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अगर इन्दिरा होतीं तो आक्सीजन अस्पतालों में और ब्लैकिए जेलों में होते

Shiv Kumar Mishra
26 April 2021 2:50 AM GMT
अगर इन्दिरा होतीं तो आक्सीजन अस्पतालों में और ब्लैकिए जेलों में होते
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आज सड़क पर पड़ा हुआ चेता रहा है कि अगर उसकी खेती किसानी नहीं बची तो देश फिर अनाज के जमाखोरों, कालाबाजारियों, मुनाफाखोरों के हाथ में चला जाएगा।

शकील अख्तर

देश के एक कोने से दूसरे कोने की अधिकतम दूरी कितनी है? ज्यादा से ज्यादा छह घंटे की! और आस पास के दस, बीस, पच्चीस देशों की? इतनी ही या इसमें दो तीन छंटे और जोड़ लीजिए! दस घंटे में इस उप महाद्वीप और आस पास के कई उपमहाद्वीपों से कभी भी कुछ भी लाया, मंगाया जा सकता है। भारत की हवाई सेवा और खासतौर से वायुसेना इतनी सक्षम है। मगर दो हफ्ते से ज्यादा हो गए देश भर में जगह जगह हजारों लोग मेडिकल आक्सीजन की कमी से तड़प तड़प कर मर रहे हैं।

सबसे यातनादायक मौत! हिटलर मारता था गैस चेंबर में। मगर ऐसी मौतें कभी किसी ने नहीं सुनीं जब अस्पतालों में आक्सीजन खत्म हो रही हो, अस्पताल अदालतों को दौड़ रहे हों, मरीज के परिजन बाजार के ब्लैक मार्केटियों की तरफ और मरीज नली में से जोर जोर से सांस लेने की कोशिश करते हुए तड़प रहा हो कि आक्सीजन क्यों नहीं खिंच रही! और ऐसे में जनता के जख्मों पर ये कहकर नमक छिड़का जा रहा हो कि सकारात्मक रहें। नकारात्मकता को अपने पास नहीं फटकने दें।

मौत तो हर घड़ी हो रही हैं। सामने सामने! सरकार की लापरवाही और बेफ्रिक्री के कारण। मगर इसका दोष एक एबस्टर्ड (अमूर्त) सिस्टम पर रखने को कहा जा रहा है। टीवी और व्ह्ट्सएप ग्रुप पूरी ताकत में इसमें लग गए हैं। मरीजों पर ही सवाल उठाए जा रहे हैं कि वह ज्यादा आक्सिजन खींच रहा है और वह बिना आक्सिजन के रह सकता है, मगर हटाते ही तड़पने लगता है।

ऐसे में अगर इन्दिरा गांधी की याद आ रही है तो क्या गलत आ रही है! एक मिनट में देश की सारे आक्सिजन प्लांटों का राष्ट्रीयकरण करके उनका उत्पादन दो गुना कर दिया जाता। हालांकि आज भी उत्पादन हमारी मांग के आसपास ही है। खैर तो दूसरा, अगले आदेश तक सारी आक्सीजन सिर्फ मेडिकल उपयोग के लिए सुरक्षित कर दी जाती। मतलब औद्योगिक उपयोग पर पूर्णत: पाबंदी लग जाती। हर रेल में फ्री आक्सीजन सिलेंडर की ढुलाई होती। जितने ट्रक चाहिए होते इस काम में लगा दिए जाते। और जहां इमरजेंसी है वहां हवाई जहाज, हैलिकाप्टरों से आक्सीजन पहुंच गई होती। जरूरत होती तो विदेशों से मंगवा ली जाती। जनता की जान से ज्यादा कुछ कीमती है? ज्यादा नहीं सिर्फ सौ पचास कालाबाजारियों, जमाखोरों का दस बीस शहर में जुलूस निकलवा देतीं। जैसा कि उन्होंने अनाज के जमाखोरों का सत्तर के दशक में निकलवाया था।

हर गोदाम के, दुकान के बाहर 56 इंच से ज्यादा चौड़े और कम से कम आठ फुट लंबे बोर्ड लगे होते थे, जिन पर उपलब्ध सामान और उनका भाव लिखा होता था। दूकान वाला, गोदाम वाला दिन में दस बार देखता था कि बोर्ड के सामने तो कुछ रख तो नहीं गया कि वह साफ नहीं दिखे। आई कैच नहीं करे! आज अस्पताल अदालत जा रहे हैं, इन्दिरा के शासन में बड़े उद्योगपति अदालत जाते थे कि प्रधानमंत्री हमारी नहीं सुनतीं आप सुन लो! आक्सिजन की कमी से लेकर, अस्पताल में बेड, दवाइयां सब ब्लैक में! जो बेसिक चीज है वह टेस्ट तो हो ही नहीं रहे। सुबह 5 बजे से लाइन में खड़ी औरतें, बुजुर्ग शाम को बिना नंबर आए वापस आ रहे हैं। लोग टेस्ट करवाने के लिए सोशल मीडिया में अपीलें डाल रहे हैं। जिनका हो रहा है, उनकी रिपोर्ट चार- पांच दिन बाद आ रही है। इन्दिरा जी तो बड़ी बात हैं, उनके सामने तो अमेरिका भी कांपता था, अगर पावर का इस्तेमाल करने दो तो एक कलेक्टर, एसपी या एसएचओ भी इतनी ताकत रखता है कि एक इशारे में सारा सिस्टम लाइन में आ जाता है। मगर आप तो कह रहे हैं कि सारा काम अफसर ही करेंगे, उद्योगपति नहीं? तो बाजार अपना काम कर रहा है!

आक्सीजन या तो दुनिया से खत्म ही हो जाती या फिर ब्लैक में नहीं बिकती। जिस सिस्टम की कमी का भक्तों द्वारा झूठा नरेटिव चलाया जा रहा है वह सिस्टम एक मिनट में सिर के बल खड़ा हो जाता। क्या हुक्म है मेरे आका। एक पुलिस कान्सटेबल बाजार का चक्कर लगाता और सब दुकानदार चिल्ला चिल्लाकर कहते हवलदार साहब दवाइयां पूरी है। कोई कमी नहीं है। किसी गरीब के पास दो पैसे भी कम हैं तो उसे भी दे रहे हैं। प्रिंट रेट पर नहीं उससे भी कम।

ये होता है सरकार का इकबाल। और वह इकबाल बनता है आम जनता के प्रति प्रतिबद्ध होने से। नेता के दिल में जनता के लिए प्यार होता है, सम्मान होता है तो उसकी अथारटी अपने आप कई गुना बढ़ जाती है।

गोदी मीडिया या अब तो जनता गिद्ध मीडिया कहने लगी है और भक्त जिन्हें जनता कल मुखबिर या गद्दार कहेगी चाहे जितना झूठा प्रचार कर लें मगर भविष्य को तो नहीं रोक सकते। अगर तीनों काले कृषि कानून वापस नहीं हुए तो आज जिस तरह लोग आक्सिजन के लिए तड़प रहे हैं, कल अनाज के लिए झोली फैलाए घूमेंगे। सत्तर के दशक में हमारी क्या पहचान थी? भीख का कटोरा हाथ में लिए भारत। इन्दिरा ने हरित क्रान्ति क्यों की? भक्त अगर थोड़ी देर अपने बच्चों, घर, परिवार को देख लें। व्हट्सएप ग्रुपों के झूठे मैसेजों से बाहर आ जाएं और टीवी के जहरीले प्रचार को न देखें तो उन्हें समझ में आ जाएगा कि आज उनके पास जो राशन की व्यवस्था, खाने पीने की सुरक्षा है उसका आधार 1966- 67 में इन्दिरा गांधी द्वारा की हरित क्रान्ति है। भारत का गौरव, आत्मनिर्भरता की कहानी। कोरोना की महामारी के बीच उससे निपटने की कोशिशें तो छोड़ दी गईं, मगर किसानों को बरबाद करने वाले कृषि कानून संसद में पास करा दिए गए। आक्सीजन का उत्पादन तो नहीं बढ़ाया, अडानी के बड़े बड़े गोदाम जगह जगह बनवा दिए गए।

छह महीने से किसान सड़कों पर है, उससे बात भी नहीं हो रही। इसी किसान ने देश को खाद्य सुरक्षा दी थी। और आज सड़क पर पड़ा हुआ चेता रहा है कि अगर उसकी खेती किसानी नहीं बची तो देश फिर अनाज के जमाखोरों, कालाबाजारियों, मुनाफाखोरों के हाथ में चला जाएगा।

जैसे कभी देश अमेरिका पर निर्भर था। वहां से लाल गेहूं आता था। 1965 के युद्ध के समय, उसी में जिसमें हवलदार अब्दुल हमीद के पास थी मामूली गन माउंटेड जीप और सामने थे अमेरिका के पाकिस्तान को दिए उस समय के सबसे आधुनिक पैटन टैंक। हवलदार हमीद ने 8 टैंक उड़ा दिए। अमेरिका के अखबारों ने लिखा असंभव! उन्हीं का 61 वर्षीय बेटा अली हसन अभी दो दिन पहले कानपुर के अस्पताल में बिना आक्सीजन के मरा। तो अमेरिका ने 1965 में पीएल 480 के अन्तर्गत भारत आने वाले गेहूं के जहाज बीच रास्ते में से वापस बुला लिए।

इन्दिरा इसे नहीं भूलीं। प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले हरित क्रान्ति शुरू की। भारत का किसान जो बहुत परंपरावादी है इन्दिरा के आह्वान पर इस क्रान्ति के साथ खड़ा हो गया। नोबल पुरस्कार विजेता अब तक के सबसे बड़े कृषि वैज्ञानिक नार्मन बोरलाग ने भारतीय किसान के लिए कहा बेमिसाल! तो अभी तक खाद्यान से भरे गोदाम इस बात की गारंटी थे कि भारत भूखों नहीं मर सकता वह विश्वास कृषि कानूनों के बाद रहेगा या नहीं कोई नहीं जानता।

आक्सीजन के बिना तो सामान्य इंसान कुछ मिनट नहीं रह सकता, बीमार तो और भी कम तब भी केन्द्र सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से लेती नहीं दिख रही। तो जब नए कृषि कानून सारा अनाज दो चार बड़े उद्योगपतियों के गोदामों में पहुंचा देंगे तब तो साफ कहा जाएगा कि दो तीन दिन कोई रोटी नहीं खाएगा तो मर तो नहीं जाएगा। रोटी भी आक्सिजन की तरह ब्लैक में मिलेगी जिसके पास पैसे हैं खरीद ले बाकी कैसे जिए या मरें इसका कोई जिम्मेदार नहीं माना जाएगा। टीवी और व्ह्ट्सएप नया नरेटिव गढ़ लेगें। जनता को ही दोषी बताया जाएगा।


लेखक देश के जाने माने पत्रकार है

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