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- जिंदगी के चंद सालों...
जिंदगी के चंद सालों में घर-गाड़ी, मोटा बैंक बैंलेंस और शोहरत की बुलंदियां नहीं मिली तो हम डिप्रेशन में चले जाते हैं क्यों?
आज एक युवा से चलते-चलते मुलाकत हो गई। उम्र यही कोई 25 से 27 साल के बीच होगी, लेकिन चेहरे पर मायूसी-निराशा के भाव साफ झलक रहें थे। मुझसे रहा नहीं गया और पूछ बैठा कि क्या हुआ दोस्त? थकी हुई आंखें से मेरी ओर देखते हुए बोला कि क्या बताऊं, कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा...न अच्छी कंपनी में नौकरी मिल रही न ही आगे मिलने की उम्मीद है! मुझे लगा कि इस बीमारी से मौजूदा समय में तो हम सभी ग्रसित हैं। हम सभी जिंदगी की शुरुआत में चांद पर पहुंचना चाहते हैं। घर-गाड़ी, मोटा बैंक बैंलेंस और शोहरत की बुलंदियों को छूना चाहते हैं। अगर यह जिंदगी के चंद सालों में नहीं मिली तो डिप्रेशन में चले जाते हैं।
मुझे लगा कि इससे कुछ और बात करनी चाहिए। मैंने पूछा कि कभी लोकल ट्रेन की बोगी या बस में चढ़े हो। उसने हां में सर हिलाया और फिर बताया कि शुरुआत में वह कई बार अधिक भीड़ वाले बस को छोड़ देता था। हालांकि, जब काफी इंतजार के बाद भी कोई खाली बस नहीं मिलती तो भीड़ वाले में चढ़ने का प्रयास करता। मैंने उससे कहा कि जिंदगी भी उसी ट्रेन या बस की तरह की है। जब हम चढ़ने जाते हैं तो गेट तक खड़ा आदमी यह कह कर रोक देता है कि इसमें पांव रखने की जगह नहीं है। पीछे से आने वाली में देख लो। इस चक्कर में हम कई लोकल ट्रेन-बस छोड़ देते हैं लेकिन जब लगता है कि अब देर की तो मंजिल पर पहुंचने में देर हो जाएगी। फिर हम किसी तरह चढ़ने का मन बना लेते हैं। उसके बाद आने वाली बस में कितनी भी भीड़ क्यों न हो हम हैंडल पकड़ कर गेट से लटक ही जाते हैं।
गाड़ी आगे चलती है और कुछ दूर निकलती है तो पांव रखने की जगह मिल जाती है। कुछ दूरी और तय करने पर सही से खड़े होने की जगह मिल जाती है। एक वक्त ऐसा भी आता है कि आराम से बैठने की जगह मिल जाती है। मंजिल नजदीक आने पर सोने लायक जगह भी मिल जाती है। हालांकि, तब तक हम उस बस से उतरने की तैयारी शुरू कर देते हैं।
मैंने उससे कहा कि हमारी-तुम्हारी जिंदगी ठीक ऐसी ही हैं। जब हम जीवन की शुरुआत करते हैं तो काफी पेरशानी का सामना करना पड़ता है। बाजार की भीड़ और गलाकाट प्रतिस्पर्धा देखकर लगता है मुझसे कुछ होगा ही नहीं! इस चक्कर में हम मायूस, उदास, हताश और निराश हो जाते हैं। लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए? जिंदगी बिल्कुल उस लोकट ट्रेन की बोगी या बस की तरह है जिसमें भीड़ तब तक है जब तक हम चढ़ते नहीं। जब हम चढ़ जाते हैं तो सफर आगे चलते रास्ते के साथ आसान होता चला जाता है। जब सफर खत्म होने को आता है तो जगह की कोई कमी नहीं होती। यानी हम सफतला के शिखर पर होते हैं। हालांकि, उसके बाद नीचे खुद से आ जाते हैं। यही जिंदगी का चक्र है जो लगातार अपनी गति से चलता रहता है।
आलोक कुमार