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तीन दशक पहले चल रही इस प्रथा से अब लोग अनभिज्ञ क्यों, देखिये वीडियो
संतोष सिंह
कोई तीन दशक पहले तक राजपूत के बेटे की शादी में बारात निकलने से पहले एक खास तरह की तैयारी होती थी और उस तैयारी पर बरात के सबसे जिम्मेदार व्यक्ति की खास नजर रहती थी।कालीन ,मसलद ,इत्रदान ,गुलाब खास , पनबट्टा ,ट्रे के साथ साथ कई तरह के फल और ड्राई फ्रूट्स की विशेष तौर पर खरीदारी होती है। कालीन,इत्रदान ,गुलाब खास, पनबट्टा और कई तरह का ट्रे सभी चांदी से निर्मित होते थे ये सारी सामग्री इलाके के किस बाबू साहेब के पास बढ़िया है सबको पता रहता था और जैसे ही शादी ठीक होता था। सबको निमंत्रण के साथ सूचित कर दिया जाता था कि बेटे की शादी है आपके सहयोग की जरूरत है। जिनके पास इस तरह का सामान हुआ करता था वो शादी से दो तीन दिन पहले उसका अच्छे से सफाई करा कर शादी के एक दिन पहले मखमली कपड़े में सजा कर लड़के वाले के यहां भिजवा दिया करते थे।
ये सारी तैयारी मुजरा की महफिल राजशाही दिखे इसके लिए की जाती है इतना ही नहीं इलाके में एक दो लोग होते थे जिन्हें पता रहता था कि चतुर्भुजस्थान (मुजफ्फरपुर)या सोना गाछी (कोलकाता) की कौन सी तवायफ है जो अच्छा मुजरा गाती है ,उन्हें लड़के वाले विशेष तौर पर आमंत्रित करते थे ।
इन तमाम तैयारी में लड़के वाले के घर की महिलाएं भी शामिल रहती थी और कुछ छूटे नहीं इसका खास ख्याल रखती थी।
शादी की रात तवायफ की नाच में लड़के के परिवार वाले शामिल नहीं होते थे और कहां जाता था कि आज लड़की के गांव वाले के लिए नाच हो रहा है ,लेकिन शादी के कल होकर जिसे मरजाद कहां जाता था उस दिन खास तरह के नाच का आयोजन होता था एक तरफ लड़की वालो के यहाँ बकरा बनता रहता था दूसरा जहां बारात ठहरता था जिसे जनवासा कहां जाता था वहां दोपहर में खास तरह का महफिल सजता था इस महफिल में तवायफ पूरी तौर पर परम्परागत ड्रेस में आती थी और एक से एक मुजरा गाती थी उस महफिल में दूल्हा राजा भी बैठते थे।
इतना ही नही बाबा से लेकर पोता तक दमाद बाबू सब साथ बैठ कर मुजरा देखते थे मुझे आज भी दो शादी का कुछ कुछ याद है तबला ,ढोलक और हारमोनियम यही तीन चार वाद्ययंत्र हुआ करता था ,जुगलबंदी के साथ कार्यक्रम की शुरुआत होती थी और उस दौरान तवायफ की घुँघरू के साथ तबला ,ढोलक और हारमोनियम बजाने वाले का हाथ चलता था तवायफ की पैर में बंधी घुँघरु भी संगीत के लय के अनुसार थिरकती थी । गीत शुरु होने से पहले आधे घंटे तक यह जुगलबंदी चलता था इसी में पता चल जाता था कि जो तवायफ आयी वो संगीत की साधना में कितना निपुण है जहां तक मुझे याद है मामा की शादी में मुजफ्फरपुर से तवायफ आयी थी कोई चर्चित रही होगी वो एक गाना गायी थी पहली बार सूने थे और वह गीत मुझे इतना भाया कि आज भी जब मौका मिलता है सुन लेते है जी हैं वह गीत था Movie- दाग (1973),Music लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल,Lyrics By: साहिर लुधियानवी और लता मंगेशकर गायी हैं ,
जब भी जी चाहे, नई दुनिया बसा लेते हैं लोगएक चेहरे पे कई चेहरे, लगा लेते हैं लोग ।
क्या गायी थी वो पूरा महफिल शांत होकर उसके उस गीत को सुनता रहा इसी तरह के क्लासिकल संगीत का फरमाइस हुआ करता था ऐसे ही क्लासिकल संगीत से सराबोर रहता था वह महफिल ।
दो तीन वर्ष बाद मेरे दूसरे मामा जी के लड़के के शादी में एक बार फिर वही नर्तकी आयी थी दोपहर का कार्यक्रम चल रहा था गाना शुरू था मेरे जेहन में वो गाना इस कदर बस गया था कि मैं तवायफ को उसी गाने का फरमाइश कर दिया वो थोडा संकोच करने लगी ना ना वो गाना मैं नहीं गाती और मैं कहां रहा था आप ही गायी थी ,
तभी वो अपने टीम की ओर इशारा किया और वो भागा भागा गया और एक खूबसूरत डायरी लेकर आया और फिर वो डायरी पलटी और गाना शुरू की मामा जी का आदेश हुआ भगिना का फरमाइश है ऐगेन रिपीट और वो पूरे कार्यक्रम के दौरान तीन बार गायी , मामा जी से पैसा दिये भगिना दीजिए इनको ।
वो क्या दौर था उसकी आप लाख आलोचना कर ले लेकिन इस तरह के कार्यक्रम से संगीत की गहराई और तवायफ ही सही लेकिन उसको देख कर एक तहजीव की समझ तो पुरुषों में जरुर बनता था।
वर्षो बाद सोशल मीडिया पर पोस्ट के साथ जो वीडियो लगा है देखने को मिला पिछले तीन दिनों में कितनी बार देखे हैं कह नहीं सकते हर बार मुजरा और तबला का वो कहरवा ताल जो अब बीते दिनों की बात हो गयी।
कहां कही सुनने को मिलता है क्या क्लास है साड़ी और घूँघट में आज जो कहर ढाह सकती है दुनिया में कोई दूसरा ड्रेस नहीं है जो इस तरह कहर ढाह सके।