राष्ट्रीय

खेती की हकीकत: सपनों के झांसे में मत आइए

Shiv Kumar Mishra
21 May 2020 2:33 PM GMT
खेती की हकीकत: सपनों के झांसे में मत आइए
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असली महामारी तो अब इंतज़ार कर रही है

सन 2003 में उत्साहित होकर कुछ अलग करने को हमने तिल की खेती की ,ऐसी जबर्दस्त और अभूतपूर्व खेती हुई की हर देखने वाला खुश हो गया ...तैयार फसल बोरों में भर के जब नजीबाबाद मंडी पहुंचे तो जो भाव लेकर घर पहुंचे तो सारा उत्साह चूर था

2012 में जलागम योझना और उसके विशेषज्ञों से प्रभावित होकर लेमन ग्रास आयल का भूत चढ़ा और ढेड़ लाख रूपये में एक ऑयल डिस्टिलेशन प्लांट भी लगा दिया गया ...खेतो में लेमन ग्रास ,जामा रोजा ,पामा रोजा लगा दिया ...सात सौ से आठ सौ रूपये प्रति लीटर बाजार में बिकता था ...फसल हुई और जबर्दस्त हुई देखने वाले खुश हो गए ,तारीफ पे तारीफे

आयल डिस्टिल्ड हुआ और शुध्द कन्सन्ट्रेट गाढ़ा लेमन ग्रास हमारे पास था ...अब आई बिक्री की बारी तो अधिकारी बगले झाँकने लगे उनका काम सिर्फ फसल उगवा के फोटो खिंचवाने तारीफ करने तक था क्योंकि वही तक राज्य की नीति थी और उसी के उन्हें पैसे ,सेलरी मिलती थी उसके आगे राज्य की नीति और दर्शन दृष्टिहीन था

खैर खोजते खोजते तेल लेकर दिल्ली खारी बावली मंडी पहुंचे 120 रूपये प्रति लीटर पे बात तय हुई ,शक्ल ऐसी हो रही थी जैसे किसी लापरवाह और पढ़ने में कमजोर बच्चे का चेहरा उस वक्त होता है जब पिता के हाथों में स्कूल का सालाना रिपोर्ट कार्ड हो चायना के पिचहत्तर रूपये प्रति लीटर लेमन ग्रास ऑयल के आगे हमारा ऑयल कहा टिकता ...चायना से इतनी बड़ी मात्रा में लेमन ग्रास ऑयल आयात करने लगे थे भरतीय व्यापारी की वो हज़ार रुपये प्रति लीटर से गिरते गिरते सौ भी नही रह पाया ...

ठीक अगले साल सफेद मूसली का इरादा बन गया ,वही सफेद मूसली जिसके बने दलिया या न जाने कौन सा उत्पाद था जिसका ऐड जैकी श्रॉफ उन दिनों कर रहा था और शारीरिक स्टेमिना के लिए जो औषधि विभिन्न प्रकार से यूज होती है

आठ से नौ सौ रूपये किलो बाजार में बिकती देख हम बड़े उत्साहित थे बस खेती शुरू हो गयी और फसल फिर जबर्दस्त ...चाहे कुछ भी हो खेती में हमारे बड़े ताऊ और माता जी मुझे शत प्रतिशत यकीन है कि भारत के सबसे बड़े उद्यान विशेषज्ञों से ठीक ठाक ही होंगे

खैर जबर्दस्त मूसली हुई और फिर विक्रय की समस्या ..किसी तरह खारी बावली दिल्ली की मंडी पहुंचे ,जहा एक वक्त प्रतिबंध लगने से पहले अरबो का कत्था (जी हां पान में प्रयोग होने वाला कत्था)अपने उत्तराखण्ड से जाता था

एक बार फिर भाव सुनकर हृदयघात होने की बारी थी किसी तरह ढेड़ सौ रूपये में मजदूरी मात्र वापस आयी चीन से आने वाली सौ सवा सौ रूपये किलो मूसली हज़ारो टन की मात्रा में आसानी से उपलब्ध थी

अगले वर्ष एक हज़ार स्क्वायर मीटर के पॉली हाउस में ताऊजी द्वारा जरबेरा फ्लावर की खेती शुरू हो गयी ,फूल ऐसी उच्च गुणवत्ता के खिले की हालेंड बेल्जियम और लक्सेम्बर्ग में भी शायद इतने बेहतरीन हो पाते यकीन मानिए किसी किसी दिन दस या पन्द्रह पैसे प्रति फूल बिका और किसी दिन बिका ही नही ..

हमारे खेतो की फोटो दिखा दिखा कर न जाने कितने उद्यान और जलागम ,कृषि अधिकारी तरक्की की सीढ़ियां चढ़ गए

कभी एशियन डेवलपमेंट के लभी वर्ड बैंक कभी नाबार्ड जैसी संस्थाओं के जापान ,डेनमार्क ,स्वीडन और अन्य देशों से आने वाले प्रतिनिधियों को ये सब दिखा दिखा कर भारत द्वारा लिए गए लोन को वैधता और प्राषंगिकता प्रदान की जाती रही ...

यह सब इसलिए बताना पड़ा ,क्योंकि हमारे प्रदेश में इन दिनों हज़ारो की संख्या में मजदूर या मध्यम वर्ग के लोग वापस लौट रहे हैं

और देश से वापस लौटते हुए हज़ारो मजदूरो की दुर्दशा देख वे लोग भी द्रवित हैं बड़ी बड़ी क्रन्तिकारी और मर्मज्ञ तत्वदर्शी संतो जैसी उदारता और करुणा से भरी पोस्ट कर रहे है जो जीवन भर ऊँचे ओहदों पर रहे ऊँचे राजनैतिक आर्थिक परिवारों के कुलीन वर्गों से सम्बन्ध रखते रहे बड़ी बड़ी जमीनों के मालिक रहे कम्फर्ट जोन में रहे

इनकी पत्नियां अपना रंग उड़ चुका कोई कुरता कामवाली को इतना सोच सोच के देती है जितना राफेल की खरीदारी में भारत सरकार ने न सोचा हो और एक कुरता दान करने के बाद दान की श्रेणी में वे अपने को वारेन बफेट और बिलगेट्स के समकक्ष पाती हैं काश फ़ोर्ब्स और टाइम जैसी विश्व विख्यात संस्थाए इन अभिजात्य महिलाओं के इन महान आचरणों का संज्ञान ले पाती ...

ये वो सब लोग है जो हमेशा से सिक्योर स्थिति में हैं व्यवस्था के ऊँचे पदों में हैं और व्यवस्था में रहते हुए इन्होंने न जाने कितने ही लोगों और प्रवृतियों का शोषण किया हो

भावनाओ के स्तर पर मजदूरो की स्थिति पर मार्क्स और लेनिन और इसा मसीह से आगे बढ चुके बड़ी बड़ी बातें करने वाले ऐसे लोगो से घरेलू नौकरानी के लिए कठिन वक्त पर दो हज़ार रुपये तक नही निकल पाते...

सरकारे मजदूर और गरिबो को सम्हालने में सदा सदा से ही नाकामयाब रही है

कुछ लोग उत्तराखण्ड में आईं इस भीड़ को स्वरोजगार से जोड़ रही है खेती सबसे पहला ऑप्शन है वे लोग इसे सुझा रहे हैं जिन्हें यह पता नही की कुदाल को कैसे चलाया जाता है जिनके बच्चे तोते जैसी आँखे फ़ैलाने लगते है जब उन्हें पता चलता है कि पॉपकॉर्न मक्की जैसे दिखने वाली एक चीज से पैदा होता है की चावल धान से होता है फेक्ट्रियो में नही ...

अगर सारे उत्तराखण्ड के एक एक खेत में भी हम साल भर फसल उगा ले में यकीन से कहता हूँ हम साल भर के लिए आवश्यक पूँजी तक नही जुटा सकते

और अभी तो असिंचित खेत ,बंटी हुई छोटी जोतें ,गोल खाते अनुर्वर जमीन जंगली जानवर ,फसलों की बीमारियां असंख्य कारक है जो इन सुकुमारों को पता ही नही हैं

रोटी रोटी की समस्या नही होती तो देश भर से अपने अपने गाँव घर छोड़ कर करोडो की संख्या में लोग महानगरों की ओर न जाते ...

आज मौत के भय से जब ये लोग वापस लौट रहे हैं तो मुझे समझ नही आता की न जाने किस प्रेरणा से ये गाँव की ओर लौट रहे हैं

एक दो महीने तक तो गिरते पड़ते सरकार इन्हें दो वक्त की रोटी दे भी दे (जबकि यह भी अनिश्चित ही है )उसके बाद क्या होगा न रोजगार के अवसर न संसाधन ......

इतनी कच्ची आस पे लोग गाँव लौट रहे है जो उनके लिए दो जून की रोटी तक नही जुटा सकता ...

असली महामारी तो अब इंतज़ार कर रही है

(चंद्रेश योगी जी की पोस्ट) साभार

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