राष्ट्रीय

स्वतंत्रता दिवस: परंपरा, राजनीति और विपक्ष की गैरमौजूदगी

Arun Mishra
15 Aug 2025 5:49 PM IST
स्वतंत्रता दिवस: परंपरा, राजनीति और विपक्ष की गैरमौजूदगी
x
दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में विपक्षी नेता राष्ट्रीय आयोजनों में औपचारिक रूप से शामिल होते हैं, चाहे वे सरकार के कट्टर आलोचक ही क्यों न हों।

अनिल पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार

भारत का स्वतंत्रता दिवस केवल एक राष्ट्रीय अवकाश या औपचारिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतांत्रिक अस्तित्व और राष्ट्रीय चेतना का सबसे बड़ा प्रतीक है। यह वह दिन है जब 1947 में देश ने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति पाई, और हम एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपनी यात्रा शुरू करने का संकल्प लेकर आगे बढ़े। यही कारण है कि हर वर्ष 15 अगस्त का समारोह न केवल सरकार का, बल्कि पूरे राष्ट्र का आयोजन माना जाता है। जहां विचारधारा, दलगत राजनीति और व्यक्तिगत मतभेद पीछे छूट जाते हैं, और राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है। ऐसे में इस वर्ष के स्वतंत्रता दिवस समारोह से प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और कांग्रेस की शीर्ष नेता सोनिया गांधी का अनुपस्थित रहना केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि एक गंभीर लोकतांत्रिक संकेत के रूप में देखा जाना चाहिए।

लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष के बीच तीखी बहस, आलोचना और विरोध सामान्य और आवश्यक हैं। लेकिन राष्ट्रीय पर्वों का उद्देश्य उस बहस को एक दिन के लिए विराम देकर पूरे देश को एक साझा मंच पर लाना है। राष्ट्रपति भवन, संसद, लाल किला और राजघाट, ये केवल स्थान नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं। इतिहास गवाह है कि कटु राजनीतिक परिस्थितियों के बावजूद भी नेता इन अवसरों पर एक साथ उपस्थित होते रहे हैं। इमरजेंसी के बाद 1977 में जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई और जनता पार्टी की सरकार आई, तब भी तत्कालीन विपक्षी नेता मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय समारोहों में उपस्थित रहे। यही परंपरा अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के दौर में भी निभाई गई।

कांग्रेस का यह कदम कई तरह के संकेत देता है। कांग्रेसियों का यह तर्क हो सकता है कि यह मौजूदा राजनीतिक तनाव, संसद में हाल की घटनाओं, या सरकार के रवैये के प्रति असंतोष का प्रतीक है। राहुल गांधी और खड़गे पहले भी आरोप लगा चुके हैं कि विपक्ष की आवाज़ संसद में दबाई जा रही है, और सरकार संवाद के लिए गंभीर नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय पर्व इन नाराज़गियों को प्रदर्शित करने का उपयुक्त मंच है? क्या इससे जनता के मन में यह संदेश नहीं जाएगा कि राजनीतिक मतभेद राष्ट्रीय एकता से ऊपर रखे जा रहे हैं?

लोकतंत्र केवल चुनाव और बहुमत का नाम नहीं है; यह संस्थाओं, परंपराओं और साझा मूल्यों के प्रति आस्था पर टिका है। स्वतंत्रता दिवस जैसे अवसर उस आस्था को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने का मौका देते हैं। विपक्ष की अनुपस्थिति यह धारणा मजबूत कर सकती है कि हमारी राजनीति अब इतनी ध्रुवीकृत हो चुकी है कि हम राष्ट्रीय उत्सवों पर भी एक साथ खड़े नहीं हो सकते।

राहुल गांधी और कांग्रेस के इस कृत्य का दीर्घकालिक परिणाम खतरनाक हो सकता हैं। यह परंपरा यदि टूटने लगे तो भविष्य में किसी भी दल के सत्ता में होने पर विरोधी पक्ष ऐसे आयोजनों को नज़रअंदाज़ करने लगेगा और धीरे-धीरे राष्ट्रीय पर्व भी दलगत खेमों में बंट जाएंगे।

यह लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपरा के लिए ठीक नहीं होगा।

दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में विपक्षी नेता राष्ट्रीय आयोजनों में औपचारिक रूप से शामिल होते हैं, चाहे वे सरकार के कट्टर आलोचक ही क्यों न हों। अमेरिका में राष्ट्रपति के "स्टेट ऑफ द यूनियन" संबोधन में विपक्षी नेता की मौजूदगी परंपरा है। ब्रिटेन में भी राष्ट्रीय दिवस और स्मृति समारोह में सभी दलों की भागीदारी सुनिश्चित की जाती है। यह सहभागिता केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि लोकतंत्र की स्थिरता और परिपक्वता का प्रतीक मानी जाती है।

आम नागरिक राजनीति की रोज़मर्रा की कड़वाहट से ऊपर उठकर राष्ट्रीय पर्वों में नेताओं से एकजुटता की उम्मीद करता है। जब लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री भाषण देते हैं, तो वह केवल एक दल के मुखिया के रूप में नहीं, बल्कि पूरे देश के नेता के रूप में बोलते हैं। उसी प्रकार, विपक्षी नेताओं की मौजूदगी यह संकेत देती है कि वे भी राष्ट्र के प्रति उसी प्रतिबद्धता और सम्मान के साथ खड़े हैं, चाहे उनकी राजनीतिक राय अलग हो।

संभव है कि कांग्रेस का इरादा सरकार के खिलाफ असंतोष को अधिक स्पष्ट और सार्वजनिक करना रहा हो। लेकिन, राजनीतिक लाभ के लिहाज से यह कदम उल्टा भी पड़ सकता है। विरोध के लिए मंच और अवसर बहुत हैं लेकिन स्वतंत्रता दिवस जैसे अवसर पर दूरी बनाना, जनता के मन मे विपक्ष की छवि को "नकारात्मक राजनीति" करने वाला बनाएगा। इससे कांग्रेस को नुकसान हो सकता है। इस तरह की स्थितियों से बचने के लिए जरूरी है कि राष्ट्रीय पर्वों के आयोजन को दलगत राजनीति से पूरी तरह अलग रखने का एक सर्वदलीय संकल्प लिया जाए।

राहुल गांधी, खड़गे और सोनिया गांधी का स्वतंत्रता दिवस समारोह में अनुपस्थित रहना केवल एक दलगत निर्णय नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक परंपरा पर एक चोट है। यह मिसाल गलत संदेश देती है कि राजनीतिक मतभेद राष्ट्रीय पर्व की गरिमा से ऊपर हो सकते हैं। लोकतंत्र की असली ताकत इसी में है कि हम मतभेदों के बावजूद साझा राष्ट्रीय मूल्यों के लिए एक मंच पर खड़े हो सकें।

राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि राष्ट्रीय पर्व पर उनकी मौजूदगी केवल औपचारिक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व है, जो न केवल आज की पीढ़ी, बल्कि आने वाले समय के लिए भी लोकतांत्रिक परंपरा को जीवित रखता है। राहुल गांधी ने स्वतंत्रता दिवस समारोह में हिस्सा न लेकर गलत परम्परा की शुरुआत की है। यह लोकतंत्र के लिए हितकारी नहीं है।




(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

Arun Mishra

Arun Mishra

Sub-Editor of Special Coverage News

Next Story