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'MSP की गारंटी संभव है- इसके बिना किसान घर नहीं जाएंगे' - चौधरी पुष्पेन्द्र सिंह

Arun Mishra
2 Dec 2021 9:51 AM GMT
MSP की गारंटी संभव है- इसके बिना किसान घर नहीं जाएंगे - चौधरी पुष्पेन्द्र सिंह
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अभी देश में 23 फसलों की एमएसपी घोषित होती है।


चौधरी पुष्पेन्द्र सिंह

पिछले साल कृषि क्षेत्र में लाए गए तीन कानूनों के निरस्तीकरण और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की वैधानिक गारंटी की दो मूल मांगों को लेकर किसानों का एक व्यापक और अभूतपूर्व आंदोलन देशभर में चल रहा है। संविधान दिवस 26 नवंबर के अवसर पर इस आंदोलन का एक साल पूरा हो रहा है। जब किसान तमाम विषम परिस्थितियों को सहते हुए भी पीछे नहीं हटे तो अन्ततः मोदी सरकार ने 19 नवंबर को इन तीन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी। परन्तु किसान मोर्चे ने अपनी अन्य मांगों को लेकर आंदोलन को और तेज करने का निर्णय लिया है। किसानों की मांग है कि घोषित एमएसपी से नीचे फसलों की खरीद कानूनी रूप से वर्जित हो, यानि कोई भी व्यक्ति, व्यापारी या संस्था जब फसलों का क्रय करे तो एमएसपी वैधानिक रूप से 'आरक्षित मूल्य' हो जिससे कम मूल्य पर कोई खरीद ना हो। एमएसपी का निर्धारण भी कृषि लागत मूल्य आयोग की C2 लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर होना चाहिए जैसा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश थी और भाजपा का वायदा था। एमएसपी की गारंटी की यह मांग किसानों विशेषकर छोटे किसानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस मांग के गणित को समझना बहुत आवश्यक है।

अभी देश में 23 फसलों की एमएसपी घोषित होती है। इसमें मुख्य रूप से खाद्यान्न- गेहूं, धान, मोटे अनाज, दालें; तिलहन, गन्ना व कपास जैसी कुछ नकदी फसलें शामिल हैं। दूध, फल, सब्ज़ियों, मांस, अंडे आदि की एमएसपी घोषित नहीं होती। 2019-20 में इन फसलों का एमएसपी पर कुल मूल्य लगभग 11 लाख करोड़ रुपये था। इसमें से गन्ने की फसल की खरीद सरकारी घोषित रेट पर मुख्यतः निजी मिलें करती रही हैं अतः गन्ने को इस गणना से अलग करके बाकी 22 फसलों की कीमत लगभग 10 लाख करोड़ रुपये बनती है। किसान देश की आधी आबादी है अतः वह स्वयं भी बहुत बड़ी मात्रा में इन फसलों का उपभोक्ता है। इन फसलों में से किसान लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फसलें अपने स्वयं के उपभोग में, अपने पशुओं के आहार में, अगली फसल के बीज आदि में इस्तेमाल कर लेता है। कुछ हिस्सा खराब भी हो जाता है। अतः गन्ना छोड़कर एमएसपी वाली फसलों में से लगभग 6.5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फसलें ही बाजार में बिक्री हुई। इसमें से सरकारी खरीद लगभग 2.75 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फसलों की हुई। बाकी लगभग 3.75 लाख करोड़ रुपये के मूल्य की फसलें ही निजी क्षेत्र द्वारा खरीदी गई। एक अनुमान के अनुसार निजी व्यापारी एमएसपी से औसतन 20 प्रतिशत कम मूल्य पर फसलें खरीदते हैं, अतः किसानों को इन फसलों के लगभग तीन लाख करोड़ रुपये ही मिले।

अब किसानों की मांग यह है कि ये निजी व्यापारी भी एमएसपी पर ही फसलें खरीदें, यह नहीं है कि सारी फसलें सरकार खरीदे। सरकार को केवल खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अनुसार या अपनी आवश्यकता की मात्रा ही खरीदनी होगी। किसानों की मांग निजी क्षेत्र या सरकार द्वारा किसानों की सारी फसलें खरीदने के लिए बाध्य करना नहीं हैं, परन्तु यदि कोई निजी व्यापारी या सरकार बाजार में उतरते हैं तो वह किसान को एमएसपी वाली कीमत देने के लिए अवश्य कानूनी रूप से बाध्य हों। यदि इस मांग को मान लिया जाता है तो सरकार के ऊपर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा, केवल निजी व्यापारी जो अब तक किसानों का आर्थिक शोषण करते रहे हैं उसपर अंकुश अवश्य लग जाएगा। यदि यह कानून बने तो उपरोक्त वर्ष की गणना में किसानों को निजी व्यापारियों से 75,000 करोड़ रुपये और मिलते। यही मूलभूत लड़ाई है। प्रश्न यह है कि सरकार इस मांग पर अपने पैर क्यों घसीट रही है, जबकि उसका एक रुपया भी इसमें अतिरिक्त खर्च नहीं होना है। उल्टे यह अतिरिक्त धनराशि किसानों के हाथ में पहुंचने से अर्थव्यवस्था में मांग, रोजगार, कालांतर में निवेश और सरकार का टैक्स बढ़ेगा। सरकार को व्यापारियों के हित से ज्यादा किसानों के हितों का संरक्षण करना चाहिए।

कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि एमएसपी निजी क्षेत्र पर बाध्यकारी नहीं किया जा सकता। परन्तु ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां जनहित या वर्गहित में, आर्थिक व सामाजिक कारणों से सरकार सेवाओं या वस्तुओं का मूल्य निर्धारित या नियंत्रित करती है तो किसानों की आर्थिक सुरक्षा हेतु फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित क्यों नहीं किया जा सकता। अभी हाल ही में सबसे ताज़ा उदाहरण कोरोना की वैक्सीन व इसके इलाज में लगने वाली अन्य दवाइयों के मूल्य को निर्धारित करने का है। गन्ने का रेट हर साल सरकार घोषित करती है और उसी रेट पर निजी चीनी मिलें किसानों से गन्ना खरीदती हैं। चीनी मिलों को भी सरकार ने चीनी के न्यूनतम बिक्री मूल्य की सुरक्षा दी हुई है। मज़दूरों का शोषण रोकने के लिए सरकार न्यूनतम मजदूरी दर घोषित करती है। सरकार अपने स्वयं के राजस्व की सुरक्षा हेतु जमीनों का न्यूनतम बिक्री मूल्य व सेक्टर रेट घोषित करती है। आजकल सरकार ने हवाई जहाज के न्यूनतम किराए भी घोषित किए हुए हैं। टेलीकॉम क्षेत्र की कंपनियां भी घाटे से उबरने के लिए अपनी सेवाओं के लाभकारी न्यूनतम मूल्य घोषित करने की मांग कर रही हैं। जब यह सब हो सकता है तो किसानों को यह अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता।

एक अन्य तर्क यह भी दिया जा रहा है कि यदि एमएसपी बाध्यकारी होगा तो निजी व्यापारी फसलें नहीं खरीदेंगे जिससे किसान बर्बाद हो जाएंगे। ऐसे में सरकार को सारी फसल खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यह एक कुतर्क है। क्या गन्ने का मूल्य घोषित करने से चीनी मिलें या किसान बर्बाद हो गए, क्या सारा गन्ना सरकार खरीद रही है। क्या न्यूनतम किराए घोषित करने से कोई हवाई यात्रा नहीं कर रहा और सारी एयरलाइंस बर्बाद हो गई हैं या सरकार को सारी उड़ाने बुक करनी पड़ रही हैं। पेट्रोल-डीजल के रेट अभी भी अपरोक्ष रूप से सरकार नियंत्रित कर रही है, तो क्या 100 रुपये से ज्यादा मूल्य करने पर कोई भी पेट्रोल-डीजल नहीं खरीद रहा और तेल शोधक कारखाने सारा तेल सरकार को बेच रहे हैं। क्या न्यूनतम मजदूरी के कानून से कोई उद्योग मज़दूरों को रोजगार नहीं दे रहा और इन सबको सरकार नौकरी देने के लिए मजबूर है।

वास्तविकता तो यह है कि जब तक मनुष्य जीवित है उसे भोजन की आवश्यकता होगी ही होगी इसलिए एमएसपी पर कोई नहीं खरीदेगा जैसे तर्क बेमानी हैं। निजी व्यापारी जिस मूल्य पर खरीदते हैं उसपर अपना मुनाफा जोड़कर आगे बेच देते हैं अतः उन्हें खरीदने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। एमएसपी कानून से उल्टे सरकार की खरीद कम हो जाएगी क्योंकि जब सरकार और निजी व्यापारी एक मूल्य पर ही खरीद करेंगे तो किसान के पास सरकार को बेचने का कोई अन्य आर्थिक कारण नहीं होगा। इससे सरकार अत्यधिक खरीद, भंडारण और वितरण की समस्या और इस कारण सरकारी खजाने पर पड़ रहे अतिरिक्त आर्थिक बोझ से भी बचेगी। इससे फसलों के विविधीकरण का उद्देश्य भी प्राप्त होगा क्योंकि जब सभी फसलें एमएसपी पर बिकेंगी तो किसान गेहूं-धान के फसल चक्र से भी निकलकर अन्य फसलों का उत्पादन बढ़ा देगा।

2019 में कंपनियों की आयकर दर घटाने के एक निर्णय से ही सरकार को लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का घाटा प्रति वर्ष हो रहा है और कंपनियों को यह लाभ हुआ है, जो हर साल बढ़ता जाएगा। इस तथ्य के प्रकाश में सरकार के लिए एमएसपी बाध्यकारी बनाने का निर्णय शायद कुछ आसान हो। इससे सरकार को कोई घाटा नहीं होगा क्योंकि एमएसपी कानून बनने से कोई अतिरिक्त राशि सरकार को नहीं चुकानी है। कृषि जिंसों के व्यापार में लगे लाखों व्यापारियों और निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए भी यह बहुत बड़ी रकम नहीं है। वास्तव में एमएसपी मूल्य किसानों का अधिकार है जो अब तक उन्हें नहीं दिया गया। सरकार को चाहिए कि वह एमएसपी की वैधानिक गारंटी की मांग को तत्काल मान ले व अन्य मांगों का समयबद्ध निस्तारण करने के लिए एक समिति का गठन कर दे जिससे आंदोलनकारी किसान अपने घर लौट जाएं।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)

Arun Mishra

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Sub-Editor of Special Coverage News

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