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स्त्री पुरुष समानता अभी भी सपना, बेटा घर का चिराग , बेटी पराया धन

Shiv Kumar Mishra
16 July 2021 12:14 PM GMT
स्त्री पुरुष समानता अभी भी सपना, बेटा घर का चिराग , बेटी पराया धन
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शिप्रा

भले ही हमने २२वीं सदी में पदार्पण कर लिया हो लेकिन जब बात स्त्री पुरुष समानता की बात आती है तो हमारी सोच आज भी लट्टू की भाँति एक ही धूरी पर नाचती है। इसका जीता जागता उदाहरण है,जब लोग बड़े ही गर्व से कहते हैं,"हमने अपनी बेटियों को बेटे की तरह पाला है।"

जब बेटा और बेटी दोनों ही नौ महीने माँ की कोख में पलते हैं तो फिर गर्भ से बाहर ये कैसा भेदभाव? स्त्री और पुरूष सृष्टि के सातत्य के संवाहक हैं।दोनों की शारीरिक संरचना भले ही भिन्न है,किंतु मानसिक तौर पर किसी को कम आंकना श्रेयस्कर नहीं है। फिर स्त्री में तो ईश्वर प्रदत्त विशिष्ट गुण है जो उन्हें परिपूर्ण बनाती हैं; कमज़ोर कदापि नहीं।

जब समाज की आधी आबादी की हिस्सेदारी महिलाओं की है फिर समाज की ऊर्ध्वगामी प्रगति के लिए स्त्री और पुरूष दोनों का परस्पर विकास वांछनीय है। स्त्रियों ने अपनी काबिलियत और सफलता का परचम अवनि से अम्बर तक लहराया है।लेकिन यह विडंबना ही है कि आज भी लोग "पुत्र रत्न" की आस में मंदिरों का द्वार खटखटाते हैं।कन्या के जन्म मात्र से ही मायूसी की घटा छा जाती है।खोखली दलीलों के साथ बेटे को "घर का चिराग"और बेटियों को "पराया धन" की संज्ञा देते हैं।

इसके पीछे मुख्यतः दो ही कारण है।पहला,पुरातनपंथी विचारधारा जिसमे पुरुषों को देवाधिदेव समान उच्च स्थान प्राप्त है।दूसरा,हमारे समाज की दोषपूर्ण परंपराएं।

ध्यातव्य है कि प्राचीन युग में शिक्षा का अधिकार स्त्री और पुरुष दोनों को समान था। वेद ज्ञान से लेकर हथियार चलाने तक की शिक्षा समान रूप से स्त्रियों को भी दी जाती थी।हमारा इतिहास इनकी विद्वता और वीरता की गाथा से गौरवमयी है।कालांतर में विभिन्न शासन काल के गर्द आंधियों में इनकी शिक्षा, सुरक्षा,पद और प्रतिष्ठा धूमिल होती चली गई।जिन्हे फिर से स्थापित करने के लिए दुर्धर्ष संघर्ष जारी है। इनके पतन के पीछे का एकमात्र कारण स्त्रियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना है।जिसके फलस्वरूप ये ना सिर्फ अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहीं अपितु अपनी अंतर्निहित पूर्णता को भी व्यक्त करने में अक्षम रही हैं।

शनै शनै परिस्थितियां बदल रही है।लोगों में जागरूकता आ रही है।सरकारी स्तर पर भी विभिन्न ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। हालांकि समाज के सभी वर्ग आज भी पूर्ण रूपेण लाभान्वित नहीं हो रहे हैं।

दूसरा ठोस कारण जिसकी वजह से बेटियां आज भी अवांछनीय है,वह है,"दहेजरूपी दानव", जिसके भय से जन्म से ही बेटियों को बोझ समझा जाता है। आज भी हमारे समाज में बेटियों का अंतरिम भविष्य ब्याहता होना ही है।जिससे विवश होकर माता पिता बेटी के जन्म से ही धन संचय करने लगते हैं।उनकी प्राथमिकता दहेज लोलुप आत्माओं को तृप्त कर अपनी बेटी की तथाकथित "भविष्य" को सुरक्षित करना होता है।फलतः कई योग्य बेटियां धन के अभाव में उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती हैं।

कुछ बुद्धिजीवियों का तो ये भी कहना है की लोग बेटियों को उच्च शिक्षा की स्वतंत्रता देकर उच्छृंखलता को आमंत्रण देते हैं।यदा कदा तो चरित्रहीनता का भी तगमा भी भेंट किया जाता है।

समय आ गया है गंभीरतापूर्वक पुनरावलोकन किया जाए। स्त्री सशक्तिकरण का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि हम स्त्रियों को पुरुषों से बेहतर सिद्ध करने की होड़ में हैं। दोनों ही समाज की महत्वपूर्ण इकाई हैं। दोनों के अपने नैसर्गिक गुण हैं; दोनों ही हर क्षेत्र के लिए सामर्थ्यवान हैं।एक सशक्त,समृद्ध एवं सर्वांगीण विकसित समाज की स्थापना हेतु हमे अपनी मनःस्थिति को परिष्कृत करने की आवश्यकता है।उनकी योग्यता को पहचानकर उन्हें स्वाबलंबी बनाना है;किसी विशेष परिधि में बांधना नहीं है।

Shiv Kumar Mishra

Shiv Kumar Mishra

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