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भगतसिंह जातिवाद,साम्प्रदायिकता, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, निजीकरण व धार्मिक कर्मकांडो व पाखण्डों के प्रबल विरोधी थे

Shiv Kumar Mishra
28 Sep 2020 4:53 AM GMT
भगतसिंह जातिवाद,साम्प्रदायिकता, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, निजीकरण व धार्मिक कर्मकांडो व पाखण्डों के प्रबल विरोधी थे
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रामभरत उपाध्याय

आज सुबह 9 बजे जब मोबाइल का इंटरनेट डेटा ऑन किया तो सामान्य दिनों से बहुत ज्यादा फेसबुक व व्हाट्सएप के नोटिफिकेशन की झड़ी लग गई।खोलकर देखा तो पाया कि आज हमारे हीरो शहीद ए आजम भगतसिंह जी की जयंती है। फिर तो सभी का मुबारकबाद देना बनता ही है।

ताहज्जुब इस बात का है भगतसिंह को बधाइयाँ देने वालों की तादाद में से बहुसंख्यक वे लोग हैं जो उनके विचारों से बहुत ही कम वास्ता रखते हैं। भगतसिंह जातिवाद,साम्प्रदायिकता, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, निजीकरण व धार्मिक कर्मकांडो व पाखण्डों के प्रबल विरोधी थे।

भगतसिंह की डायरी,लेख व भाषणों के अनुसार उनकी आजादी का मतलब केवल सत्ता हस्तांतरण नहीं था वरन गरीबों, मजदूरों, किसानों, महिलाओं व अन्य शोषित हासिये के लोगों का दुःख दूर करते हुए सम्पूर्ण आजदी प्रदान करना था।

जाति, वर्ग, धर्म व शाषन पद्दति पर भगतसिंह के विचारों से समकालीन कोंग्रेस नेता व बहुतेरे अन्य बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग खफा रहते थे। और आज भी भगतसिंह की जिंदाबाद बोलने वाले अधिकांश लोग उनके विचारों के अनुयायी किंचितमात्र नहीं ।

हमारे देश को आजाद हुए 70 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन क्या सच में आमजन की दुश्वारियां कम हुई हैं? क्या सच में गद्दी पर बैठे हुए लोगों द्वारा जनता का शोषण नहीं किया जाता? क्या देश के धन का प्रयोग देश के लोगों की व्यवस्था के लिए किया जाता है? क्या धर्म पर उन्माद हावी नहीं है? क्या सिपाहियों से डर उसी तरह नहीं लगता जो हमें गुलामी की याद दिलाता था कि 'पुलिस पकड़ कर ले जाएगी'? क्या आज साहूकारों की जगह बैंक किसानों को कर्जा देकर उन्हें मकड़जाल में फंसकर आत्महत्या करने को मजबूर नहीं कर रहे हैं? कुछ भी नहीं बदला है सिवाय सत्ता हस्तांतरण के। भगत सिंह ने कहा था कि 'मैं ऐसा भारत चाहता हूं जिसमें गोरे अंग्रेजों का स्थान हमारे देश के काले दिलों वाले काले-अंग्रेज न लें। मैं ऐसा भारत नहीं देखना चाहता जिसमें व्यवस्था प्रबंधन सदस्य व्यवस्था पर प्रभावी बने रहें।

भगत सिंह ने सांप्रदायिक और जातिवाद को बढ़ावा देने वाले लोगों का हमेशा विरोध किया था। वो सत्ता में ऐसा बदलाव चाहते थे जहां आम आदमी की आवाज़ सुनी जा सके। उन्होंने एक लेख "मैं नास्तिक क्यों हूँ" को लिखकर धर्म और ईश्वर के बारे में अपने विचार प्रकट किए जिसमें लिखा है कि "अधिक विश्वास और अधिक अंधविश्वास खतरनाक होता है यह मस्तिष्क को मूर्ख और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी, यदि वो तर्क का प्रहार न सहन कर सके तो टुकड़े टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा जिसमें पुनः निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है।"

भगत सिंह चाहते तो माफी मांग कर फांसी की सजा से बच सकते थे, लेकिन मातृभूमि के सच्चे सपूत को झुकना पसंद नहीं था। इसलिए युवावस्था की दहलीज पर ही इस वीर सपूत ने हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था। आज हमारे देश में पूंजीवादी शक्तियों का बोलबाला है। जिसकी वजह से अमीर गरीब के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है। देश का आम नागरिक सरकार की तथाकथित उदारीकरण नीतियों के कारण आजादी के बाद से आज तक भ्रम की स्थिति में है। देश का होनहार युवक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का टेक्नो-कुली बनकर रह गया है। इन कंपनियों का भ्रमजाल ऐसा बना हुआ है कि इनकी कंपनी में कार्य करने वाले रोजगारियों का पैसा भी घूम फिर कर इन्हीं की जेबों में वापस आ जाता है। भगत सिंह ने एक लेख: "लेटर टू यंग पॉलिटिकल वर्कर्स" में युवाओं को संबोधित करते हुए आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद की बात कही, जिसका सीधा सा उद्देश्य साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से आजादी से था।

भगत सिंह आज भी अपने विचारों के माध्यम से जीवित हैं, उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे।

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