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तो फारुख अब्दुल्ला श्रीनगर संसदीय क्षेत्र से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हो गए। जरा सोचिए, जिस चुनाव में कुल 12 लाख 61 हजार मतदाताओं मंें से केवल 89 हजार 883 यानी 7.13 प्रतिशत ने मत डाला हो उसे किस तरह तरह का चुनाव कहा जाएगा? इसमें 48 हजार 554 मत पाकर अब्दुल्ला अपने प्रतिद्वंद्वी पीडीपी के उम्मीदवार से 10 हजार मतों से अगर विजयी हो गए तो इसे किस तरह की विजय माना जाए यह प्रश्न भी हम सबको लंबे समय तक मथता रहेगा। कुल मतों के करीब 4 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा मत पाने वाला उम्मीदवार विजय हुआ।
यह हमारी बेहतरीन मानी जाने वाली चुनाव प्रणाली की कमजोरी है जिसमें मतदान चाहे जितना प्रतिशत हो, एक भी मत से कोई आगे है तो वह निर्वाचित हो जाएगा। ऐसे फारुख कह रहे हैं कि वो अलगाववादियों को बातचीत का निमंत्रण देने वाले हैं। वे किस हैसियत से ऐसा कह रहे हैं वो तो वही जाने, क्योंकि न प्रदेश में उनकी सरकार है न केन्द्र में। लेकिन जिस तरह उन्होंने चुनाव प्रचार किया उसे देखते हुए इसमें आश्चर्य का कारण नहीं है। उन्होेंने चुनाव प्रचार में जमकर अलगाववादियों का तुष्टिकरण करने की कोशिश की। उन्हें कहा कि आप हमें अपना दुश्मन मत मानो। पत्थरबाजों को उन्होंने वतनपरस्त कहा। यह भी कहा कि वो कश्मीर समस्या के हल के लिए लड़ रहे हैं और भूखे रहकर भी पत्थर चलाएंगे। यह सीधे-सीधे भारत की नीतियों के विरुद्ध था।
एक ऐसा व्यक्ति, जो तीन बार प्रदेश का मुख्यमंत्री तथा एक बार केन्द्र में मंत्री रह चुका हो, उससे इस प्रकार के अलगाववादी बयानों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। किंतु फारुख अब्दुल्ला ने चुनाव जीतने के लिए वो सब किया जिससे अलगाववादियों, पत्थरबाजों सहित समस्त भारत विरोधियों के पक्ष का समर्थन हो। इस रवैये में प्रकारातंतर से भारत विरोध भी निहित था। इसलिए यह प्रश्न भी हमें अपने-आपसे पूछना चाहिए कि क्या ऐसा व्यक्ति हमारी संसद का सदस्य होने की योग्यता रखता है जिसने चुनाव जीतने के लिए कश्मीर में भारत विरोधी रुख अपनाया हो?
हालांकि उनकी तुष्टिकरण की दुर्नीतियों से भी अलगाववादी और पत्थरबाज माने नहीं और चुनाव को इतना डरावना बना दिया कि बहुसंख्या मतदाता मतदान के लिए निकले ही नहीं। बावजूद इसके फारुख चुनाव जीतने के बाद भी अपनी भूल स्वीकारने को तैयार नहीं है। उनका पूरा बयान उसी दिशा में है। तो इसका एक ही उपाय है कि पूरे देश से उनके विरुद्ध आवाज उठे।
वरिष्ठ जर्नालिस्ट अवधेश कुमार