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सुरंग नहीं भीड़ नियंत्रण की जरुरत है मसूरी को

सुरंग नहीं भीड़ नियंत्रण की जरुरत है मसूरी को
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मसूरी को बख्स दीजिये साहब!

कोरोना बंधन में थोड़ी छूट क्या मिली बीते शनिवार-रविवार को देहरादून से मसूरी जाने वाले रास्ते में कोई दस किलोमीटर लंबा जाम लग गया . मौजमस्ती के लिए गए लोग सारा दिन सड़क पर वाहनों का धुआं फैलाते रहे और खुद भी उसमें घुटते रहे . पिछले ही दिनों मसूरी में सडक जाम से बचने के लिए 2.74 किलोमीटर के लिए लंबी सुरंग के लिए 700 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए गए हैं. गंभीरता से देखें तो मसूरी अब बाहरी लोगों का इतना बोझ उठाने की क्षमता खो चुकी है, सरकार की ही रिपोर्ट यह बता चुकी है . इसके बावजूद इस तरह के परियोजनाएं ना केवल निर्माण में बल्कि भीड़ बढाने का कारक बनेगीं और इससे पहाड़ों की रानी कहलाने वाले मसूरी में विकास के नाम पर बन रही योजना , वह कई मायनों पहाड़ के लिए आफतों का न्योता भी है .

वैसे तो सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में बता दिया था कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता चुक चुकी है. इसके बावजूद मसूरी में सडक जाम से बचने के लिए 2.74 किलोमीटर के लिए लंबी सुरंग के लिए 700 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए गए हैं, दूसरी तरफ राज्य के वन विभाग से ले कर सार्वजनिक निर्माण विभाग तक तो इसकी कोई जानकारी ही नहीं है . मसूरी की आबादी मात्र तीस हज़ार है और इनमें भी आठ हज़ार लोग ऐसे मकानों में रहते हैं जहां भूस्खलन का ख़तरा है, इतने छोटे से स्थान पर हर साल कोई पचास लाख लोगों का पहुंचना पानी, बिजली, सीवर सभी पर अत्यधिक बोझ का कारक है , ऐसे में सुरंग बना कर अधिक पर्यटक भेजने की कल्पना वास्तव में मसूरी की बर्बादी का दस्तावेज होगा . मॉल रोड, मसूरी शहर और लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी की ओर निर्बाध यातायात के इरादे से प्रस्तावित सुरंग कहीं समूचे पहाड़ के पर्यावरणीय चक्र के लिए खतरा न बन जाए.वैसे मसूरी के लिए सुरंग बनाए के प्रयास पहले भी होते रहे हैं, यहाँ तक कि अंग्रेज शासन में वहाँ ट्रेन लाने के लिए जब सुरंग की बात आई तो जन विरोध के चलते उस काम को रोकना पड़ा था और आधी अधूरी पटरियां पड़ीं रह गयी थीं .

हिमालय, भारत के लिए महज एक भोगोलिक संरचना नहीं है, इसे देश की जीवन रेखा खा जाना चाहिए-- नदियों का जल हो या मानसून की गति-- सब कुछ हिमालय के पहाड़ तय करते हैं .भले ही यह कोई सात करोड साल पुराना हो लेकिन दुनिया में यह युवा पहाड़ है और इसमें लगातार आंतरिक गतिविधियां चलती रहती हैं . केदारनाथ त्रासदी से सबक न लेते हुए उत्तराखंड के हिमालय पर बेशुमार सड़कों का जो दौर शुरू हुआ है उससे आये रोज, मलवा खिसकने, जंगल गायब होने जैसी त्रासदियाँ उपज रही हैं . खासकर जलवायु परिवर्तन की मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं -देश को सदानीरा गंगा-यमुना जैसे नदिया देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं। ऐसे में बगैर किसी आकलन के महज यातायात के लिए हिमालय की छाती खोदना किसी अनिष्टकारी त्रासदी का आमंत्रण प्रतीत होता है .

मसूरी के वन विभाग को इस परियोजना की कोई जानकारी ही नहीं है न ही उनसे इस परियोजना के पर्यावरणीय नुक्सान पर कोई आकलन माँगा गया है . यह एक ऐसे पहाड़ और वहाँ के वाशिंदों को खतरे में धकेलने जैसा है जिसे जोन-4 स्तर का अति भूकंपीय संवेदनशील इलाका कहा जाता हो . जाहिर है कि इसके लिए पेड़ भी काटेंगे और हज़ारों जीवों के प्राकृतिक पर्यावास पर भी डाका डाला जायेगा .

यह बात कई सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि मसूरी के आसपास का इलाका भूस्खलन के मामले ने बहुत संवेदनशील है , यहाँ कि भूगर्भ संरचना में छेद करना या कोई निर्माण करना कहीं बड़े स्तर पर पहाड़ का मलवा न गिरा दे . हिमालय के सम्वेदना से परिचित पर्यावरणविद मसूरी में सुरंग बनने को आत्म हत्या निरुपित कर रहे हैं क्योंकि मसूरी के पास पहाड़ में बहुत बड़ी दरारें पहले से हैं , ऐसे में यदि वहाँ भारी मशीनों से ड्रिलिंग हुई तो परिणाम कितने भयावह होंगे? कोई नहीं कह सकता .

इससे पहले सन 2014 में लोक निर्माण विभाग ने बाईपास पर चार सुरंग बनाने का प्रस्ताव तैयार किया था, जिसमें कार्ट मैकेंजी रोड से कैंपटी फॉल तक सुरंग बनाने की योजना थी . लोंबार्डी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने जांच भी की थी लेकिन पर्यावरणीय कारणों से उस परियोजना को शुरू नहीं किया जा सका था

ब्रितानी सरकार के दौर में हिंदुस्तान के कुछ राजे-रजवाड़ों ने वर्ष 1928 में अंग्रेजों के साथ मिलकर मसूरी-देहरा ट्रॉम-वे कंपनी बनाई थी। इस कंपनी ने 23 लाख रुपये की लागत से मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया था। वर्ष 1924 में एक सुरंग बनाते समय हाद्स्सा हो गया-- फिर स्थानीय किसानों को लगा कि रेल की पटरी से उनके बासमती के खेत और घने जंगल उजाड जायेंगे , बड़ा आंदोलन हुआ और उस परियोजना को अंग्रेजों ने रोक दिया था .

इतने पुराने कटु अनुभवों के बाद भी सन 2020 में ही राज्य सरकार ने गुपचुप सुरंग की योजना पर काम करना शुरू कर दिया था, कोविड की पहली लहर के दौरान जब सारे देश में काम-काज बंद थे तब इस योजना की कागज तैयार कर लिए गए लेकिन स्थानीय प्रशासन की जानकारी के बगैर. .उत्तराखंड में हिमालय की हर गतिविधि के गहन शोधरत संस्था वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक और भूस्खलन विशेषज्ञ डॉ. विक्रम गुप्ता का कह्ना है कि जमीन खिसकने के प्रति अति संवेदनशील मसूरी और उसके करीबी पहाड़ों में बगैर किसी जांच पड़ताल के इस तरह की योजना, वह भी बगैर किसी भूगर्भीय पड़ताल के, , बेहद चौंकाने वाली है . श्री गुप्ता बताते हैं कि देहरादून- मसूरी के इलाके में चूने की चट्टाने हैं जो सदियों से पानी को अवशोषित करती हैं और इन चट्टानों की पानी को ग्रहण करने की अपनी क्षमता होती है। ये चट्टाने कभी भी खिसकने लगती हैं और भूस्खलन की घटनाएं घट जाती हैं। इस लिहाज से तमाम पहलुओं को पहले अध्ययन किए जाने के बाद ही सुरंग पर काम हो . एक मोटा अनुमान है कि यदि यह योजना मूर्तरूप लेती है कि कोई तीन हजार ओक , देवदार जैसे ऐसे पेड़ काटेंगे जिनकी उम्र कई दशक है और जो नैसर्गिक जंगल का हिस्सा हैं .

यह समझना होगा कि मसूरी से थोड़ी भी पर्यावरणीय छेड़छाड़ बन्दर पूछ ग्लेशियर पर असर करेगी और यह अकेले उत्तरांचल ही नहीं देश के लिए भयावह होगा . उत्तरांचल के पहाड़ की नाराजगी का अर्थ होता है सारे देश के पर्यावरणीय तन्त्र पर कुप्रभाव .

पंकज चतुर्वेदी

पंकज चतुर्वेदी

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