लाइफ स्टाइल

आज अगर मित्रता दिवस पर यह नहीं पढ़ा तो आपने कुछ नहीं जाना, क्या है हकीकत दोस्ती की?

Shiv Kumar Mishra
2 Aug 2020 10:29 PM IST
आज अगर मित्रता दिवस पर यह नहीं पढ़ा तो आपने कुछ नहीं जाना, क्या है हकीकत दोस्ती की?
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गांव के खेत, खलियान,बाड़े, बगिया, मौहल्ले व स्कूल के कुछ दोस्तों की दुनिया से बाहर जब मेरा जुड़ाव "कलम आंदोलन" में हुआ तो मेरी संकीर्ण सोच-समझ पर अनेकों प्रहार हुये ।

रामभरत उपाध्याय

आज जीवन में कई बसन्तों के तमाम तरह के अनुभव संजोने के बाद मैं प्रमाणिक रूप से यह कह सकता हूँ कि मेरे जीवन में कलम आंदोलन से अर्जित सोच,समझ व सीख सदैव पिलर का काम करती रही है ।

गांव के खेत, खलियान,बाड़े, बगिया, मौहल्ले व स्कूल के कुछ दोस्तों की दुनिया से बाहर जब मेरा जुड़ाव "कलम आंदोलन" में हुआ तो मेरी संकीर्ण सोच-समझ पर अनेकों प्रहार हुये ।

जैसा कि पूर्व के संस्करण में मैंने बताया कि कलम आंदोलन शहर में व्यस्त राजमार्ग के फुटपाथों पर बनी झुग्गियों के बच्चों को चौराहों पर भीख मांगने से मुक्ति दिलाकर शिक्षित व जागरूक करने हेतु अनिल शुक्ल सर के मार्गदर्शन में कुछ नौजवानों द्वारा चलाया जा रहा था। कलम आंदोलन के प्रभावों को हम दो खण्डों में समझ सकते हैं पहला बच्चों व उनके अभिभावकों पर प्रभाव, दूसरा आंदोलनकारी के तौर पर मेरे जीवन पर प्रभाव ।

खण्ड एक

जब पहले दिन हमारी टोली झुग्गियों के जीवन में दाखिल हुई तो मैं स्वयं व्यस्त चौराहे पर वाहनों की रेलमपेल व कर्कश ध्वनियों के बीच चंद झौंपड़ियों में सिसकती जिंदगियों को देखकर विस्मय व भावुकता से भर गया था।

गन्दे कपड़े व पुरानी बदसूरत घासफूस से पटी झुग्गियों के दरवाजे पर अपनी उम्र से अधिक दिखने वाली कुछ औरतें अपने छोटे बच्चों को चुप कराने का असफल प्रयास कर रहीं तो थोड़े से बड़े बच्चे निकट चौराहे पर गुजरते वाहनों के आगे हाथ बढ़ाये दिख रहे थे। बच्चों का एक छोटा समूह झुग्गियों के पीछे बहते नालों में कुछ ढूंढता हुआ हंसी ठट्टा कर रहा था। झुग्गियों में मर्द सदस्यों की संख्या कम थी शायद वे अपने तथाकथित कामों से अभी लौटे नहीं थे।

झुग्गियों के बीच हम कुछ अमीर से दिखने वाले लड़के लड़कियों को देखकर कुछेक बच्चे, महिला व आदमियों ने हमें घेर लिया। वो सब हमें कुछ बांटने वाले सेठ साहूकार समझ रहे थे जो कभी कभी उनके बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते थे।

लेकिन जैसे ही हमने उनको उनके बच्चों को कुछ पढ़ाने लिखाने की बातें कहीं तो उनकी उम्मीद पर पानी फिर गया और धीरे धीरे सभी हमारे पास से खिसक लिये सिबाय एक महिला के ।

हमारी उम्र से लगभग दोगुनी वह महिला बोली कि , "बाबूजी जित्ता हम्म तुमाई बातों को समझे ताते लगतुहै कि तुम पड़ाहे-लिखाहे कैं हमाए बच्चनिको जीबनु बदलें चाहतौ।"

तभी धूल में सने जमीन में खेलते बच्चे को गोद में उठाकर हिमानी ने उस महिला से मुखातिब होते हुए बोला हां चाची जी आपने बिल्कुल सही समझा । हम चाहते हैं कि आप नहीं तो कम से कम आपके बच्चे तो इस गलीच जीवन से निकलकर सभ्य जीवन जी सकें।

मैडम जी बात तो आपऊ की सई है परि हमाए घुमंतू समाज में पीढ़ियों से कोऊ पढ़ाई-लिखाई से वास्ता नाहीँ बसि हूँ एक कोठी की मालकिन ने बचपन में काम के बदले नामु लिखिबौ सिखाए दई थी।अब हमाए बच्चा कामु छोड़ि कैं पढ़ेंगे तो पेटु भरिबे की दिक्कत आबेगी।

इसप्रकार लगभग एक हफ्ते में कई चक्कर झौंपड़पट्टी में लगाकर हमने कुछ अभिभावकों को प्रतिदिन शाम को उनके बच्चों को वहीं झौंपड़ियों के बीच में ही पढ़ाने को राजी किया। शुरू में तो किसी भी बच्चे का पढ़ने में मन नहीं था सबको इधर उधर से ढूंढ ढांढ कर कक्षा में बिठाया जाता।

कक्षा में शुरुआत के कुछ दिन तो बच्चों को कपड़े पहनने, बैठने-उठने , बोलने-चालने के तौर तरीके सिखाने में ही लगे।

कुछ ही दिनों में हम कविता कहानी व सुंदर गीतों के माध्यम से कक्षा का वातावरण बनाने में सफल हुये। फलस्वरूप जिन बच्चों को चौराहे व नाले से तलाशकर लाया जाता वे स्वयं अभिरुचि के साथ नहाधोकर साफकपडे पहनकर समय से पूर्व कक्षा में उपस्थित होने लगे। मजे की बात ये थी कि अब बच्चों के कुछ अभिभावक भी पढ़ने लिखने को लालायित दिखने लगे।

लगभग 6 माह तक हिमानी के नेतृत्व में हमारी टोली ने कक्षा में अक्षरीय ज्ञान देने के बाद राज व समाज की कुछ जरूरी बातें व शहर के कुछ स्थानों का भृमण भी बच्चों को कराया। ततपश्चात हिमानी व शुक्ला जी ने बच्चों का ऐडमिशन निकट स्कूल में करा दिया जहां सामान्य बच्चों के साथ इन स्पेशल बच्चों ने कदमताल शुरू कर दी।

लगभग 24 घण्टे बाद दूसरे खण्ड को प्रेषित किया जाएगा, कृपया अवश्य पढ़ें।

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