम बोला कि, यार तू सिक्का बन्द नजर अन्दाज़ से सोचता है। जबकि वाकई ये थे के जब भी किसी बिसात-ए-सोहबत( दोस्तो की महफ़िल) सजती तब जाॅन अलीम से लज्ज़तबाय तरीक़े से पेश आते।
अलीम की शायरी उसकी उजूरी है, इसलिए मैं उसे हैजान-ए-जात का शायर कहूँगा। शायरी में अलीम का उरूद एक फितने का उरूद था। उसके साथ एक माज़रा खेज है।
जौन कहता हैं , अलीम जात का शाइर है, लेकिन मैं उसे उस जात का शाइर नहीं कहूँगा , जिसे आजकल शहर में समझा जाता है।
इस माना में कि उसकी शायरी का सरचश्मा हैजान-ए-जात है जैसे कायनात का चश्मा हैजान-ए-वुजूद है। उसकी शायरी के वुजूद की कुव्वत है सूरत और मानवियत है। उसकी शायरी सूरत में रंग है। और माना में तलाश-ए-रंग। वो शायरी ही नही बल्कि शायर के अन्दर का वो शैतान भी है इस अमल में किसी मसलत, किसी नज़रिए या किसी मकतत्बे फिक्र का काम हवाला उसके नजदीक बेईमाना है। जबकि मेरे नजदीक बा'माना है। उसने एक नुक्ता दरियाख्त किया है , और वो ये है - अदब दावा करता है ,दरीने पेश नहीं करता। के अदब तख्लीक है , और तख्लीक - खुदा। और इजराइलियो के ख़ुदाबन्द यहावा ने जो अपने लिए कहा है वो ये है - वो जो है, सो है। और अलीम ने भी यही फरमाया है के, - मैं जो हूँ, अपनी सूरत पे हूँ, अलीम।
के जैसा भी होने का शुहूर उससे भी बड़ी जवाबदेही चाहता है। इस हालत में होने न होने की जिम्मेदारी खुद उठाता है, रास्ते में कोई नही है ,
उम्मीद दिलाने वाला कोई नही है
अब तो केवल तन्हाई है ये।
जौन कहता है - मुझे अलीम को देखकर उर्फ़ी का ख्याल आता है । उर्फ़ी की शख्सियत को हमेशा मसहूरियत की निगाह से देखा गया है । उर्फ़ी को जहर दे दिया गया था।और वो जवान मर गया था। अलीम उर्दू का वो उर्फ़ी है, जो जहर खाकर भी जिन्दा है। वैसा ही तरादार, वैसा ही तन्नाद, वैसा ही अनापरस्त। वो महज एक शाइर ही नही , एक उसलूद भी है। वो लफ्ज़ो का सूतखोर है। यानी एक लफ्ज़ से दो-दो अर्थ वसूल करता है। और मेरे ख्याल से शायरी है भी वो मामला जिससे वो सब वसूल कर लिया जाए , जिससे उसकी जेब ख़ाली दिखायी दे। मैं यह भी कहना चाहता हूँ, कि शेर उसके यहाँ हुनर नहीं है, के हुनर जात के मुसावी नहीं होता। बल्कि शेर वो चीज है जिसे यूनानियों ने फजिल-ए-शाबिर किया है।
अलीम एक खुद-इश्क-मिज़ाज का आदमी है।और उसने हर वक्त मुझे यही तालीम दी। के यार इश्क इख्तियार कर। जब मुझे पता चला कि मेरे अन्दर इश्क के बीज म़िरे अन्दर ख़लिश पैदा कर रहे हैं तो मैंने इस शहर से फ़रार इख्तियार किया।
अलीम अपनी किताब "वीरान सराय का दिया" में लिखते हैं -
दो मुख़्तलिफ़ चीज़े ही एक-दूसरे की तक्मील करती हैं। मर्द, औरत की तक्मील करते हैं लेकिन ये तय नहीं हो पाया कि हम में से शौहर कौन है और बीवी कौन है ?
मुझे उबैदुल्लाह अलीम साहब की एक गजल बेहद पसंद है -
"मैं किसके नाम लिखूँ, जो अलम गुज़र रहे हैं"
मैं किसके नाम लिखूँ, जो अलम गुज़र रहे हैं
मेरे शहर जल रहे हैं, मेरे लोग मर रहे हैं
कोई गुंचा हो कि गुल, कोई शाख हो शजर हो
वो हवा-ए-गुलिस्तां है कि सभी बिखर रहे हैं
कभी रहमतें थीं नाज़िल इसी खित्ता-ए-ज़मीन पर
वही खित्ता-ए-ज़मीन है कि अज़ाब उतर रहे हैं
वही ताएरों के झुरमुट जो हवा में झूलते थे
वो फ़िज़ा को देखते हैं तो अब आह भर रहे हैं
कोई और तो नहीं है पस-ए-खंजर-आजमाई
हमीं क़त्ल हो रहे हैं, हमीं क़त्ल कर रहे हैं"
जाॅन को अदब घर से मिला और बेअदब जमाने से। जौन कहता है, मैं फकीरी का शायर हूँ, मैं बौना शायर हूँ। मैं जो म़ुल्क छोड़कर आया हूँ, वहाँ बहादुर बहुत हैं और बहादुरो के लिए पढ़ना जरूरी नही। अलीम भी मेरी नज़र में बहादुर है।
अन्त में अलीम का वो एक शेर जो उसे मगफिगरत दिलाता है।
लिक्खो तमाम उम्र मगर फिर भी तुम 'अलीम'
उस को दिखा न पाओ वो ऐसा हबीब था
- प्रत्यक्ष मिश्रा (पत्रकार, लेखक)