राष्ट्रीय

भूमंडलीकरण के दौर के उपन्यासों में उत्तर भारत के गाँव

Shiv Kumar Mishra
9 Feb 2023 8:45 AM GMT
भूमंडलीकरण के दौर के उपन्यासों में उत्तर भारत के गाँव
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शशांक कुमार

भूमंडलीकरण की अवधारणा समकालीन विमर्शों का सबसे महत्त्वपूर्ण विषय है। भूमंडलीकरण को अन्य संज्ञाओं जैसे- वैश्वीकरण, ग्लोबीकरण, विश्वायन, जगतीकरण, खगोलीकरण आदि से भी संबोधित किया जाता है। किंतु इसके लिए बहुधा प्रचलित संज्ञा भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण हैं। सामान्य रूप में इसका तात्पर्य ऐसी परिघटना से है जिसका वैश्विक परिदृश्य हो और जो विश्व के सभी राष्ट्रों, समाजों और समुदायों से सम्बद्ध हो। बीसवीं सदी के आखिरी दशक के आरंभ में वर्तमान भूमंडलीकरण की आहट सुनाई देने लगी थी। सोवियत संघ का विघटित होना और पूर्वी यूरोप में समाजवादी व्यवस्था का सिराजा बिखरने का भी यही दौर था। उत्तर आधुनिकता, इतिहास का अंत जैसे विमर्शों के बादल भी यहीं से छँटना आरंभ होता है। जिस साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी व्यवस्था को पूंजीवाद के विकास ने जन्म दिया और जिसके परिणामस्वरूप विश्व पूंजीवाद का विकास हुआ उसकी अगली कड़ी नव-उपनिवेशवाद और भूमंडलीकरण है, इसके चाल, चरित्र और चेहरे में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अनेक परिवर्तन आ गये हैं।

एंथोनी गिडेंस के अनुसार "वैश्विक स्तर पर सामाजिक संबंधों के सुदृढीकरण को भूमंडलीकरण की संज्ञा दी जा सकती है। भूमंडलीकरण दूरस्थ इलाकों को एक दूसरे से इस प्रकार जोड़ता है कि मीलों दूर घटने वाली घटनाएँ स्थानीय घटनाओं से तथा स्थानीय घटनाएँ मीलों दूर घटने वाली घटनाओं से साझेदारी का अनुभव करती हैं।"

भूमंडलीकरण के आरंभिक व्याख्याकारों में से एक समाजशास्त्री राबर्टसन लिखते हैं, "भूमंडलीकरण की निर्मिति उन प्रक्रियाओं के एक समूह के द्वारा हुई है जो आधुनिकता को गतिमय बनाए रखने में अंतर्निहित है। अवधारणा के रूप में भूमंडलीकरण विश्व के संकुचन तथा एक विश्व के रूप में चेतना की सघनता को इंगित करता है।"

'भूमंडलीकरण' हमारे समक्ष परिवर्तन की एक बहुआयामी प्रक्रिया के रूप में उपस्थित है, जिसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों जैसे सामाजिक, आर्थिक, सामरिक (सैन्य) आदि में परस्पर निर्भरता के उच्च स्तर को प्राप्त करने हेतु एक ऐसे विश्व व्यवस्था की स्थापना करना है जिसमें मानव जीवन की सभी आवश्यकताओं (वस्तु, सेवा, श्रम, पूंजी आदि) की पूर्ति बिना किसी बाधा के संभावित किया जा सके। इस आधार पर यह कहना वाजिब होगा कि अपने नैतिक व सर्वोत्कृष्ट रूप में मानव समाज को सुव्यवस्थित करने की यह एक युक्तिसंगत कल्पना है। भूमंडलीकरण जुड़ाव की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें विश्व स्तर पर मानव जीवन के सभी आयाम प्रभावित होते हैं। विश्व के किसी कोने में घटित घटना समूचे विश्व को प्रभावित करती है।

भारतीय समाज पर भूमंडलीकरण का प्रभाव 1990 के दशक से महसूस किया जाता है। धीरे-धीरे अब सभी इसके प्रभाव की तीव्रता को महसूस करने लगे हैं। अर्थव्यवस्था, मीडिया और कभी-कभी समाज पर भी भूमंडलीकरण के प्रभाव का लगभग नियमित रूप से विश्लेषण किया जाता है और विभिन्न मंचों पर बहस की जाती है। भूमंडलीकरण संचार, परिवहन और व्यापार में प्रगति द्वारा संचालित दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं, संस्कृतियों और आबादी की बढ़ती परस्पर संबद्धता और एक दूसरे पर अवलंबन को संदर्भित करता है। ग्रामीण विकास पर भूमंडलीकरण का प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकते हैं। किसी भी सरकार के समक्ष अपने देश के सभी क्षेत्रों का समन्वित विकास प्रमुख कार्यों में से एक होता है। वर्तमान में भारत के समक्ष दो समस्याएँ प्रमुख हैं- पहली समस्या ग्रामीण क्षेत्रों में फैली गरीबी के निराकरण और दूसरी समस्या ग्रामीण क्षेत्रों में विकास को बनाए रखने की है जो तीव्र औद्योगीकरण के कारण कहीं पीछे छूट रही है।राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनात्मक अक्षमताएं ग्रामीण गरीबों के विकास के लिए खतरा हैं। इसने गरीबी की समस्या को बढ़ा दिया है, जो विभिन्न रूपों में प्रकट हुई है, जैसे बेरोजगारी, असमानता, कुपोषण, मलिन बस्तियों का विकास, अज्ञानता इत्यादि ।

इस शोध आलेख में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से ग्रामीण यथार्थ को जोड़ने का कारण है कि विश्व मे सर्वाधिक गाँवों की संख्या हिंदुस्तान में विद्यमान है। हिंदुस्तान की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी गाँव में रहती है। गाँव में रहने वाले अधिकतर लोग कृषि पर आश्रित है, इसलिए हिंदुस्तान एक कृषिप्रधान देश के रूप में विश्व-पटल पर मौजूद है। ऐसे में भूमंडलीकरण के व्यापक प्रभाव हमें ग्रामीण क्षेत्रों में दिखाई देता हैं। जैसे कि आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभाव, औद्योगीकरण पर प्रभाव, रोजगार के अवसरों पर प्रभाव, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर प्रभाव, कृषि पर प्रभाव, पर्यावरण पर प्रभाव आदि।

जिस प्रकार उदारीकरण के कृषि अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है उसी तरह उपन्यास में अब जमींदारी उन्मूलन, बाढ़, गरीबी, चकबंदी आंदोलन को लेकर किसान जीवन पर उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं। अब समय बदलने के साथ समस्याएं भी बदली है। हिंदुस्तान एक नये तरह का उपनिवेश बन गया है। अब उपन्यासों की मूल समस्या भूमि-अधिग्रहण, किसानों का विस्थापन, किसानों की जमीनों को अपार्टमेंट में बदलना, खेती की जमीन पर नई कंपनियों के विस्तार करना, सेज के नाम पर बड़े-बड़े बांध बनाने के लिए अधिग्रहित जमीन और पुनर्वास की समस्या, आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन को लेकर उपन्यास लिखे जा रहे हैं। बढ़ता औद्योगिकीकरण आज खेती-किसानी को निगलने के लिए तैयार है। उद्योग के नाम पर किसानों की जमीनें जबरदस्ती सरकार द्वारा अधिग्रहित कर उद्योगपतियों को कौड़ियों के दाम पर दी जा रही हैं।

उत्तर आधुनिकता में आज का आम आदमी नगरीय तौर-तरीके अपनाने को व्याकुल है। ग्रामीण जीवन में भी शहरीपन समा चुका है। ठेठ देहाती जीवन के मूल्यों पर चोट करती अपसंस्कृति का दर्शन गाँव के खेत-खलिहानों व पगडंडियों तक में हो जाता है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, उदारीकरण के कारण ग्रामीण जीवन में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। रिश्तों की डोर में बिखराव, सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर स्व तक सीमित हो जाना, सहजीवन की वृत्तियों को भुला देना, इसमें प्रगतिशील समाज का द्योतक होना नहीं समाज का विघटित हना लक्षित है। समाज में तेजी से हो रहे बदलाव भले ही प्रगतिवादियों के लिए शुभ हो सकता है, लेकिन यह प्रक्रिया एक मजबूत सामाजिक परंपरा के लिए कमजोर करनेवाली साबित होगी। अब गांव नये रूप में परिवर्तित हो रहा है। आधुनिकता ने जवान होती आज की पीढ़ी के खुले विचारों को अधिक प्रभावित किया है। जिसके कारण गांव की आबो-हवा भी बदल रही है। इन नये विचारों के कारण आधुनिक जीवन पद्धतियां अपनायी जा रही हैं। इसे विघटन कह लें या सहज सामाजिक बदलाव। जिसका यथार्थ चित्रण हिंदी साहित्य के प्राय: हर एक विधा में दिखाई देती है।

वर्तमान समय में ग्रामीण जीवन पर भूमंडलीकरण के कारण उत्पन्न हुए परिवर्तन को साहित्यकारों ने महसूस कर उसकी यथार्थ अभिव्यक्ति की है। ग्रामीण यथार्थ को साहित्य की अन्य विधाओं ने भी वर्ण्य विषय बनाया है, लेकिन उपन्यास ने ग्रामीण संवेदना को, गांव की माटी में रहकर दुख-दर्द व संत्रास भोगनेवाले दलितों की दयनीय स्थिति को, किसानों की त्रासदी को पूरी ईमानदारी से हूबहू चित्रित करने का प्रयास किया है। प्रेमचन्दोत्तर युगीन कथा साहित्य ने ऐयारी-तिलिस्म, जासूसी व मनोरंजक छवि से खुद को बाहर निकालकर बदलते ग्राम की छटपटाहट को महसूस कर उसकी कथा को जीवंत तरीके से वर्णित किया है। हिन्दी उपन्यासों में ग्रामीण जीवन का बृहद चित्रण सर्वप्रथम प्रेमचंद के उपन्यासों में दिखाई देता है। उन्होंने उपन्यासों में वैसे तो समाज के विभिन्न वर्गों का चित्रण तो किया ही है, लेकिन सबसे अधिक श्रम करने वाले किसानों पर लिखा है; जिनकी आबादी लगभग 85 फीसदी है। प्रेमचंद के साहित्य संसार में प्रविष्ट करने का मतलब है भारतवर्ष के गांवों का यथार्थ रूप में देखना। उपन्यास सम्राट का साहित्य ग्रामीण चेतना से ओतप्रोत है। इसी कारण प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास 'गोदान' इसलिए कालजयी कृति बन सका है, क्योंकि उन्होंने भारत की आत्मा में प्रेवश कर लिखा। गोदान (1936) के प्रकाशन से दस वर्ष पहले शिवपूजन सहाय 'देहाती दुनिया' लिख चुके थे। जिसमें भोजपुर अंचल के ग्राम्य जीवन के अनेक प्रसंगों को संकलित किया है, जो तत्कालीन ग्रामीण यथार्थ रूप को पाठकों के समक्ष रखता है। गंवई बोली-बानी, भोजपुरी संस्कृति, आंचलिक मुहावरों-कहावतों व लोकगीतों के कारण इस उपन्यास को आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी गयी। 1934 में जयशंकर प्रसाद ने 'तितली' उपन्यास में ग्राम्य जीवन के चित्रण व उस दौर में उत्पन्न विषम समस्याओं का चित्रण किया है।

प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रेणु दूसरे बड़े उपन्यासकार हैं, जिन्होंने ग्रामीण यथार्थ स्थिति की अभिव्यक्ति की है। ग्रामीण चेतना से पूरित आंचलिक उपन्यास का उद्भव स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास जगत की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। आजादी के सात वर्ष बाद 1954 में 'मैला आंचल' के प्रकाशन के साथ ही 'आंचलिकता' ने अपना स्वतंत्र अर्थ ग्रहण करते हुए हिन्दी साहित्य संसार में अपनी पैठ बना ली। स्वतंत्रता प्राप्त करने से पहले भी ग्रामीण जीवन पर बहुत कुछ लिखा गया, लेकिन ग्रामीण चेतना को आंचलिक शब्द में पिरोने का काम रेणु ही बखूबी कर सके। इस सन्दर्भ में कहा जाता है कि ''इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि अंचल को और उसकी कथा-व्यथा को संपूर्णता में उकेरने वाला यह हिन्दी का पहला उपन्यास है और 'गोदान' की परंपरा में हिन्दी का अगला। रेणु के उपन्यासों की शुरुआत वहां से होती है, जहां से प्रेमचंद के उपन्यासों का अंत होता है अर्थात् जब टूटती सामंती व्यवस्था का स्थान नया पूंजीवाद लेने लगता है। गोदान का मुख्य पात्र है तत्कालीन भारतीय जीवन और वह उसी प्रकार समष्टिमूलक उपन्यास है जिस प्रकार टॉल्सटाय का 'वार एंड पीस', शोलोकोव का 'क्वाइट फ्लोज द डोन' तथा अमरीकी उपन्यासकारों सिन्क्लेयर लीविस और जॉन स्टाइनवेक की रचनाएं। फणीश्वरनाथ रेणु ने भी अपनी इस कृति में व्यष्टि को नहीं समष्टि को प्रधानता दी है; यहां व्यक्ति गौण, प्रासंगिक ही है। इसकी कहानी व्यक्ति की नहीं, पूरे गांव की कहानी है। वह अंचल की जिन्दगी सामने रखता है।''

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद व आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के बाद ग्रामीण संवेदना को सूक्ष्मता से पकड़ने वाले कथाकारों में रामधारी सिंह दिवाकर का नाम अग्रणी रूप से आएगा। वे ग्रामीण चेतना के कुशल चितेरे कहे जा सकते हैं। रेणु के बाद ग्रामीण-अंचल पर उपन्यास लेखन कर्म के दूसरे बड़े सिद्धहस्त शिल्पी माने जाते हैं। उनके लेखन व चिंतन में गांव की माटी की खुशबू पोर-पोर में समाहित है। दिवाकरजी पर रेणु का प्रभाव बहुत ही गहराई से दिखता है। कथा-शिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर ग्रामीण जनजीवन के सशक्त चित्रण को अपने सभी उपन्यासों में किया है। दिवाकर अपनी पहली ही औपन्यासिक कृति 'क्या घर क्या परदेश' में गांव की आर्थिक व सामाजिक विसंगतियों को उभारने में सफल दिखते हैं। भूमंडलीकरण के प्रभाव से बदली गाँव की स्थिति पर कहा गया है कि ''आज की बदली हुई परिस्थिति में गांव की स्थिति यह है कि अपने ही खेत में अपने ही हाथ से खेती करनेवाला व्यक्ति हेयदृष्टि से देखा जाता है। दूसरी ओर ऐन-केन-प्रकारेण पैसा बटोरने वाले भ्रष्ट चरित्र समाज के लिए आदर्श बन गये हैं।'' 'अकाल संध्या' उपन्यास की कथा के केंद्र में पूर्णिया जिले के दो गांवों मरकसवा व बड़का गांव है। जिसमें जमींदारों, सवर्णों व बबुआन टोलों के पराभव एवं दलित चेतना के निरंतर हो रहे उभार की कहानी कहता है। ''शूद्रों के उदय की यह कैसी काली आंधी चली है? इस काली आंधी ने परंपरा से चली आ रही सवर्ण सत्ता के चमकते सूरज को शाम होने से पहले ही ढंक लिया। बाबू रणविजय सिंह की जमीन खरीद रहा है गांव का खवास झोली मंडर। नौकर-चाकर अब मिलते नहीं हैं। सब भाग रहे हैं- दिल्ली, पंजाब। बाबू-बबुआनों की जमीन खरीद रहे हैं गांव के राड़-सोलकन।''

प्रेमचंद से लेकर विवेकी राय तक ने भारतीय गांवों के टूटते-बिखरते स्थिति को अभिव्यक्ति की है लेकिन भूमंडलीकरण के कारण बदलते ग्रामीण परिवेश की यथार्थ और सूक्ष्म दृष्टि प्रदान करने वालों में रामधारी सिंह दिवाकर का नाम अग्रणी हैं। भूमंडलीकृत जनित बाजारीकरण ने एक ओर जहां जमींदारों को अपनी जमीन बेचने पर मजबूर किया है वहीँ दूसरी ओर सदियों से सताए गये दलित वर्ग उनके जमीनों को खरीद रहा है। निश्चित रूप से भूमंडलीकरण ने विभिन्न अस्मिताओं को उभार कर एक बेहतर जीवन के लिए प्रेरित किया है।

पिछले दशकों में इन दलित-पिछड़े वर्गों में भी नए अभिजन के उदय को देखा जा सकता है। जिनका चरित्र बाबु-बबुआन से कमतर नहीं है। गाँव में जहाँ शहर की अपेक्षा मानवीय सम्बन्ध गहरे दिखाई देते थे वही वर्तमान समय में गाँव में भी मानवीय संबंधों के बीच से रागात्मकता धीरे-धीरे खत्म हो रही है। गांवों की इन जटिलताओं व विडंबनाओं को कुछ ही उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों के माध्यम से यथार्थ अभिव्यक्ति दी है। इन सभी स्थितियों को भूमंडलीकृत ग्रामीण यथार्थ को उजागर करते हुए देखा जा सकता है।

वीरेंद्र जैन द्वारा कृत "डूब" उपन्यास किसान जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति करते हुए उनके जीवन की त्रासदी और उनके कटु अनुभवों को रेखांकित करता है। उपन्यास में एक ओर किसान जीवन में होने वाली अनेक समस्याओं और उनकी बेबसी को चित्रित किया गया है तो वही दूसरी तरफ भूमंडलीकृत ग्रामीण समाज में हो रहे राजनीति से ग्रामीण विकास की जगह विनाश की यथार्थ अभिव्यक्ति हुई है। ऐसे ही अनेक उपन्यासकारों ने गाँव में आये दिन बढ़ रहें भूमंडलीकरण के प्रभाव से उत्पन्न परिवर्तन को अपने उपन्यास में प्रमुख रूप से जगह दी है। गाँव से शहर की ओर विस्थापित होने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

हरि भटनागर के उपन्यास 'एक थी मैना एक था कुम्हार' में फैक्ट्री और उद्योग-धंधे को स्थापित करने के लिए भूमि अधिग्रहण नहीं किया जा रहा है। बल्कि इसका संबंध नगरीकरण की प्रक्रिया से है। पिछले 30 वर्षों में हिंदुस्तान में मध्यम वर्ग इतनी तीव्र गति से बढ़ा है, शहरों में ये लोग इस तरह से सम्मिलित हो गए हैं कि अब बड़े-बड़े शहरों की जमीन सिर्फ मध्यवर्ग के उपभोग के लिए अधिग्रहित की जा रही है। इस तरह से बड़े शहरों ने गांवों को अपने में समाहित कर लिया है। इन सभी मौकों पर हम देखते हैं कि जमीन एक बहुत बड़ी पूंजी के रूप में उभरी है और शक्तिशाली, सुसम्पन्न लोगों के वर्चस्व की लड़ाई नजर आती है।

मिथिलेश्वर के उपन्यास 'माटी कहे कुम्हार से' में इक्कीसवीं सदी के भारतीय गाँवों की झोपड़पट्टियों में हाशिये के जीवन की तल्ख सच्चाई से यह उपन्यास बेबाक पड़ताल करते हुए शहर में पहुंच ,शहरी जीवन एवं शहरी समाज की परतें उधेड़ उनकी कथा प्रस्तुत करता है,और फिर यहां के जीवन एवं समाज की जिम्मेवार भारतीय लोकतंत्र की राजनीति का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख देता है। मिथिलेश्वर का ही एक अन्य उपन्यास 'पानी बीच मीन' में खेती के कठिन और जटिल संघर्ष ,निरंतर विस्तार पाती अराजक स्थितियां मन को आहत करती हैं। बावजूद इसके अभावों से जूझते हुए ग्रामीणों का अस्तित्व-रक्षा के लिए प्रखर संघर्ष और फिर गांव से टूटने और जुदा होने की पीड़ा दर्ज है। साथ ही शहरी समाज में मध्यवर्गीय जीवन की तल्ख सच्चाइयों का खाका भी इस कृति को अहम बनाता है।

सुनील चतुर्वेदी का उपन्यास 'काली चाट' में भूमंडलीकरण के बाद सामंती युग के आधुनिक प्रतिनिधियों की बिरादरी का एक नया ढाँचा देखने को मिलता है क्योंकि शोषकों का यह नया वर्ग अलग रूप-रंग में तैयार है। बैंक के अधिकारी, कर्मचारी,उनके और अपने स्वार्थों को सफल बनाते बिचौलिए, धन पिपासु नेता और सत्ता। प्रशासन की मुंह देखी बोलती तमाम स्वयं सेवी संस्थाएं के बारे में बताया गया है। भूमंडलीकरण के दौर में ऐसे कई उपन्यास हैं जो ग्रामीण यथार्थ को समेटते है- संजीव कृत 'धार', वीरेंद्र जैन कृत 'पार', विद्यासागर नौटियाल कृत 'भीम अकेला', ज्ञान चतुर्वेदी कृत 'बारामासी', जगदीश चंद्र कृत 'जमीन अपनी तो थी', कर्मेंदु शिशिर कृत 'बहुत लंबी राह', शिवमूर्ति कृत 'आखिरी छलांग', काशीनाथ सिंह कृत 'रेहन पर रग्घू', प्रदीप सौरभ कृत 'मुन्नी मोबाइल', रणेंद्र कृत 'ग्लोबल गाँव का देवता', एस.आर. हरनोट कृत हिडिम्ब, सूर्यनाथ सिंह कृत 'चलती चाकी', रणेंद्र कृत 'गायब होता देश', संजीव कृत 'फाँस', सुनील चतुर्वेदी कृत 'कालीचाट', तेजिंदर कृत 'काला पादरी', पंकज सुबीर कृत 'अकाल में उत्सव', नीलोत्पल मृणाल कृत 'औघड़' (2019), आदि।

आधुनिक युग में शोषण के रूप में भी नए परिवर्तन दिखाई देते है और इसका प्रभाव गाँव के लोगों पर अधिक पड़ रहा है। किसान, आदिवासी, दलित जैसे सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को गाँव में बड़े-बड़े सपने दिखाकर उनका शोषण किया जाता है। जहाँ सतही रूप में ग्रामीण विकास करने के बड़े-बड़े वादे किये जाते है और सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो विनाश दिखाई देता है। गाँव का शहरीकरण इस हद तक होता जा रहा है की न ही वह गाँव के यथार्थ रूप में रह जाता है और न ही उसे शहर की ही संज्ञा दी जा सकती है। गाँव के विनाश के साथ साथ मानवीय संबंधों में आ रही गिरावट को भी आसानी से देखा जा सकता है।

[शशांक कुमार असम यूनिवर्सिटी से 'भूमंडलीकृत ग्रामीण यथार्थ और हिंदी उपन्यास' विषय पर शोध कर रहे हैं।

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