राष्ट्रीय

प्रभाकर कुमार मिश्र की नई क़िताब, किसान बनाम सरकार: आंदोलन की कहानियाँ, किसानों की अनबूझ कहानियों का संग्रह

Shiv Kumar Mishra
30 March 2023 9:01 AM GMT
प्रभाकर कुमार मिश्र की नई क़िताब, किसान बनाम सरकार: आंदोलन की कहानियाँ, किसानों की अनबूझ कहानियों का संग्रह
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इस किताब में पूरे आंदोलन को पिरोया गया है।

देश में किसान आंदोलन की शुरुआत की जड़ तो जून में पड़ी लेकिन शुरुआत सितंबर के महीने में सर्वप्रथम पंजाब राज्य से हुई। इस आंदोलन पर देश के चर्चित पत्रकार प्रभाकर मिश्रा ने बड़ी पैनी निगाह रखी। क्योंकि इससे पहले प्रभाकर मिश्रा की "अयोध्या एक रुका हुआ फैसला" बाजार मेन धमाल मचा चुकी थी। पूरे आंदोलन में सबसे ज्यादा सटीक खबर देने वाले प्रभाकर मिश्रा ने इस पूरे आंदोलन को अपने शब्दों के जाल में पिरो दिया और 31 मार्च को पुस्तक का विमोचन दिल्ली में किया जाएगा।

हालांकि किताब आप के सामने जल्द होगी लेकिन प्रभाकर मिश्रा ने पूरे आंदोलन को शब्दों की चासनी में इस प्रकार लपेट दिया है कि पाठकों को पुस्तक का बेसब्री से इंतजार है। आइए किताब के कुछ पहलू आपके सामने बता देते है।

प्रभाकर मिश्रा ने लिखा है, जून 2020 में पंजाब के कुछ किसानों ने जब तीन कृषि सुधार अध्यादेशों का विरोध शुरू किया तो किसी को अंदाज़ा नहीं था कि प्रदर्शनकारी दिल्ली कूच कर जाएँगे। पाँच महीने बाद जब हज़ारों की संख्या में किसान-प्रदर्शनाकारी दिल्ली पहुँचे तो किसी को अंदाज़ा नहीं था — ख़ुद उन किसानों को भी नहीं — कि वे कितने दिन तक देश की राजधानी-क्षेत्र की घेराबंदी करके रखेंगे। कारण कि खेती जीवनभर का उद्यम होकर भी नितांत मौसमी है।

किसान की अमीरी और ग़रीबी उनकी पिछली फ़सल की सेहत पर निर्भर करती है। इसलिए, कई लोग यही मान रहे थे कि किसान-प्रदर्शनकारी ज़्यादा-से-ज़्यादा रबी की कटाई से पहले तक दिल्ली घेरे रहेंगे। फिर इनकी घर वापसी हो जाएगी।

लेकिन किसान रबी ही नहीं, ख़रीफ़ भी पार गए। अगली रबी के बीच में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि सुधार क़ानूनों की वापसी की घोषणा की तभी किसान घर वापसी की राह गए। यह कमाल की बात थी। किसान कोई एक जाति, समुदाय या धर्म से जुड़े नहीं होते। इसलिए इनका एक संगठन के लिए काम करना एक दूभर काम रहा है। खेती के हल में इतनी मजबूती नहीं दिखी है कि जातिगत, सामुदायिक या धार्मिक पहचान की गोंद खोद सके। इसलिए इन प्रदर्शनकारियों का किसी निर्णय पर सहमत होना कमाल की बात थी। वह भी एक साल तक।

किसान-प्रदर्शकारी, उनके नेता सहमत हो रहे थे। लेकिन वे एकमत नहीं थे। वे होमोजीनस या समरस नहीं थे। उनमें टकराव था, प्रतिस्पर्धा भी थी और ज़बरदस्त मतांतर भी था। प्रभाकर कुमार मिश्र की नई क़िताब, किसान बनाम सरकार: आंदोलन की कहानियाँ, किसानों की ऐसी कहानियाँ बयां करती है। इसमें उन किसानों की कहानियाँ हैं जिन्होंने कड़कड़ाती ठंड और झुलसाती गर्मी से ही नहीं भिड़े बल्कि इस आंदोलन को लाल क़िला हिंसा, बंगाल से आई महिला के रेप या पंजाब से आए एक शख़्स को क्षत-विक्षत कर हाइजैक करने की कोशिश को भी मात दी।

यह क़िताब हमें वह परिप्रेक्ष्य भी देती है, औपनिवेशिक काल तक हमें ले जाकर, जिसमें हम यह समझ पाते हैं कि आख़िर किसानों को ऐसा क्यों लगा कि यह संघर्ष सिर्फ़ उनकी फ़सल बचाने की नहीं है बल्कि उनकी नस्ल बचाने की लड़ाई है। यही परिप्रेक्ष्य हमें यह समझने में भी मदद करता है कि आख़िर प्रधानमंत्री मोदी इस बात से क्यों क्षुब्ध थे कि उनकी सरकार किसानों को यह समझाने में विफल रही कि कृषि सुधार क़ानून असल में किस उद्देश्य से लाए गए थे।

इस क़िताब में उन सभी क्यों और कैसे के जवाब हैं जो कोविड-19 महामारी के चरम काल में दिल्ली की सीमाओं पर हो रहे थे। एक पठनीय दस्तावेज़।

इस किताब को जरूर पढ़ें ताकि आजादी के बाद कोई शांतिपूर्ण आंदोलन पहला था और जिसमें 700 किसानों की शहादत भी हुई। ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इस आंदोलन को किसानों का आंदोलन न मानकर एक बच्चों की रोजी रोटी और जमीन की लड़ाई के रूप में समझा जाए।

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