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जबकि सरकार बेटी बचाओ और बेटी पढाओ पर है फोकस
हमारे मुल्क में औरतें सुरक्षित नहीं। कम उम्र की अबोध और नाबालिग लड़कियाँ तो कतई नहीं। हैवानियत चरम पर है। किसी को शासन -प्रशासन का डर नहीं । अँधेर नगरी - चौपट राजा की कहावत चरितार्थ हो रही। उस पर जिम्मेदार लोगों की यह बयानबाजी कि कानून -व्यवस्था एकदम चुस्त - दुरूस्त है। लोगों को चिढ़ाने का काम कर रही है । यह हाल कमोवेश पूरे देश का है पर, उत्तर प्रदेेश का हाल तो बेहद चिंताजनक है। आये दिन तरह -तरह की आपराधिक घटनाएँ सुनने को मिल रही हैं । नये -नये अपराध रिकार्ड बन रहे हैं। छोटी बच्चियों को अगवा करके ब्लातकार और उनकी नृशंस हत्या करने की घटनाएँ तेजी से बढ़ी हैं। बतौर सबूत सुलतानपुर शहर कोतवाली नगर क्षेत्र में घटित कुछ अत्यन्त पीड़ादायक अमानवीय घटनाएँ आपके सामने हैं। ये सभी अपराध तकरीबन महीने भर के भीतर ताबड़तोड़ घटे। जिन्हें सुनकर रूह काँप जाती है । गत जून माह के पहले हफ्ते में एक घटना घटी। मात्र् साढ़े तीन वर्ष की एक लड़की अपनी माँ की गोद में सो रही थी। एक दरिंदा आया और सुप्तावस्था में उसे लेकर चंपत हो गया । पहले उसने उस अबोध बच्ची के साथ ब्लातकार किया। फिर खून से लथपथ उस बच्ची को बेहोशी हालत में सुनसान में लाकर छोड़ गया। स्थानीय पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही । सामाजिक संगठनों, और मीडिया के लोगों ने जब आवाज उठायी, तब कहीं जाकर उसकी प्राथमिकी दर्ज हुई। बच्ची को गंभीर अवस्था में लखनऊ मेडिकल कालेज ले जाया गया । वहाँ उसका आपरेशन हुआ और इलाज चल रहा है इस घटना को अभी हफ्ते भर भी नहीं बीते थे कि सुलतानपुर रेलवे स्टेशन से किसी की चार वर्ष की बच्ची का अपहरण हो गया। दरिन्दें ने उस बच्ची को एक खड़ी बस के अन्दर ले जाकर ब्लातकार किया और फिर गला दबाकर मार डाला। उस बच्ची का अभी तक शिनाख्त नहीं हो पाया। अभी फिर एक ताजा घटना घटी। दर्जा सात में पढने वाली 13 साल की एक बच्ची स्कूल जा रही थी। जिले के बड़े हाकिम जिलाधिकारी महोदय के आवास के पास से वह पैदल गुजर रही थी कि दो दरिन्दे पीछे से बााइक पर आये और जबरन उसे खींचकर बाइक पर बैठा लिये। वह चीखती रही। लोग देखते रहे । किसी ने उसकी गुहार नहीं सुनी । दरिन्दे उसे घने जंगल की ओर लेकर चले गये। कुछ घंटो बाद लहूलुहान बेहोशी हालत में लाकर उसे फिर शहर में छोड़ दिया। न उसकी डाक्टरी हुई, न ही प्राथमिकी दर्ज की गयी। उसके परिजन दरोगा के सामने गिड़गिड़ाते रहे। तीन दिन बीत गया। जब लोगों ने प्रशासन पर दबाव बनाया और अखबार के रिपोर्टर एसपी से सवाल पूछने लगे तब कहीं जाकर प्राथमिकी दर्ज हो पायी और मेडिकल हुआ। इसे महज एक शहर की घटना के रूप में देखना गलत होगा। कमोवेश यही हाल चारों तरफ है। जो मानवता और सभ्यता के नाम पर तो कलंक हयी है, सरकार की विफलता का भी आईना है। सवाल यह है कि प्रदेश सरकार के बड़े- बड़े दावों का क्या हुआ ? क्या इतने कम समय में योगी सरकार के एंटी-रोमियो स्कावड की हवा निकल गयी ? सारा दिखावा चंद दिनों का था ?
16 दिसम्बर 2012 को 20 वर्षीय युवती निर्भया के साथ दिल्ली में चलती बस में जो सामूहिक ब्लातकार घटित हुआ था उससे पूरा देश विचलित हो उठा था। लोग गुस्से और आक्रोश से भर उठे थे और सड़कांे पर उतर आये थे। हर तरफ हैवानियत के खिलाफ कैडिल मार्च हो रहा था। लग रहा था - हमारा देश किसी अंधी -गुफा से बाहर आ रहा है। पूरा माहौल मानो बदल गया था। लोग इस पर बड़ी- बड़ी कविताएँ लिख रहे थे। बड़ी - बड़ी गोष्ठियाँ आयोजित हो रही थी। बडे़- बड़े भाषण दिये जा रहे थे। सारंे अपराधी सदाचारी हो चुके थे। निचली अदालत से लेकर उच्चतम न्यायालय तक ने निर्भया के अपराधियों के लिए एक ही सजा मुकर्रर की - सजाये मौत। अपने अंतिम फैसले में उच्चतम न्यायालय ने 5 मई को कहा - निर्भया कांड एक घिनौनी करतूत थी। जिसे बर्बरतापूर्ण तरीके से अंजाम दिया गया। इस बर्बरता के लिए रहम की कोई गुंजाइश नहीं । अदालत ने कहा कि इस घटना की वजह से देश में '' सदमे की सुनामी '' आ गई। अगर किसी एक मामले में मौत की सजा हो सकती है तो वो यही है। शीर्ष अदालत ने कहा कि दोषियों ने पीड़िता की अस्मिता लूटने के इरादे से उसे सिर्फ मनोरंजन का साधन समझा। दोषी अपराध के प्रति आसक्त थे। आगे कोर्ट ने कहा कि जिस प्रकार यह अपराध किया गया , उससे लगता है कि यह किसी अलग दुनिया की कहानी है। इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने एक संदेश देने की कोशिश की है कि इस तरह के बर्बरतापूर्ण अपराध के लिए माफी की कोई गुंजाइश नहीं है। निर्भया के माँ-बाप ने भी यही कहा कि जहाँ इस फैसले से मेरी बेटी को न्याय मिला वहीं इस फैसले से न जाने कितनी बेटियों की आगे चलकर अस्मत की रक्षा हो सकेगी। पर , अफसोस के साथ कहना पड़ रहा कि अपराधियों में कहीं से भी इस ''सजाये मौत'' को लेकर कोई खौफ नही दिख रहा। कैंडिल मार्च वाले वो लोग भी जाने कहाँ गये ? कहाँ गयी वह जागरूकता ? हकीकत यह है हमारे देश के कानून में बड़ा लचर हैं। हो सकता है आपराधिक प्रवृत्ति के नेता ज्यादा संख्या में सदन में पहुँच गये हों जो सख्त कानून बनने ही नहीं देना चाहते। निर्भया -कांड के सबसे बड़ा गुनहगार को नाबालिग कहकर छोड़ देना समाज हित में कितना गलत था। उसे मुक्त करके बाकी को फाँसी देने का क्या मतलब ?
स्कूल - कालेज खुल गये है। लड़कियाँ और उनके अभिभावक डरे हुए हैं। अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हमारे एक मित्र ने कहा। यदि मुझे चुनाव करना पडे कि बेटी की '' जान '' चाहिए कि उसका '' ज्ञान'' तो मैं बिना एक पल रूके उसकी '' जान '' का चुनाव करूँगा। उनके इस कथन में साफ झलक रहा था कि एक पिता की पीड़ा और परेशानी क्या होती है। इसे वही महसूस कर सकता है जो खुद भी पिता हो। उन्होंने कहा अब मेरी समझ में आ रहा है कि मेरी माँ और दादी अनपढ़ क्यों रह गयी होगी ? तब स्कूलों की संख्या भी कम थी और जो थी भी वह घर से बहुत दूर। यानी बेटियों को पढाना खतरे से खाली नहीं था। क्या फिर वही जंगल -युग लौट रहा है?
डॉ डी एम मिश्र
लेखक जाने -माने कवि व साहित्यकार हैं
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