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संपत्ति पर कब्जा करने वाला उसका मालिक नहीं हो सकता : सुप्रीम कोर्ट

Special Coverage News
31 Jan 2019 9:26 AM IST
संपत्ति पर कब्जा करने वाला उसका मालिक नहीं हो सकता : सुप्रीम कोर्ट
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टाइटलधारी भूस्वामी ऐसे व्यक्ति को बलपूर्वक कब्जे से बेदखल कर सकता है, चाहे उसे कब्जा किए 12 साल से अधिक का समय हो गया हो।
नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में व्यवस्था दी है कि किसी संपत्ति पर अस्थायी कब्जे करने वाला व्यक्ति उस संपत्ति का मालिक नहीं हो सकता। साथ ही टाइटलधारी भूस्वामी ऐसे व्यक्ति को बलपूर्वक कब्जे से बेदखल कर सकता है, चाहे उसे कब्जा किए 12 साल से अधिक का समय हो गया हो।

शीर्ष कोर्ट ने कहा कि ऐसे कब्जेदार को हटाने के लिए कोर्ट की कार्यवाही की जरूरत भी नहीं है। कोर्ट कार्यवाही की जरूरत तभी पड़ती है जब बिना टाइटल वाले कब्जेधारी के पास संपत्ति पर प्रभावी/ सेटल्ड कब्जा हो जो उसे इस कब्जे की इस तरह से सुरक्षा करने का अधिकार देता है जैसे कि वह सचमुच मालिक हो।

जस्टिस एनवी रमणा और एमएम शांतनागौडर की पीठ ने फैसले में कहा कि कोई व्यक्ति जब कब्जे की बात करता है तो उसे संपत्ति पर कब्जा टाइटल दिखाना होगा और सिद्ध करना होगा कि उसका संपत्ति पर प्रभावी कब्जा है। लेकिन अस्थायी कब्जा (कभी छोड़ देना कभी कब्जा कर लेना या दूर से अपने कब्जे में रखना) ऐसे व्यक्ति को वास्तविक मालिक के खिलाफ अधिकार नहीं देता। कोर्ट ने कहा प्रभावी कब्जे का मतलब है कि ऐसा कब्जा जो पर्याप्त रूप से लंबे समय से हो और इस कब्जे पर वास्तविक मालिक चुप्पी साधे बैठा हो। लेकिन अस्थायी कब्जा अधिकृत मालिक को कब्जा लेने से बाधित नहीं कर सकता।

पीठ ने कहा कि संपत्ति पर कभी कभार कब्जा कर लेना या उसमें घुस जाना, जो स्थायी कब्जे में परिपक्व नहीं हुआ है, उसे वास्तविक मालिक द्वारा हटाया जा सकता है और यहां तक कि वह आवश्यक बल का भी प्रयोग कर सकता है। कोर्ट ने कब्जेदार का यह तर्क भी ठुकरा दिया कि लिमिटेशन एक्ट, 1963 की धारा 64 के तहत मालिक ने कब्जे के खिलाफ 12 वर्ष के अंदर मुकदमा दायर नहीं किया। कोर्ट ने कहा कि यह समय सीमा प्रभावी / सेटल्ड कब्जे के मामले में ही लागू होती है और अस्थायी कब्जे के मामले में नहीं।

यह है मामला

बाड़मेर में पूनाराम ने जागीरदार से 1966 में कुछ संपत्ति खरीदी थी जो एक जगह नही थी। जब संपत्ति के लिए स्वामित्व घोषणा का वाद दायर किया गया तो कब्जा मोतीराम के पास मिला। मोतीराम कोई दस्तावेज नहीं दिखा पाया और ट्रायल कोर्ट ने सपंत्ति पर मकान बनाने के लिए पास किए नक्शे के आधार पर मोतीराम को 1972 में बेदखल करने का आदेश दिया। मोती हाईकोर्ट गया और राजस्थान हाईकोर्ट ने फैसला पलट दिया। इसके खिलाफ मालिक सुप्रीम कोर्ट आया था।

प्रतिकूल कब्जे के बारे में वह बातें जो अब तक आपको मालूम नहीं होंगी

संपत्ति का मालिकाना हक पाना हर किसी की ख्वाहिश होता है, लेकिन यह स्थिति बहुत मुश्किलों को पार करने के बाद आती है। अकसर यह माना जाता है कि कानून अमीरों की ओर झुकता है, जिससे इस देश में कई प्रचलित कानून व्यर्थ साबित होते हैं।

क्या है कानून: उदाहरण के तौर पर रमेश कुमार का दिल्ली में घर है, जिसे उन्होंने रहने के लिए अपने भाई सुरेश कुमार को दिया हुआ है। 12 साल बाद सुरेश कुमार को प्रॉपर्टी बेचने का अधिकार है और उसका अपने भाई से झगड़ा होता है तो कानून के मुताबिक पोजेशन सुरेश को मिलेगा। इसके कहते हैं प्रतिकूल कब्जा यानी एडवर्स पोजेशन।

हालांकि सामान्य कब्जे की स्थिति में स्वामित्व नहीं मिलता, लेकिन प्रतिकूल कब्जे के मामले में वह संपत्ति के मालिकाना हक पर दावा कर सकता है। एेसी स्थिति में अन्यथा साबित होने तक माना जाता है कि पोजेशन कानूनी है और इसकी इजाजत दी गई है। प्रतिकूल कब्जे के तहत जरूरतें सिर्फ यही हैं कि पोजेशन जबरदस्ती या गैर कानूनी तरीकों से हासिल न किया गया हो।

लिमिटेशन एक्ट : लिमिटेशन एक्ट, 1963 कानून का अहम हिस्सा है, जो प्रतिकूल कब्जे का विस्तार है। इस कानून में प्राइवेट संपत्ति के लिए 12 साल और सरकारी संपत्तियों के लिए 30 साल की अवधि होती है, जिसमें आप संपत्ति का मालिकाना हक ले सकते हैं। किसी भी तरह की देरी भविष्य में परेशानियां पैदा कर सकती है।

'लिमिटेशन उपाय को खत्म कर देता है, जो सही नहीं है', यही सिद्धांत लिमिटेशन एक्ट का आधार है। इसका मतलब है कि प्रतिकूल कब्जे के मामले में असली मालिक के पास प्रॉपर्टी टाइटल हो सकता है, लेकिन कानून के जरिए वह इस तरह दावा करने का अधिकार खो देता है।

समय अवधि: इस कानून को लागू करने और समयावधि की गणना करने के लिए देखा जाता है कि प्रॉपर्टी मालिक के पास किस तारीख से है। इस अवधि के दौरान पोजेशन अटूट और बिना किसी रुकावट के होना चाहिए। दावेदार के पास संपत्ति का इकलौता अधिकार होना चाहिए। हालांकि, लिमिटेशन पीरियड में उस वक्त को शामिल नहीं किया जाता, जिसमें मालिक और दावेदार के बीच लंबित मुकदमेबाजी है। हालांकि इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। अगर संपत्ति का मालिक नाबालिग है, उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है या वह सशस्त्र बलों में काम कर रहा है तो संपत्ति पर कब्जा करने वाले प्रतिकूल कब्जे का दावा नहीं कर सकते।

आइए आपको बताते हैं कि प्रतिकूल कब्जे के तहत दावा साबित करने के लिए किन चीजों की जरूरत है:

द्वेषपूर्ण कब्जा: संपत्ति के मालिक का मकसद प्रतिकूल कब्जे के जरिए अधिकार हासिल करने का होगा। ये अधिकार मूल मालिक के अधिकारों की कीमत पर हासिल किए जा सकते हैं। इसके लिए या तो कब्जा करने वाले ने मालिकाना हक के लिए इच्छा जाहिर की होगी या फिर अस्वीकृति। संपत्ति के चारों ओर एक दीवार बनवाना कब्जा करने का इशारा हो सकता है।

पब्लिक नॉलेज: बड़ी संख्या में लोगों को दावेदार के कब्जे के बारे में मालूम होना चाहिए। यह शर्त इसलिए रखी गई है ताकि असली मालिक को यह जानने के लिए पर्याप्त समय मिल जाए कि उसकी संपत्ति किसी के कब्जे में है और वह वक्त रहते कार्यवाही कर सके। हालांकि असली मालिक को सूचित करने के लिए कोई बाध्य नहीं है।

वास्तविक कब्जा: लिमिटेशन की पूरी अवधि के दौरान वास्तविक अधिकार होना चाहिए। फसल कटाई, इमारत की मरम्मत, पेड़ लगाना और शेड बनाना जैसे शारीरिक कार्यों के जरिए भी वास्तविक कब्जा निर्धारित होता है। संपत्ति पर बिना शारीरिक कब्जा किए कब्जा करने वाला प्रॉपर्टी पर दावा नहीं कर सकता।

निरंतरता: कब्जा करने वाले का पोजेशन बिना किसी रुकावट, शांतिपूर्ण और अविराम होना चाहिए। पोजेशन में किसी भी तरह का ब्रेक उसके अधिकार को खत्म कर सकता है।

विशिष्टता: कब्जा करने वाले का संपत्ति पर इकलौता अधिकार होना चाहिए। जिस समयावधि के लिए दावा किया गया है, उसमें पोजेशन किसी संस्था या लोगों के साथ साझा नहीं किया जाना चाहिए।

मामले: प्रतिकूल कब्जे के मामले में कई एेतिहासिक फैसले भी सुनाए गए हैं।

2004 के कर्नाटक बोर्ड अॉफ वक्फ बनाम भारत सरकार और अन्य के मामले में प्रतिकूल कब्जे की विशेषताओं का जिक्र किया गया है। दावेदार का एक कर्तव्य यह भी होता है कि उसके पास प्रॉपर्टी टाइटल का दावा करने के लिए पर्याप्त तथ्य और सबूत होने चाहिए।

प्रतिकूल कब्जे का दावा करने के लिए अदालत में ये दस्तावेज दिखाने जरूरी हैं:

-पोजेशन की तारीख

-पोजेशन की प्रकृति

-पोजेशन के बारे में लोगों को पता है

-पोजेशन की अवधि

-पोजेशन की निरंतरता

साल 2010 के हरियाणा राज्य बनाम मुकेश कुमार व अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रॉपर्टी के असली मालिक के पक्ष में फैसला देते हुए कहा कि प्रतिकूल कब्जे का कानून बहुत पुराना है और इसे गंभीरता से देखना चाहिए। शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रतिकूल कब्जे के मामले में कब्जा करने वाला जो असल में दोषी है, उसका कानूनी तौर पर संपत्ति पर अधिकार हो जाता है। कोर्ट ने इस कानूनी व्यवस्था को गैरकानूनी गड़बड़ी करार दिया था।

जो बदलाव हमें चाहिए: इस पुराने कानून में सुधार करने की जरूरत है, क्योंकि यह इक्विटी के खिलाफ है। यह अतिक्रमियों के बजाय संपत्ति के मालिकों सजा देता है। हालांकि बदलाव होने तक प्रॉपर्टी मालिकों को जागरुक रहकर अपनी संपत्ति पर नजर रखनी चाहिए। अतिक्रमण के किसी भी गैरकानूनी कार्य के खिलाफ समय पर कार्रवाई की जानी जरूरी है।

अगर आपकी किसी अचल संपत्ति पर किसी ने कब्जा जमा लिया है तो उसे वहां से हटाने में लेट लतीफी नहीं करें। अपनी संपत्ति पर दूसरे के अवैध कब्जे को चुनौती देने में देर की तो संभव है कि वह आपके हाथ से हमेशा के लिए निकल जाए। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में एक बड़ा फैसला दिया है।

12 वर्ष के अंदर उठाना होगा कदम

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, अगर वास्तविक या वैध मालिक अपनी अचल संपत्ति को दूसरे के कब्जे से वापस पाने के लिए समयसीमा के अंदर कदम नहीं उठा पाएंगे तो उनका मालिकाना हक समाप्त हो जाएगा और उस अचल संपत्ति पर जिसने कब्जा कर रखा है, उसी को कानूनी तौर पर मालिकाना हक दे दिया जाएगा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट कर दिया कि सरकारी जमीन पर अतिक्रमण को इस दायरे में नहीं रखा जाएगा। यानी, सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे को कभी भी कानूनी मान्यता नहीं मिल सकती है।

तीन जजों की बेंच ने की कानून की व्याख्या

लिमिटेशन ऐक्ट 1963 के तहत निजी अचल संपत्ति पर लिमिटेशन (परिसीमन) की वैधानिक अवधि 12 साल जबकि सरकारी अचल संपत्ति के मामले में 30 वर्ष है। यह मियाद कब्जे के दिन से शुरू होती है। सुप्रीम कोर्ट के जजों जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस एमआर शाह की बेंच ने इस कानून के प्रावधानों की व्याख्या करते हुए कहा कि कानून उस व्यक्ति के साथ है जिसने अचल संपत्ति पर 12 वर्षों से अधिक से कब्जा कर रखा है। अगर 12 वर्ष बाद उसे वहां से हटाया गया तो उसके पास संपत्ति पर दोबारा अधिकार पाने के लिए कानून की शरण में जाने का अधिकार है।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

बेंच ने कहा, 'हमारा फैसला है कि संपत्ति पर जिसका कब्जा है, उसे कोई दूसरा व्यक्ति बिना उचित कानूनी प्रक्रिया के वहां से हटा नहीं सकता है। अगर किसी ने 12 साल से अवैध कब्जा कर रखा है तो कानूनी मालिक के पास भी उसे हटाने का अधिकार भी नहीं रह जाएगा। ऐसी स्थिति में अवैध कब्जे वाले को ही कानूनी अधिकार, मालिकाना हक मिल जाएगा। हमारे विचार से इसका परिणाम यह होगा कि एक बार अधिकार (राइट), मालिकाना हक (टाइटल) या हिस्सा (इंट्रेस्ट) मिल जाने पर उसे वादी कानून के अनुच्छेद 65 के दायरे में तलवार की तरह इस्तेमाल कर सकता है, वहीं प्रतिवादी के लिए यह एक सुरक्षा कवच होगा। अगर किसी व्यक्ति ने कानून के तहत अवैध कब्जे को भी कानूनी कब्जे में तब्दील कर लिया तो जबर्दस्ती हटाए जाने पर वह कानून की मदद ले सकता है।'

12 वर्ष के बाद हाथ से निकल जाएगी संपत्ति

फैसले में स्पष्ट किया गया है कि अगर किसी ने 12 वर्ष तक अवैध कब्जा जारी रखा और उसके बाद उसने कानून के तहत मालिकाना हक प्राप्त कर लिया तो उसे असली मालिक भी नहीं हटा सकता है। अगर उससे जबर्दस्ती कब्जा हटवाया गया तो वह असली मालिक के खिलाफ भी केस कर सकता है और उसे वापस पाने का दावा कर सकता है क्योंकि असली मालिक 12 वर्ष के बाद अपना मालिकाना हक खो चुका होता है।

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