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Mausam Ki Jankaari: मौसम पूर्वानुमान आज से दस हजार वर्ष पहले तक का जानने की विधि

Shiv Kumar Mishra
7 Nov 2021 4:21 AM GMT
Mausam Ki Jankaari: मौसम पूर्वानुमान आज से दस हजार वर्ष पहले तक का जानने की विधि
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Mausam Ki Jankaari: कोरोना महामारी के विषय में वैज्ञानिकों ने कभी कुछ बताया ही नहीं और जब जब जो जो अनुमान या पूर्वानुमान बताए वे सभी गलत निकलते चले गए इसके बाद भी तीसरी लहर की अफवाह फैलाने से वे बाज नहीं आए जिसका कि कोई वैज्ञानिक आधार ही नहीं था |

Dr. Shesh Narayan Vajpayee

Mausam Ki Jankaari: प्राकृतिक विषयों में वैज्ञानिकों का यह ढुलमुल रवैया अत्यंत चिंताजनक है | महामारी हो या मौसम किसी क्षेत्र में वैज्ञानिकों की कोई सार्थक भूमिका ही नहीं दिखाई पड़ रही है | प्राकृतिक आपदा आने से पहले वे उसके विषय में कुछ भी बता पाने में कभी सफल नहीं हुए हैं प्राकृतिक आपदाएँ जब बीत जाती हैं तब वही वैज्ञानिक पहले तो लीपापोती करनी शुरू करते हैं और बाद में वही लोग महामारी या मौसम से संबंधित प्राकृतिक आपदाओं के विषय में भविष्य को लेकर तरह तरह की डरावनी अफवाहें फैलाने लगते हैं |जिन मौसम संबंधी अनुसंधानों के भारत सरकार पानी की तरह पैसा बहाती है वे अपने मौसम संबंधी पूर्वानुमान बताकर जनता का विश्वास जीतने में तो कभी सफल हो ही नहीं सके | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी को 28 जून एवं 16 जुलाई 2015 को बनारस में आयोजित दो रैलियाँ मौसम के कारण ही कैंसिल करनी पड़ीं थीं जिनकी तैयारियों पर करोड़ों रूपए खर्च हुए थे | ऐसे अनुसंधानों में यदि इतनी भी क्षमता नहीं है कि वे प्रधान मंत्री जी को भी अपने पूर्वानुमानों से मदद पहुँचा सकें जनता उनसे क्या आशा करे ?

इस प्रकार से जो लोग एक दो सप्ताह पहले के मौसम संबंधी पूर्वानुमान सही सही नहीं बता पाते हैं वही जलवायु

परिवर्तन के नाम पर इतनी लंबी लंबी फेंकते हैं कि आज के सौ दो सौ साल बाद कितना सूखा पड़ेगा कितनी वर्षा होगी बाढ़ आएगी ग्लेशियर पिघल जाएँगे समुद्र कुछ नगरों को डुबा लेगा | कुल मिलाकर वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर अफवाहें फैलाने में इनकी बराबरी नहीं की जा सकती है | झूठ बोलना हो तो कितनी भी लंबी लंबी फेंकने को केवल इसलिए तैयार हैं कि तब तक हम तो रहेंगे नहीं |

सच्चाई ये है कि मानसून आने जाने से संबंधित इनकी कोई भविष्यवाणी कभी सही नहीं निकली अब तारीखों में परिवर्तन करके थोड़ा समय इस बहाने काट लिया जाएगा | 2018 मई जून में आने वाले पूर्वोत्तर भारत के हिंसक आँधी तूफानों के विषय में कभी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकी किंतु उन्हीं मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा 8 मई 2018 को भीषण आँधी तूफ़ान आने की भविष्यवाणी की गई भविष्यवाणी से भयभीत सरकारों ने दिल्ली के आसपास के स्कूल कालेज बंद कर दिए जबकि हवा का एक झोंका भी नहीं आया | अगस्त 2018 में केरल में भीषण बाढ़ आई जिसके विषय में कभी कोई पूर्वानुमान नहीं बताया जा सका था | किसी भूकंप के आने के पहले उसके विषय में कभी कोई भविष्यवाणी नहीं की गई होती है किंतु एक बार आ जाने के बाद रोज कोई न कोई भूकंप संबंधित भविष्यवाणी कर दी जाया करती है | वैज्ञानिकों की ऐसी अफवाहों से जनता परेशान होती है |

वायु प्रदूषण के विषय में पूर्वानुमान लगाना तो दूर आज तक यही नहीं बताया जा सका कि वायु प्रदूषण बढ़ने का वास्तविक कारण क्या है ? दीपावली के पटाखों को वायु प्रदुषण बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताने वाले यह नहीं सोचते कि चीन में तो दीवाली नहीं मनती वहां क्यों बढ़ा हुआ है वायु प्रदूषण !महामारी संक्रमण बढ़ने के लिए जो वैज्ञानिक लोग वायु प्रदूषण को जिम्मेदार बताते हैं वे ये क्यों नहीं सोचते कि जिन देशों प्रदेशों में वायु प्रदूषण नहीं बढ़ता है | वहाँ कोरोना संक्रमण क्यों बढ़ता है ? जो लोग कोरोना नियमों का पालन न करने वाली भीड़ों को कोरोना संक्रमण बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताते हैं वे दिल्ली में किसानों का आंदोलन ,महानगरों से मजदूरों का पलायन बिहार बंगाल की चुनावी भीड़ें एवं हरिद्वार कुंभ की भीड़ आखिर वे क्यों भूल जाते हैं | जो लोग वैक्सीन लगाने से कोरोना संक्रमण नियंत्रित होने की बात पर विश्वास करते हैं उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि केरल जैसे राज्य जहाँ वायु प्रदूषण सबसे कम रहता है वैक्सीनेशन में भी सबसे आगे रहा इसके बाद भी सबसे अधिक कोरोना संक्रमितों की संख्या वहीँ रही | अमेरिका जैसे देशों में और दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में चिकित्सा की सर्वोत्तम व्यवस्थाएँ होने के बाद भी कोरोना संक्रमण सबसे अधिक यहीं बढ़ा | जो संपन्न वर्ग जितने अधिक कोरोना नियमों का पालन करता रहा कोरोना से सबसे अधिक वही वर्ग संक्रमित हुआ है |

कोरोना महामारी के विषय में वैज्ञानिकों ने कभी कुछ बताया ही नहीं और जब जब जो जो अनुमान या पूर्वानुमान बताए वे सभी गलत निकलते चले गए इसके बाद भी तीसरी लहर की अफवाह फैलाने से वे बाज नहीं आए जिसका कि कोई वैज्ञानिक आधार ही नहीं था | सारी दुनियाँ देख रही है कि कोरोना महामारी में वैज्ञानिकों की ऐसी कोई सार्थक भूमिका दूर दूर तक नहीं दिखाई पड़ी है जिससे प्राकृतिक आपदाओं के समय समाज को कभी कोई मदद मिल सकी हो | कोरोना महामारी के समय जनता आपदा से अकेली जूझती रही | अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों अनुभवों से कुछ अफवाहों के अतिरिक्त और जनता को क्या मदद पहुँचाई जा सकी |

कुल मिलाकर मौसम एवं महामारी के विषय में जिस आधुनिक विज्ञान संबंधी अनुसंधानों पर सरकारें पानी की तरह पैसा बहाती हैं उस विज्ञान में यह क्षमता ही नहीं है कि उसके द्वारा ऐसे विषयों में कोई सार्थक अनुसंधान किया जा सके |ऐसे यदि करना संभव होता ही तो कर न लिया गया होता| आखिर वैज्ञानिकों को किसने रोका था कि महामारी के विषय में आप कोई अनुसंधान न करना !यदि उन्होंने किया तो क्या किया सरकारों को उनसे पूछना तो चाहिए |ऐसे अनुसंधानों पर जो धन खर्च किया जाता है वो जनता के द्वारा टैक्स रूप में अपनी सरकारों को दिया गया धन होता है | जिसके बदले जनता को कुछ नहीं मिलता है फिर भी वैज्ञानिकों का गुणगान करना सरकारों की अपनी मजबूरी है|सरकारों से मीडिया को विज्ञापन मिलते हैं इसलिए मीडिया उन झूठी भविष्यवाणियों को भी सच की तरह परोसता रहता है | ये इस युग में समाज का सबसे दुर्भाग्य है |

ऐसी परिस्थिति में समयविज्ञान अत्यंत प्राचीन ऐसी वैज्ञानिकप्रक्रिया है जिसमें गणितीय सूत्रों के द्वारा लाखों वर्ष पहले का भी मौसम संबंधी पूर्वनुमान बिल्कुल उसीतरह लगाया जा सकता है जैसे गणित के द्वारा सूर्य और चंद्र ग्रहणों के विषय में हजारों वर्ष पहले पूर्वनुमान लगा लिया जाता है जो एक एक सेकेंड सही घटित होता है |

गणित के सूत्रों के द्वारा लगाए गए पूर्वानुमान की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसमें किसी उपग्रह या राडार की मदद नहीं ली जाती है इसीलिए जब उपग्रहों राडारों आदि आधुनिक विज्ञान का जन्म ही नहीं हुआ था तब भी समयविज्ञान के द्वारा सफलता पूर्वक मौसम पूर्वानुमान लगा लिया जाया करता था और वह सही एवं सटीक घटित होते देखा जाता था | आज भी वो पद्धति उतनी ही प्रासंगिक बनी हुई है |

समय वैज्ञानिक प्रक्रिया के द्वारा प्रत्येक महीने लगाया जाने वाला यह मौसम पूर्वानुमान बिल्कुल सही निकलता है | इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि समय विज्ञान के द्वारा लगाए जाने वाले मौसम पूर्वानुमान जितने प्रतिशत एक महीने पहले वाले सही निकलेंगे उतने ही प्रतिशत वे मौसम पूर्वानुमान भी सही निकलेंगे जो समय विज्ञान के द्वारा लगाए एक वर्ष पहले ,एक हजार वर्ष पहले , एक लाखवर्ष पहले या एक करोड़ वर्ष पहले भी लगाए जाएँगे | ये बहुत बड़ी उपलब्धि है | इस दृष्टि से नवंबर 2021 महीने के मौसम पूर्वानुमानों का आप स्वयं परीक्षण कीजिए - वैदिक मौसम पूर्वानुमान :नवंबर 2021

जिस प्रकार से किसी नव निर्मित घर में बिजली की वायरिंग करवाई जाती है वो पूरे घर की दीवारों के अंदर छिपी होती है उसी से घर के समस्त बिजली के उपकरण जुड़े होते हैं | घर के बाहर उनका ऐसा कोई एक कनेक्शन होता है जिसमें बिजली का तार जुड़ जाने से घर के अंदर के सारे उपकरण स्वयं चलने लगते हैं | इसी प्रकार से गणितीय अनुसंधान प्रक्रिया में सबसे कठिन प्राकृतिक घटनाओं के साथ समय वैज्ञानिक सूत्रों का संबंध खोजना होता है एक बार सूत्रों के साथ के संबंधों को खोज लेने के बाद मौसम और महमारी से संबंधित समस्त प्राकृतिक घटनाओं का रहस्य स्वयं उद्घाटित होता जाता है और उन घटनाओं के घटित होने का कारण भी पता लगा लिया जाता है |

प्रकृति समय के द्वारा अनुशासित है | समय जब जैसा आता है ब्रह्मांड में तब तैसी घटनाएँ घटित होने लगती हैं सूर्य चंद्र समेत समस्त ग्रहनक्षत्र उसी समय के अनुशासन से अनुशासित हैं धरती की गहराई से लेकर आकाश की उँचाई तक सब कुछ समय से ही अनुशासित है |

समय के अनुशासन का पालन प्रकृति अत्यंत दृढ़ता से किया करती है यही कारण है कि सूर्य चंद्र आदि ग्रह अपने अपने निश्चित समय से उदित या अस्त हुआ करते हैं | सर्दी गर्मी वर्षा आदि प्रमुख ऋतुएँ प्रतिवर्ष अपने अपने समय से आती और और समय से जाती रहती हैं | उसी निर्धारित समय पर सर्दी गर्मी वर्षा आदि होते देखी जाती है |

कुलमिलाकर प्रकृति पर समय का ही अनुशासन चला करता है इसीलिए सबकुछ निश्चित समय पर एक ही प्रकार से घटित होता है | अमावस्या पूर्णिमा जैसी तिथियाँ निश्चित समय पर आती जाती हैं | सूर्यचंद्र ग्रहण जैसी घटनाएँ अमावस्या और पूर्णिमा में ही घटित होती हैं | यद्यपि अमावस्या और पूर्णिमा जैसी घटनाएँ तो प्रत्येक महीने में ही घटित होती हैं किंतु सूर्यचंद्र ग्रहण जैसी घटनाएँ प्रत्येक अमावस्या पूर्णिमा में नहीं घटित होती हैं अर्थात किसी में होती हैं और किसी में नहीं होती हैं |

ऐसी जटिल घटनाओं को भी गणितीय सूत्रों के द्वारा न केवल समझने में सफलता पा ली गई है अपितु ऐसी घटनाओं के विषय में हजारों वर्ष पहले लगाया गया पूर्वानुमान एक एक सेकेंड सही घटित होता है |

जिस प्रकार से अमावस्या और पूर्णिमा जैसी घटनाएँ प्रत्येक महीने में घटित होने के बाद भी सूर्यचंद्र ग्रहण जैसी घटनाएँ तो प्रत्येक अमावस्या पूर्णिमा में नहीं घटित होती हैं उसी प्रकार से प्रकृति से संबंधित सभी प्रकार की घटनाओं में होते देखा जाता है | सर्दी गर्मी वर्षा आदि ऋतुएँ प्रत्येक वर्ष में आती है और अपने अपने समय तक रहकर चली जाती हैं किंतु अपनी अपनी ऋतुओं में भी इनका प्रभाव हर वर्ष एक जैसा नहीं रहता | वर्षा ऋतु में किसी वर्ष बहुत अधिक वर्षा होती है किसी वर्ष बहुत कम होती है या सूखा पड़ जाता है | ऐसे ही वर्षा ऋतु के प्रत्येक दिन में एक जैसी वर्षा नहीं होती है किसी दिन कम तो किसी दिन अधिक तो किसी दिन बिल्कुल नहीं होती है | ऐसी परिस्थिति प्रत्येक ऋतु के प्रभाव में होने वाली न्यूनाधिकता के रूप में देखी जाती है |

ऐसी घटनाएँ आधुनिक वैज्ञानिकों के उपग्रहों रडारों पर नहीं दिखाई पड़तीं इसलिए इनके घटित होने का कारण जलवायु परिवर्तन बताकर इनके विषय में हाथ खड़ा कर देना उनकी मजबूरी हो सकती है किंतु गणितीय सूत्रों से यदि ग्रहण जैसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है तो ऋतुओं में देखे जाने वाले न्यूनाधिक प्रभाव के विषय में भी लगाया जा सकता है | आखिर ग्रहण जैसी घटनाएँ भी तो प्रत्येक अमावस्या पूर्णिमा में नहीं घटित होती हैं |

गणितीय सूत्रों की एक विशेषता और है गणित के जो सूत्र प्रकृति की जिन घटनाओं में एक बार सही सटीक बैठ जाते हैं उनसे संबंधित पूर्वानुमान उन्हीं गणितीय सूत्रों से यदि सात दिन पहले का सही निकल सकता है तो सात महीने पहले का भी सही निकलेगा और सातवर्ष सातहजारवर्ष सात तथा लाख वर्ष आदि पहले के विषय में लगाया गया पूर्वानुमान सही निकलेगा | एक बार सूत्र सही फिट होने की बात है |

विशेष बात यह है कि हमारे द्वारा प्रत्येक महीने प्रकाशित किए जाने वाले मौसम संबंधी पूर्वानुमानों का परीक्षण आप ध्यान से किया करें और यह विश्वास रखकर चलें कि महीने का मौसम पूर्वानुमान जितने प्रतिशत सच निकलेगा | उतने ही प्रतिशत सात करोड़ और सात अरब वर्ष पहले के विषय में हमारे द्वारा लगाया गया मौसम संबंधी पूर्वानुमान भी सच निकलेगा | गणितीय सूत्रों के आधार पर लगाए गए पूर्वानुमानों की यह प्रमुख विशेषता है |

आधुनिक वैज्ञानिकों की दृष्टि से कभी होने और कभी न होने वाली प्राकृतिक घटनाओं के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है | जलवायु परिवर्तन कहने का मतलब होता है इस घटना के विषय में हमें कुछ भी पता नहीं है|इसलिए इसके विषय में हमसे कुछ मत पूछना पूछोगे तो हम कोई काल्पनिक कहानी सुना देंगे जिसका वैज्ञानिक सच्चाई से कोई लेना देना नहीं होगा |

आधुनिक वैज्ञानिक संभवतः प्रकृति से ऐसी अपेक्षा करते हैं कि जिस प्रकार से सूर्य निश्चित समय से आता है और निश्चित समय से चला जाता है एक मिनट सेकेंड भी आगे पीछे नहीं होता उसी प्रकार से मानसून अपनी निर्धारित तारीख पर आवे और अपनी तारीख पर चला जाए | जिस प्रकार से सूर्य की रोशनी सूर्य के उदित होने के बाद क्रमशः बढ़ती और क्रमशः घटते घटते समाप्त हो जाती है | वैसे ही मानसून अपनी तारीख पर आवे इसके बाद क्रमिक रूप से बढ़ता जाए और अपने शिखर पर पहुँचने के बाद क्रमशः कम होना शुरू हो जाए और अपनी निश्चित तारीख पर समाप्त हो जाए |

इसी प्रकार जैसे सूर्य का प्रकाश या गर्मी आदि बड़े भूभाग पर एक जैसी पड़ती है उसी प्रकार से बादल सभी जगह जा जाकर एक जैसी वर्षात नाप तौल कर करें | ऐसे ही भूकंप आँधी तूफ़ान जैसी घटनाओं के लिए भी कोई दिन निश्चित होना चाहिए उस दिन आवें और अपनी निर्धारित सीमा में आकर समाप्त हो जाएँ | इनका जिस किसी भी दिन जहाँ कहीं भी चले आना बंद हो | यदि ऐसा नहीं होता है तो हम ऐसी घटनाओं के घटित होने के लिए जलवायु परिवर्तन के नाम का हुल्लड़ मचा मचा कर प्रकृति को बदनाम करते रहेंगे |

इस प्रकार से आधुनिक वैज्ञानिकों की इन शर्तों का पालन जिस दिन प्रकृति करने लगेगी उसी दिन इनके द्वारा लगाए गए मौसम संबंधी पूर्वानुमान सही निकल सकते हैं | इसके अतिरिक्त इनसे मौसम का पूर्वानुमान लगाने के लिए कोई आशा की ही नहीं जानी चाहिए | मौसम का पूर्वानुमान लगाने के लिए प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित जब तक कोई विज्ञान विकसित ही नहीं किया जा सका है तब तक ऐसे लोग बताएँगे भी किस आधार पर | अलनीनों लानिना जैसी मन गढ़ंत कहानियों का संबंध घटनाओं के साथ कभी देखा ही नहीं गया | इसके आधार पर बताई गई हर बात उलटी ही निकलती है |

कुल मिलाकर वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर केवल उपग्रहों रडारों पर ही सारा दारोमदार है इनके अतिरिक्त और क्या है जिसके आधार पर प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुसंधान किया जाए | केवल वही उपग्रहों रडारों से जो जो प्राकृतिक घटनाएँ घटित होते दिखेंगी मौसम भविष्यवाणी के नाम पर वही बोल दी जाएँगी यही तो मौसम विज्ञान है | भूकंप और महामारी जैसी घटनाएँ उपग्रहों रडारों सेदिखाई ही नहीं पड़ती हैं इसलिए वैज्ञानिक लोग इस विषय में कुछ बता भी कैसे सकते हैं और जो तीर तुक्के लगाए जाएँगे वे सही हो भी जाएँ तो उनसे लाभ क्या जब उनका कोई वैज्ञानिक आधार ही नहीं होता है |

मौसम संबंधी वातावरण बिगड़ने से महामारियाँ पैदा होती हैं यही कारण है मौसम संबंधी घटनाओं को न समझ पाने वाले आधुनिकवैज्ञानिकों को कोरोना महामारी समझ में ही नहीं आई | ऐसा वे खुले तौर पर स्वीकार करते रहे !वे साफ साफ कह चुके कि जलवायु परिवर्तन को समझना हमारे बश की बात नहीं है इसके बाद भी सरकारें उनसे ऐसे विषयों पर अनुसंधान करने की अपेक्षा रखती हैं ये सरकारों का दिखावा नहीं तो और क्या है ?

गाँवों में बूढ़े और कमजोर बैलों को बेचने के लिए किसान लोग बैल मंडी में ले जाते हैं किंतु वे बैल जोतने लायक रह नहीं जाते हैं शरीर कमजोर हो चुके होते हैं | इसलिए उनके ग्राहक नहीं होते हैं | ऐसे बैलों के ग्राहक खोजकर दलाल लोग लाते हैं | उन दलालों के हाथ में एक ऐसी छड़ होती है जिसके अगले भाग पर एक कील लगी होती है | ग्राहक बैलों को जब देख रहा होता है उस समय दलाल पीछे से वह कील बैल को चुभा देते हैं तो बैल उछल पड़ता है | इससे लगता है कि बैल अभी बूढ़ा और कमजोर नहीं हैं इसमें अभी भी करेंट है | इस प्रकार से धोखा देकर दलाल लोग बैल बेचवा देते हैं |

इसी प्रकार की भूमिका प्रकृति के विषय में वैज्ञानिक हमेंशा से निभाते रहे हैं यही कारण है कि157 वर्ष पहले कलकत्ते में आए जिस हिंसक चक्रवात को समझने के लिए 145 वर्ष पहले जिस भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना की गई थी लगभग डेढ़ सौ वर्ष बीत जाने के बाद सन 2018 के अप्रेल मई में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश आदि में भीषण हिंसक आँधी तूफ़ान आए हमारे मौसम वैज्ञानिक न उनके विषय में कोई पूर्वानुमान बता पाए और न ही उनके घटित होने का कारण बता पाए | ये विज्ञान जगत के अनुसंधानों की डेढ़ सौ वर्षों की उपलब्धि है | इसके बाद भी सरकारें ऐसे लोगों से कोरोना जैसी महामारी के विषय में खोज करने का दबाव डालती रही हैं उन्हें क्या वे मौसम की तरह ही महामारी के विषय में भी एक और कहानी गढ़कर सुना देंगे |ऐसे अनुसंधानों और अनुसंधान कर्ताओं पर जनता के द्वारा टैक्स रूप में दिया गया पैसा सरकारें खर्च किया करती हैं उनसे निकलता क्या है ये महामारी के समय में दुनियां ने देखा है | अनुसंधानों के नाम पर जनता से कितना झूठ बोला जाता है ये महामारी के समय जनता ने सुना है अनुभव किया है | उनके द्वारा महामारी के विषय में कही गई प्रत्येक बात झूठ निकली है प्रत्येक अनुमान गलत निकला है इसके बाद भी विज्ञान ने नाम पर सरकारों के दबाव से जनता उनका और उनके परिवारों का आर्थिक बोझ अपने कंधों पर ढोने के लिए मजबूर है |

सरकार के द्वारा संस्कृत विश्व विद्यालयों में जो वेद विज्ञान विभाग बनाए भी गए हैं उनमें रीडर प्रोफेसर के रूप में उन्हीं की नियुक्तियां हो रही हैं जिनका ऐसे वैज्ञानिक विषयों में कोई अध्ययन ही नहीं होता है आजतक जो संस्कृत विश्व विद्यालयों पर बोझ बने बैठे थे उन्होंने हीभ्रष्टाचार के बल पर वेद विज्ञान विभागों पर भी कब्ज़ा जमा लिया है जिनसे ऐसे विषयों में किसी वैज्ञानिक अनुसंधान की आशा अपेक्षा की ही नहीं जानी चाहिए | वे किसी लायक ही होते तो अभी तक सरकारी संस्कृत विश्व विद्यालयों के जिन पदों पर बैठे थे वहाँ रहकर भी तो ऐसे वैज्ञानिक विषयों में अनुसंधान कर सकते थे | वहाँ इन्हें किसने रोक रखा था जो अब वेद विज्ञान विभागों का दायित्व सँभाल कर चमत्कार कर देंगे |

वैदिक ग्रंथों में महामारियों का पूर्वानुमान लगाने की विधियाँ बताई गई हैं महामारी रोकने की यज्ञ विधियाँ बताई गई हैं कोरोना महामारी के समय न तो वे पूर्वानुमान बता सके और न ही ऐसी महामारियों पर यज्ञादि प्रक्रिया से अंकुश लगा सके | ऐसे अयोग्य लोग वेद विज्ञान विभागों में कौन सा चमत्कार कर देंगे |

सरकार यदि ईमानदारी से चाहती है कि वेद विज्ञान विभाग में कुछ वास्तविक अनुसंधान हों तो इसमें उन्हीं लोगों को नियुक्त किया जाना चाहिए जिन्होंने वेद विज्ञान के आधार पर कोई ऐसा अनुसंधान किया हो जिससे मौसम या महामारी के विषय में कोई पूर्वानुमान लगाया जा सका हो या फिर किसी प्राकृतिक आपदा का पूर्वानुमान लगाकर उस पर कोई यज्ञ विधा से अंकुश लगाया जा सका हो | जो लोग ऐसा कुछ नहीं करके दिखा पाए हैं उनसे आगे भी इन विषयों में किसी सार्थक अनुसंधान की आशा नहीं की जानी चाहिए | कुछ खाना पूर्ति करके कोई मैगजीन छाप कर कुछ सेमिनार करके ऐसे लोग अपनी जिंदगी का बोझ तो उतार लेंगे किंतु उनकी अयोग्यता एवं अकर्मण्यता की कीमत भविष्य में भी संस्कृत भाषा का वैज्ञानिक जगत चुकाता रहेगा | यही संस्कृत जगत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि जो योग्य अनुसंधान करने की क्षमता रखते हैं वे अपनी ईमानदारी के कारण संस्कृत जगत के निर्णायक पदों तक पहुँचने नहीं दिए जाते हैं और जो भ्रष्टाचार आदि का अवलंबन करके निर्णायक पदों तक पहुँचते हैं वे वैदिक विज्ञान की वैज्ञानिक क्षमता से विहीन होने के कारण ऐसे कठिन विषयों में कुछ करने लायक होते ही नहीं हैं | ऐसी परिस्थिति में ऐसे अनुसंधानों की जिम्मेदारी संभालने वाले लोगों के अनुसंधान कार्यों को आधार बनाना ही बेहतर विकल्प होगा |

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