राष्ट्रीय

अलविदा कलमुंहे साल!

suresh jangir
31 Dec 2020 12:42 PM GMT
अलविदा कलमुंहे साल!
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जाओ कलमुंहे साल ! अब कभी शक़्ल न दिखाना ! नया साल आने दो! उम्मीदों का नया सूरज खिलने दो

'आपदा को अवसर' बनाने में मिली कामयाबी के चलते जाते हुए साल को 'शुक्रिया' कहने वालों की तादाद बहुत थोड़ी होगी। यूं तो हर साल इंसान को अच्छे-बुरे दिन दिखाता हैं लेकिन मौजूदा साल जैसा दुःस्वप्न लेकर आया पूरे साल बर्बादियों की बारिश होती रही।

सहस्त्राब्दियों से धार्मिक सहिष्णुता और आपसी भाईचारे के रंग में सराबोर भारतीय समाज को धर्म के नाम पर बाँट देने वाला पहला साल 1947 था। स्वच्छ और निर्मल बहती गंगा-यमुना सरीखी नदियां उसी साल इंसानी रक्त में भीग कर अपवित्र लाल हो गई थीं। 'नागरिकता संशोधन क़ानून' की कृपा से समाज को धार्मिक बंटवारे व भाईचारे को घृणा के सागर में डुबा डालने की दूसरी कोशिश गुज़रे मनहूस साल ने ही की थी।

बेशक़ कोरोना के हमले ने सारी दुनिया को हलाकान किया लेकिन बीमारी से उपजा भीषण भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन, अर्थ व्यवस्था का भरभरा कर ढह जाना, करोड़ों बेक़सूरों का रोज़गार से विमुख हो जाना, भूख से बेहाल असंख्य ग़रीबों का राजमार्गों से लेकर पगडंडियों तक पर उमड़ पड़ना और क़्वेरेन्टाइन की आड़ में लाखों बेसहारा बीमारों को उनके हाल पर छोड़ देने की घृणात्मक कार्रवाइयों की जैसी अनुगूंज इस साल में सुनने को मिली, वैसी इतिहास में पहले कभी नहीं मिलती।

दिल्ली के बॉर्डर पर जमा लाखों-लाख किसानों की भीड़ इस बात की गवाह है कि यह साल खेती और किसानी के लिए भी बड़ा अशुभ रहा। पलासी के युद्ध में बंगाल की सरज़मीं को भारतीय नवाब सिराजुद्दौला से छीन कर अपने हाथों लेने की ब्रिटिश पूंजीपति कम्पनी-'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' की कार्रवाई 23 जून 1757 को हुई थी। सौ साल बाद अंग्रेज़ों ने पूरे देश की धरती पर क़ब्ज़ा कर लिया था। आज किसानों को डर है कि नए कृषि क़ानूनों की आड़ में सरकार उनकी भूमि को पूंजीपतियों के हवाले कर देना चाहती है। अगर उनका डर सच्चा है तो क्या इन नए क़ानूनों को 'अध्यादेश' के रूप में लागू करने के लिए जून के महीने को चुने जाने की पृष्ठभूमि इतिहास से जानबूझ कर चुरायी गयी है?

इस सारी तबाही के बावजूद आत्मप्रशंसा, खुद की वाहवाही और अपने गाल बजाने की जैसी बाढ़ इस साल आई, उसकी तुलना भी अंग्रेज़ों से होनी चाहिए। पिछले दिनों किये गए ब्रिटिश सरकार के एक सर्वे में उसके 43% नागरिकों ने पुराने औपनिवेशिक ब्रिटिश राज को 'श्रेष्ठ' माना है। इसी सर्वे में दुनिया के बड़े हिस्से के देशों को ग़ुलाम बनाकर रखने वाली ब्रिटिश संस्कृति को 44% नागरिकों ने 'गर्व' की बात माना है। इस अध्ययन में शामिल अंग्रेजों ने एक से एक ऐसी हास्यास्पद बातें कहीं हैं जो आज के लोकतान्त्रिक समाज में बुद्धि, ज्ञान और विवेक वाले किसी भी व्यक्ति के गले कैसे उतरेंगी? मिसाल के तौर पर- औपनिवेशिक राज्यों की जनता के साथ 'मनुष्यवादी' रवैया अपनाने वाली अंग्रेज़ हुक़ूमत दुनिया की एकमात्र साम्राज्यवादी शक्ति थी जिसने उनका कभी न दमन किया न उत्पीड़न! अध्ययन में उनकी यह सोच तो निकल कर आती ही है कि ब्रिटिश राज ने अपने सभी उपनिवेश के नागरिकों को अनेक लोकतान्त्रिक अधिकार दे रखे थे, यह भी कि बिना किसी बाहरी दबाव के, अपने उपनिवेशों को स्वतंत्रता सौंपने वाला वह दुनिया का अकेला साम्राज्य था!

जाओ कलमुंहे साल ! अब कभी शक़्ल न दिखाना ! नया साल आने दो! उम्मीदों का नया सूरज खिलने दो

('नये समीकरण' के 31 दिसंबर 2020 के अंक में प्रकाशित मेरा आलेख)

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