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- क्यों खास है इस बार का...
संजय कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार : महाराष्ट्र में भाजपा और नरेन्द्र मोदी की राजनीति की बड़ी छीछालेदर हुई है। उद्धव ठाकरे की शालीनता के कारण इसमें सुप्रीम कोर्ट और विधानसभा अध्यक्ष के असामान्य और अस्वाभाविक फैसलों की भी पोल खुली है और दलबदल करने वालों को उपचुनाव से बचा ले जाने वाली व्यवस्था भी दांव पर है। ऐसे में बंटेंगे तो कटेंगे और एक हैं तो सेफ हैं की राजनीति भी वहां नहीं चली। हालांकि, महाराष्ट्र में हिन्दी पट्टी की राजनीति करने की भाजपाई कोशिश भी उसकी कमजोरी ही है। ऐसे में चुनाव नतीजे का अनुमान लगाना ज्यादा ही मुश्किल है खासकर इसलिए की भाजपा (और दूसरे दलों) के उम्मीदवार चुनाव कम लड़ रहे हैं वोटकटवा की भूमिका में ज्यादा हैं। आइये, देखें कि 2019 के पिछले विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में क्या सब हुआ है।
2019 के चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन था। भाजपा को 105 और शिव सेना को 56 सीटें मिलीं और दोनों मिलकर सरकार बना सकते थे। लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर भाजपा-शिवसेना में विवाद हो गया और उद्धव ठाकरे अपनी शिवसेना के साथ एनडीए से अलग हो गये। तब भाजपा ने अजित पवार के साथ मिलकर सरकार बनाने की डील की और सुबह-सुबह का शपथग्रहण हो गया। यह सरकार कुछ ही दिन चली क्योंकि अजीत पवार पलट गये। इस बीच उनके खिलाफ मुकदमे वापस हुए और भाजपा वाशिंग मशीन के मोड में आ गई उसकी भी कहानी है पर उसे अभी रहने देते हैं। हाल में अजीत पवार ने खुलासा किया कि सरकार बनाने वाली बैठक में अदाणी और शरद पवार भी थे और शरद पवार ने कहा कि बैठक अदाणी के बुलावे पर, उनके घर में हुई पर अदाणी उसमें शामिल नहीं थे। जो भी हो, महाराष्ट्र में सरकार बनाने में अदाणी की भूमिका थी और स्वीकार भी की जा रही है। कम ज्यादा को छोड़िये। महाराष्ट्र सरकार, धारावी परियोजना और उसमें अदाणी - सब बड़े भ्रष्टाचार का मामला लगता है लेकिन अभी उसे भी रहने देते हैं।
उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार, उसके लिए उनका विधानसभा का सदस्य होना और विधानपरिषद चुनाव से संबंधित मामले भी भाजपा की समग्र राजनीति के भाग है पर उसे भी रहने देते हैं वरना कहानी बहुत लंबी हो जायेगी। किसी तरह विधान परिषद सदस्य बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उद्धव ठाकरे स्थिर हुए तो जून 2022 में शिवसेना में बगावत हुई और उद्धव मुख्यमंत्री नहीं रहे। इससे पहले संविधान की व्यवस्था के अनुसार ठाकरे समूह ने बागी सदस्यों के खिलाफ अयोग्यता कार्रवाई शुरू की। यह पार्टी हित का मामला था और दलबदल की ओर जाता दिख रहा था। विधानसभा की इस कार्रवाई को एकनाथ शिन्दे ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट ने अस्वाभाविक आदेश जारी कर बागियों को अयोग्यता नोटिस जारी का जवाब देने के लिए 12 दिन का समय दिया।
दूसरी ओर, शिन्दे समूह ने राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से कहा कि वे सरकार का समर्थन नहीं करते हैं। राज्यपाल ने विधानसभा में विश्वास मत कराने का आदेश दिया। ठाकरे समूह ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती क्योंकि बागी विधायकों की सदस्यता के मामले पर फैसला होना था। स्पष्ट है कि वे जिस दल के टिकट पर चुने गये थे उसके नेता या उसकी सरकार से अलग होना चाहते थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस कार्रवाई से बचने के लिए बागी विधायकों का साथ दिया और विधानसभा में बहुमत की जांच तब तक टालने की मांग नहीं मानी। अदालत ने कहा कि सदन में जो फैसला हो वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लागू होगा। ऐसे में उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा दे दिया और विधानसभा में बहुमत का परीक्षण नहीं हुआ। अगर होता और वे हार जाते तो फैसला सुप्रीम कोर्ट के हाथ में रहता और जीत जाते तब भी रहता। जाहिर है यह विचित्र स्थिति होती खासकर हारने के बाद। और मामला राजनीतिक नहीं कानूनी हो जाता।
अब इस मामले में चुनाव आयोग की एंट्री हुई। चुनाव आयोग ने शिवसेना नाम और उसका चुनाव चिन्ह तीर धनुष शिन्दे गुट को दे दिया। इसके खिलाफ उद्धव ठाकरे ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की और चुनाव आयोग के फैसले पर स्टे लगाने की मांग की। उद्धव ठाकरे ने यह आरोप भी लगाया कि नरेन्द्र मोदी सुप्रीम कोर्ट पर दबाव डाल रहे हैं कि शिव सेना का नाम और चुनाव चिन्ह उद्धव बाल ठाकरे समूह को नहीं दिया जाये। सुप्रीम कोर्ट ने इस मई तक चुनाव आयोग के आदेश को स्टे नहीं किया था। उसे अदालत से कोई राहत नहीं मिली। आपने सुना होगा कि चुनाव के इतने करीब सुप्रीम कोर्ट ने अजीत पवार के नेतृत्व वाले एनसीपी को आदेश दिया कि वे शरद पवार की तस्वीर और वीडियो का उपयोग नहीं करें और अपनी पहचान तलाशें (बनाएं)। खबरों के अनुसार अदालत ने दोनों पक्षों से कहा कि वे ऐसा कुछ करने से बचें जिससे मतदाताओं के मन में भ्रम पैदा हो। इस तरह मोदी राज में वंशवाद नहीं चला और जो जीता वही सिकंदर साबित हो गया।
अदालत में ठाकरे पक्ष का कहना था कि शिन्दे समूह का काम दल बदल जैसा है और इसलिए सरकार का समर्थन नहीं करने वालों की सदस्यता खत्म होनी चाहिये। यह सब तब हुआ जब दल बदल मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी थी। उद्धव समूह ने मांग की कि इस मामले की सुनवाई सात जजों की पीठ के समक्ष हो पर उसे भी नहीं माना गया। बाद के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानसभा में बहुमत परीक्षण के लिए कहकर राज्यपाल ने गलती की। उनके पास पार्टी में टूट को स्वीकार करने का कोई विश्वसनीय आधार नहीं था। शिन्दे समूह ने भी कहा था कि वे उद्धव सरकार से असंतुष्ट हैं न कि उन्होंने पार्टी छोड़ दी है। आपने पढ़ा होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने बाद में कहा था कि उसके पास इस्तीफे को पलटने का कोई अधिकार नहीं है और अगर विधानसभा में शक्ति परीक्षण में हारने के बाद हटाया गया होता तो वह उन्हें उनके पद पर फिर से बहाल कर सकता था लेकिन स्वैच्छिक इस्तीफे का बाद वे यथास्थिति को बदलने के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं।
यहां यह दिलचस्प है कि विधानसभा अध्यक्ष ने सदस्यता के मामले में कार्रवाई नहीं की और अब अगर समर्थन बदलने वालों की सदस्यता चली भी जाती तो शिन्दे गुट जनादेश के बिना, दल बदल कानून के बावजूद कई महीने सत्ता का सुख भोग चुका था। हालांकि, विधानसभा अध्यक्ष ने उनकी सदस्यता फिर भी खत्म नहीं की। उल्लेखनीय है कि ऐसा ही कर्नाटक में हुआ था पर वहां दल बदलने वाले करीब 20 विधायकों को फिर से चुनाव लड़ना पड़ा था। बाद के चुनाव में भाजपा हार गई और वहां कांग्रेस की सरकार है। अब देखना है कि महाराष्ट्र में क्या होता है। इसमें यह भी याद रखने वाली बात है कि महाराष्ट्र में जब भाजपा की यह राजनीति चल रही थी तो राज्यपाल को न सिर्फ आधी रात में जगाकर शपथग्रहण कराने के लिए कहा गया बल्कि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने के बावजूद विधानसभा में शक्ति परीक्षण के आदेश का सामना करने की बजाय इस्तीफा देकर उद्धव ठाकरे ने बहुत बड़ी लाइन खींच दी थी। तथ्य यह है कि राज्यपाल ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया और पद पर चार साल भी नहीं रहे।
राज्यपाल के पद छोड़ने का कारण महाराष्ट्र की राजनीति हो या नहीं गणेश चतुर्थी पर मुख्य न्यायाधीश के घर जाकर पूजा करके और उसका वीडियो सार्वजनिक करके प्रधानमंत्री ने फिर महाराष्ट्र की राजनीति की और यह इतना असामान्य था कि तबके न्यायाधीश को यह चिन्ता हो गई कि इतिहास उनके कार्यकाल को कैसे याद करेगा। संयोग से यह राजनीति उस प्रदेश की है जिसकी राजधानी मुंबई को देश की आर्थिक राजधानी कहा जाता है और प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार दूर करने के नाम पर सत्ता में आये थे तथा ना खाउंगा, ना खाने दूंगा की गैर जरूरी घोषणा की थी। विधायकों ने समर्थन क्यों बदला और उनकी राजनीति कैसे कामयाब हुई और जनादेश के बिना विधायक दल के कुछ ही सदस्यों का सत्ता में रहना ऐसा मामला तो है ही कि देश के मुख्य न्यायाधीश को अपने कार्यकाल के इतिहास की चिन्ता सताये।