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पेट का समाजवाद और समाजवाद का पेट – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

Special Coverage News
12 Jun 2016 12:38 PM IST
पेट का समाजवाद और समाजवाद का पेट – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
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इस देश में जितने में भी समाजवादी चिंतक हुए हैं, यदि हम उनकी समस्त गतिविधियों एवं विचारों का विश्लेषण करें, तो यह साबित हो जाता है कि समाजवाद पेट के ही इर्द-गिर्द घूमता है. पेट का सम्बन्ध भूख से है, पेट का सम्बन्ध भोजन से है, पेट का सम्बन्ध उसके पाचन से है. पेट का सम्बन्ध रुधिर से है, पेट का सम्बन्ध ऊर्जा से है. मनुष्य को जितनी बीमारियाँ होती हैं, उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पेट ही कारण होता है. इसी आधार पेट के समाजवाद का चिन्तन कर रहा हूँ –



इस देश में जो बहुत खाते हैं, उनका पेट निकलता है, और जिन्हें नही खाने को मिलता है, उसका भी पेट निकलता है. जो बहुत खाते हैं, उनके भोजन की मात्रा संतुलित हो जाये, जिससे उसके पेट निकलने के कारण जो उसका शारीरिक सौन्दर्य ख़राब हुआ है, वह फिर से उसे प्राप्त हो जाए. इस प्रकार से निकलने वाले पेट के कारण उसे अनेक बीमारियों का दंश भी भुगतना पड़ता है. वे जीवन का भरपूर आनंद भी नही ले पाते हैं. यदि उसका भोजन संतुलित हो जाएगा, तो उसकी बीमारियाँ भी ठीक हो जायेगी और उनका पेट भी अपने नेचुरल अवस्था में आ जाएगा. इस प्रकार के पेट वाले समाज में हर प्रकार के प्रदुषण फैलाने के उत्तरदाई होते हैं. इन्ही के पास वसुधा एवं चल मुद्रा का अधिकांश भाग होता है. इनकी धन की भूख इतनी ज्यादा होती है कि चाहे जितना कमा लें, इनका पेट भरता ही नहीं. इसके कारण देश एवं प्रदेश में आर्थिक असमानता निरंतर बढ़ रही है. समाजवाद इस प्रकार की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाता है. जिसके प्रभाव से उनकी असीमित क्षुधा शांत हो जाती है, वे उतना ही खाते हैं, यानि उतना ही धनार्जन करते हैं, जितना आवश्यक होता है.



अब हम दूसरे प्रकार के पेट की बात कर लेते हैं. इस देश में 80 फीसदी पेट कुपोषण के कारण निकले हुए हैं. जिन लोगों को भरपूर एवं संतुलित भोजन नहीं मिलता, समय से भोजन नही मिलता, उनके पेट निकलते हैं. इस प्रकार के पेट को संतुलित करने का तरीका यही है कि उन्हें जरूरत के मुताबिक़ भरपूर एवं संतुलित भोजन मिले. जिसे दो रोटी की भूख है, उसे दो रोटी एवं जिसे चार रोटी की भूख है, उसे चार रोटी मिले. लेकिन समय से मिले. यानी समाजवाद शारीरिक जरूरत के अनुसार भोजन की मात्रा एवं पोषक तत्वों की बात करता है. इसलिए समाजवाद की यही चेष्टा रहती है कि इस देश एवं प्रदेश में हर व्यक्ति को संतुलित मात्रा में भोजन मिले. जिसके कारण उसका पेट उसके फटे-पुराने कपड़ों के बीच से झाँकने न लगे. यानी वह भी हृष्ट-पुष्ट दिखे. समाजवाद का पूरा दर्शन इसी पर आधारित है. बस समाजवाद किसान की भूख, मजदूर की भूख एवं शारीरिक काम न करने वाले लोगों की भूख में अन्तर करता है. सबको उसकी जरूरत के मुताबिक़ भोजन की बात करता है. इससे उसका भी सौन्दर्य निखरता है. वह स्वस्थ रहता है, और देश और प्रदेश के विकास में अपना भरपूर योगदान देता है. इस प्रकार देश में पेट निकलने के जो दो कारण होते हैं, वे संतुलित रहें, अपनी नेचुरल दशा में रहें, इसके लिए समाजवाद हर किसी को जरूरत के मुताबिक श्रम करने की हिदायत देता है. जिनके पास श्रम का काम नहीं है, वे घरेलू कार्यों में अपनी पत्नियों-बहनों-माताओं का सहयोग कर सकते हैं, इसके आलावा एक्सरसाइज करके भी इसे संतुलित कर सकते हैं. इसका मतलब साफ है कि समाजवाद पसीना बहाने की हिदायत देता है.



इतना ही समाजवाद पेट बड़े होने को प्रतीक रूप में भी लेता है. समाजवादी दर्शन के कारण हर व्यक्ति का पेट बड़ा होना चाहिए, और उसकी पाचन शक्ति और तेज. जिससे जब वह समाज उसे उलाहना दे, कोई उसका हितैषी उसकी निंदा करें, तो उसे अपच नहीं हो जाये, बल्कि वह उसे पचा सके. जो कुछ उसने सुना है, उस पर चिंतन करके, विचार-विमर्श करके उसकी समस्या का निदान कर सके.



तीसरे प्रकार का पेट हमारी माँ, बहनों का निकलता है. यानी सृजन के लिए निकलता है. सृष्टि निरंतर जवान बनी रहे, इसलिए निकलता है. इस प्रकार का निकला पेट भी समाजवाद की सच्ची व्याख्या करता है. यानी समाजवाद सृजन का दर्शन है. समाजवाद बैलेंस का दर्शन है. समाजवाद आनंद का दर्शन है. समाजवाद कर्तव्य का दर्शन है. समाजवाद मातृत्व का दर्शन है. समाजवाद प्रेम का दर्शन है. यानी इस सृष्टि को चलाने के लिए जितने उपागम है, समाजवाद के उतने ही स्वरूप है.



आज कल के समाजवादी नेताओं के पेट जरूर निकले हैं, लेकिन उनकी पाचन शक्ति ठीक नही है. जरा सी उनकी कोई निंदा कर देता है, तो वे आग बबूला हो जाते हैं. जबकि समाजवाद उन्हें यह शिक्षा देता है कि अपनी निंदा भी आप प्रेम से सुनिए, बाद में उसे गुनिये, और अपनी कमी को दूर करके समाज में निकले पेट को संतुलित करके अपनी सौन्दर्य और कार्य क्षमता का विकास करिए. तभी आपके नेता बनने का अर्थ है. तभी आप सच्चे अर्थों में समाजवादी हैं. इस मामले में आप उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को देख सकते हैं. उनका पेट बिलकुल संतुलित है. उसकी पाचन शक्ति भी ठीक है. इसी कारण उनकी लोग खूब निंदा करते हैं, फिर भी वे जवाब तभी देते हैं, जब बहुत जरूरी होता है. इस तरह से पेट के समाजवाद पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी खरे उतरते हैं. और उनके जिन मंत्रियों, विधायकों, नेताओं के पेट भोजन की प्रचुरता के कारण बढे हैं, उन्हें संतुलित करने का प्रयास कर रहे हैं, और जनता का पेट जो कुपोषण से बढ़े हैं, उसे संतुलित आहार देकर उसका पेट कम कर रहे हैं. यानी उसे इतनी शक्ति दे रहे हैं, जिससे वह प्रदेश की विकास धारा से खुद को जोड़ सके.



प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गाँधीवादी-समाजवादी चिंतक, पत्रकार व्

इंटरनेशनल को-ऑर्डिनेटर – महात्मा गाँधी पीस एंड रिसर्च सेंटर घाना, दक्षिण अफ्रीका

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