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Bihar SIR: आरोपों के सैलाब में गायब होती चुनाव आयोग की पारदर्शिता

Pratayksh Mishra
15 Oct 2025 8:59 PM IST
Bihar SIR: आरोपों के सैलाब में गायब होती चुनाव आयोग की पारदर्शिता
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चुनाव आयोग के द्वारा बिहार में हालिया विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के दौरान भी गंभीर पारदर्शिता की कमी सामने आई हैं।

यूं तो पिछले कुछ समय से चुनाव आयोग ने चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने से दूरी बना ली है, चाहे वह मतदान के 45 दिन बाद तक ही CCTV फुटेज रखने का फैसला हो या फिर चुनाव आयुक्त पैनल की नियुक्ति से चीफ जस्टिस को दूर रखना हर कदम ने पारदर्शिता पर सवाल खड़े किए हैं।

इसी क्रम में, चुनाव आयोग के द्वारा बिहार में हालिया विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के दौरान भी गंभीर पारदर्शिता की कमी सामने आई हैं। आयोग ने शुरुआत से ही मतदाता सूची से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक करने से परहेज किया है।

30 सितंबर 2025 को प्रकाशित अंतिम मतदाता सूची के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि विशेष पुनरीक्षण (SIR) की पूरी प्रक्रिया के दौरान चुनाव आयोग ने लगातार पारदर्शिता से परहेज किया और मतदाता सूचियों का विश्लेषण करना बेहद कठिन बना दिया।

इससे पहले ड्राफ्ट मतदाता सूची से जिन नामों को हटाया गया था, उनकी पूरी सूची आयोग ने 14 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही जारी की। इसके अलावा, आयोग ने अदालत की उस स्पष्ट सलाह की भी अनदेखी की, जिसमें कहा गया था कि 1 सितंबर के बाद प्राप्त दावों और आपत्तियों की संख्या पर नियमित बुलेटिन जारी करने की प्रक्रिया को जारी रखा जाए, इसके बावजूद भी आयोग ने इस प्रवृत्ति को 30 सितंबर 2025 को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित करने तक जारी रखा।

यह कदम न केवल चुनाव आयोग की घटती पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लगाता है, बल्कि उस लोकतांत्रिक विश्वास को भी कमजोर करता है, जिसके सहारे चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं खड़ी हैं।

चुनाव आयोग ने अब तक कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए हैं — जो यह समझने के लिए आवश्यक हैं कि मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की पूरी प्रक्रिया कितनी निष्पक्ष, पारदर्शी और विश्वसनीय रही। आइए इसका एक-एक करके विश्लेषण करते हैं -

गोपनीय रखे गए प्रमुख आंकड़े:

(a) अंतिम मतदाता सूची से हटाए गए उन 3.66 लाख मतदाताओं की पूरी सूची, जिनके नाम ड्राफ्ट मतदाता सूची में शामिल थे, लेकिन अंतिम सूची से हटा दिए गए, अब तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं।

आयोग को बताना चाहिए कि इन नामों को हटाने का कारण क्या था -

- क्या यह दस्तावेज़ों की कमी थी?

- डुप्लीकेट थे या “भारतीय नागरिक न होने” जैसा कोई अन्य कारण?

इस पर चुनाव आयोग ने अब तक कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी है।

इसके अलावा नियम ये है जिस भी मतदाता का नाम सूची से हटाया जाता है उसे एक बार नोटिस दिया जाता है, ताकि वह आपत्ति दायर कर सके, लेकिन आयोग ने यह करना भी मुनासिब नहीं समझा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से 3.66 लाख मतदाताओं को फिर से आपत्ति करने का अवसर मिला।


(b) ऐसे मतदाताओं की सूची, जिनके नाम जनवरी 2025 की मतदाता सूची में मौजूद थे, जिन्हें ड्राफ्ट सूची से बाहर कर दिया गया था, लेकिन अब अंतिम सूची में फिर से बहाल किए गए हैं। ऐसे आवेदनों की कुल संख्या कितनी है, इस पर चुनाव आयोग ने अब तक कोई आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया।

अगर ये आंकड़ा सामने आता तो साफ होता कि कितने लोगों के नाम गलती से हटे थे और कितनों को इस बार गहन मतदाता पुनरीक्षण में सही किया गया, लेकिन पारदर्शिता की यह बुनियादी जानकारी आज भी जनता की पहुंच से बाहर है।

(c) ड्राफ्ट सूची से हटाए गए मतदाताओं में से कितनों को दस्तावेज़ जमा न करने के कारण बाहर किया गया और कितनों को “भारतीय नागरिक न होने” के आधार पर हटा दिया गया, चुनाव आयोग ने अब तक यह स्पष्ट नहीं किया।

अगर यह डेटा सार्वजनिक किया जाता तो इसे हाल के वर्षों में देश के लिए एक बड़ा उपकार माना जाता, यह हैरानी का भी विषय है कि दुनिया में सबसे बड़ी पार्टी होने का दम्भ भरने वालों ने और स्वयं आयोग ने गहन पुनरीक्षण करने के पीछे दलील दी कि, इससे बड़ी मात्रा में सीमांचल और बाकी हिस्सों में बसे हुए घुसपैठिए बाहर आऐंगे।

आयोग ने बाकायदा 24 जून 2025 को जारी हुए SIR के नोटिफिकेशन में बताया भी कि SIR क्यों किया जा रहा है -

"तेजी से बढ़ते शहरीकरण, लगातार माइग्रेशन, नए मतदाता, मृत्यु का डेटा समय पर न मिलने और विदेशी अवैध प्रवासियों के नाम शामिल होने जैसी वजहों से मतदाता सूची की पूरी तरह से दोबारा जांच करना जरूरी है"

(d) चुनाव आयोग ने अब तक यह डेटा सार्वजनिक नहीं किया है कि ड्राफ्ट मतदाता सूची के कितने लोगों ने जांच प्रक्रिया के दौरान 12 दस्तावेज़ों में से कौन-कौन से दस्तावेज, जैसे आधार कार्ड, पासपोर्ट, या जन्म प्रमाणपत्र अपने एन्यूमरेशन फॉर्म के साथ जमा किए।

यह जानकारी सिर्फ बिहार के मतदाताओं के लिए ही नहीं, बल्कि उन सभी राज्यों के लिए निर्णायक है, जहां भविष्य में “SIR प्रक्रिया” (Special Intensive Revision) लागू की जाएगी।


क्योंकि इसी डेटा से यह समझा जा सकता था कि ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ की यह नई प्रणाली वास्तव में नागरिकों की पहचान सुनिश्चित करने का उपकरण है या उन्हें असुविधा में डालने वाली एक नई नौकरशाही दीवार।

दरअसल, आधार कार्ड को 12वें दस्तावेज़ के रूप में स्वीकारना आयोग के लिए गले की फांस साबित हो रहा था।

जैस कि हम सभी ने देखा SIR का नोटिफिकेशन जारी होने के साथ ही आयोग ने उन सभी दस्तवेजों को मानने से इंकार कर दिया, जो हर घर में आम तौर पर जो पहचान या प्रमाणपत्र होते हैं— ना आधार कार्ड, ना राशन कार्ड, ना चुनाव आयोग का अपना पहचान पत्र, ना मनरेगा का जॉब कार्ड।

चुनाव आयोग ने जो 11 प्रमाण पत्र मान्य किए थे, उनमें से कुछ तो बिहार पर लागू ही नहीं होते या कहीं देखने को ही नहीं मिलते हैं। कुछ गिने-चुने लोगों के पास ही होते हैं, जैसे पासपोर्ट (2.4 प्रतिशत), जन्म प्रमाणपत्र (2.8 प्रतिशत), सरकारी नौकरी या पेंशनधारी का पहचान पत्र (5 प्रतिशत) या जाति प्रमाणपत्र (16 प्रतिशत) साधारण घर में नहीं मिलते। बच गया मैट्रिक या डिग्री का प्रमाणपत्र, जो बिहार में आधे से कम लोगों के पास है।

यदि यह डेटा सार्वजनिक होता तो यह स्पष्ट हो जाता कि कितने मतदाताओं ने आधार प्रस्तुत किया, कितनों ने वैकल्पिक दस्तावेज़ और कितनों के नाम इसके बावजूद काटे गए, लेकिन इस पर आयोग ने पर्दा डाल दिया।

यह बिल्कुल ठीक वैसा ही है; जैसे अमेरिका में अश्वेतों के साथ हुआ। अमरेका के गोरे लोगों ने रंगभेद के खिलाफ हुए काले लोगों के आंदोलनों का शुरुआत में विरोध किया, लेकिन इसकी वजह से अमेरिका को गृहयुद्ध झेलने पड़े। गृहयुद्ध के बाद काले लोगों को "मुक्त" किया गया उन्हें नागरिक अधिकार तो मिल गए — लेकिन ऐसे कानून बना दिए गए जिनसे गोरों का वर्चस्व बना रहे।


पोल टैक्स, लिटरेसी टेस्ट, और “जिम क्रो” क़ानूनों ने अश्वेतों को वोट देने से लेकर शिक्षा और रोजगार तक से वंचित रखा। यानी आज़ादी मिली, पर बराबरी नहीं। बिहार की SIR प्रक्रिया में जो कुछ हो रहा है, उसका ताना-बाना कुछ वैसा ही लगता है।

(e) स्थिति को और जटिल बनाने वाला पहलू यह भी रहा कि आयोग के पास भले ही पूरी मतदाता सूची कंप्यूटर पर उपलब्ध थी, लेकिन उसने ड्राफ्ट और अंतिम सूचियां ऐसे प्रारूप में जारी कीं, जो मशीन से पढ़ने योग्य नहीं थीं। यानी, इन सूचियों को कंप्यूटर पर डालकर स्वतः जांच या विश्लेषण नहीं किया जा सकता था।

इससे यह साफ हो जाता है कि भले ही पहले की मतदाता सूची में कई समस्याएं थीं और उसे गहन पुनरीक्षण की आवश्यकता थी, लेकिन वर्तमान विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की प्रक्रिया ने मूल समस्याओं को हल करने की बजाय और जटिल बना दिया।

प्रत्यक्ष मिश्रा पब्लिक पॉलिसी रिसर्चर हैं।


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