
मिर्ज़ा ग़ालिब की 221वीं जयंती आज, पढ़ें- गालिब के कुछ चुनिंदा शेर

मिर्जा असदुल्लाह बेग ख़ान यानी ग़ालिब उर्दू शायरी का वह चमकता सितारा है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं है। 27 दिसंबर, 1797 में पैदा हुए ग़ालिब की वफ़ात (निधन) भले ही 15 फरवरी, 1869 को हो गई लेकिन उनकी शायरी और उनका नाम अब तक ज़िंदा है। आइए आज उनकी यौम-ए-विलादत (जयंती) के मौके पर उनके कुछ सदाबाहर शेर से आपको रू-ब-रू कराते हैं...
मिर्जा गालिब का जन्म में आगरा के एक सैन्य परिवार में हुआ था। छोटी सी उम्र में गालिब के पिता की मौत हो गई जिसके बाद उनके चाचा ने उन्हें संभाला लेकिन उनका साथ भी ज्यादा दिन नहीं रहा। जिसके बाद उनकी देखभाल उनके नाना-नानी ने की। मिर्जा गालिब का विवाह 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से हो गया था। जिसके बाद वह दिल्ली आ गए औऱ यही रहें। मिर्जा गालिब ने इश्क की इबादत हो या नफरत या दुश्मनों से प्यार सभी शायरी में दर्द छलकता है।
मिर्जा गालिब को मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने अपना दरबारी कवि बनाया था। उन्हें दरबार-ए-मुल्क, नज्म-उद दौउ्ल्लाह के पदवी से नवाजा था। इसके साथ ही गालिब बादशाह के बड़े बेटे के शिक्षक भी थे। मिर्जा गालिब पर कई किताबें है जिसमें दीवान-ए-गालिब, मैखाना-ए-आरजू, काते बुरहान शामिल है।
गालिब के कुछ चुनिंदा शेर:
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश पर दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद,
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है...
फिर उसी बेवफा पे मरते हैं
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है
बेखुदी बेसबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दादारी है
नादान हो जो कहते हो क्यों जीते हैं "ग़ालिब"
किस्मत मैं है मरने की तमन्ना कोई दिन और.
अक़्ल वालों के मुक़द्दर में यह जुनून कहां ग़ालिब
यह इश्क़ वाले हैं, जो हर चीज़ लूटा देते हैं...
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम वहां हैं जहां से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
दिल-ए-नादां, तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
मेहरबां होके बुलाओ मुझे, चाहो जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं हूं, कि फिर आ भी न सकूं
या रब, न वह समझे हैं, न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जबां और
कैदे-हयात बंदे-.गम, अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी, .गम से निजात पाए क्यों
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
रंज से खूंगर हुआ इंसां तो मिट जाता है गम
मुश्किलें मुझपे पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं