राष्ट्रीय

70 रुपए की कही जाने वाली वैक्सीन 150 फिर 400 फिर 600 और अब 1200 रूपये में ? क्या आपदा में अवसर ?

Shiv Kumar Mishra
27 April 2021 3:40 AM GMT
70 रुपए की कही जाने वाली वैक्सीन 150 फिर 400 फिर 600 और अब 1200 रूपये में ? क्या आपदा में अवसर ?
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एक देश, एक निशान,एक प्रधान, एक ही बीमारी, टीके का असर भी समान,फिर रेट में दस गुना, पंद्रह गुना का अंतर क्यों है प्रधानमंत्री जी ?

क्या लाकडाउन है,दोधारी तलवार ?

लाकडाउन के कारण कुव्यवस्था तथा कुप्रबंधन से कोरोना मरीजों की मृत्यु दर में भारी वृद्धि,

बीमारी के बजाय ऑक्सीजन की अनुपलब्धता, कमी तथा देरी के कारण मर रहे हैं बहुसंख्य मरीज,

लॉकडाउन में पुलिस भारी दबाव में,आम आदमी की जिंदगी के पैबंद भी उखड़ गए

कोरोना से लड़ने चीन तथा अन्य देशों के सफल मॉडल्स पर भी विचार करना जरूरी,

वैक्सीन,ऑक्सीजन व दवाई की आपूर्ति के लिए समुचित आपूर्ति व प्रभावी प्रबंधन जरूरी,

वैक्सीन बनाने वाली इन कंपनियों का देश हित में अधिग्रहण क्यों नहीं करती सरकार

लगता है कि,कोरोना से बचाव के लिए सरकारें अब लाकडाउन को ही अमोघ अस्त्र मान कर चल रही है। एक बार फिर लॉक डाउन का दौर चालू हो गया है,और यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा यह शायद सरकारों को भी नहीं पता। ऐसी स्थिति में इस पर पुनर्विचार जरूरी हो जाता है, कि क्या सचमुच लाकडाउन इस महामारी पर नियंत्रण का कारगर तथा स्थाई समाधान है,या फिर हम इसे केवल कुछ दिन आगे तक के लिए टालने, ढकेलने की असफल शुतुरमुर्गी कोशिश कर रहे हैं, और इस प्रयास में अपने देश को इस महामारी से भी बड़ी समस्या की ओर शनै शनै: शनै: धकेल रहे हैं। कुएं में गिरने से बचने के चक्कर में हम कहीं किसी अंतहीन खाई के मुहाने की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं?

• दरअसल हमारी सरकारों ने इस महामारी से लड़ने के लिए, 16 महीने बीत जाने के बावजूद लॉकडाउन से ज्यादा सहज तथा सरल आरामदायक दूसरा उपाय ढूंढने की कोई ईमानदार कोशिश ही नहीं की। जबकि लाकडाउन के अलावा और भी कई कारगर उपाय हो सकते थे, इसके लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता भी नहीं थी, बस अपने पड़ोस के उसी देश के तरीकों का अध्ययन करना था, जहां कि इस नामुराद महामारी का जन्म या उदगम माना जाता है, जी हां! उस चीन ने इसे अपने एक बड़े शहर वुहान से बाहर निकलने ही नहीं दिया और सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश होने के बावजूद इसे लगभग पूरी तरह से कुचल के रख दिया। हम उन तरीकों पर, तथा अन्य कई सफल व्यावहारिक तरीकों पर भी विचार क्यों नहीं करते।

इस महामारी से लड़ने में डॉक्टर्स, मेडिकल स्टाफ, एंबुलेंस चालक, पुलिस, सुरक्षा बल सहित एक बहुत बड़ा वर्ग दिन रात पूरी बहादुरी से लड़ रहा है। जबकि शासकीय, अर्ध शासकीय कर्मचारियों का एक बड़ा अकर्मण्य वर्ग लाकडाउन लगने की घोषणा सुनते ही हर्षित हो उठता है। यह समझना कठिन भी नहीं है कि यदि बिना काम किए पूरा वेतन मिले, और घर में मनमाना आराम करने का मौका मिले तो इससे बेहतर उनके लिए, इन हालातों में और भला क्या हो सकता है। इसलिए यह पढ़ा लिखा वर्ग प्राण-प्रण से देश तथा समाज को महामारी से बचाने के नाम पर लाकडाउन का हमेशा समर्थन करता है। सरकार तथा नेताओं के लिए भी यह सबसे अचूक सरल व सुविधाजनक तात्कालिक उपाय होता है। क्योंकि इनके घरों में भी तो सारी सुख सुविधाएं पर्याप्त से भी ज्यादा भरपूर मौजूद हैं तथा इनके आने-जाने पर भी कोई रोक टोक नहीं है। आपदा में अवसर भुनाने के लिए इससे बेहतर भला और कौन सा अवसर होगा, जब चारों ओर सब कुछ ठप्प जाए तो फिर भला इस अघोषित, घोषित आपातस्थिति में इनके सभी मनमाने कार्यों पर कोई भी सवाल उठाने वाला कौन बचेगा। और यदि कोई गलती से इनके क्रियाकलापों के खिलाफ आवाज उठाने की हिमाकत करता भी है, तो हालातों की दुहाई देकर उसे राष्ट्रद्रोही साबित कर दफन कर देना बेहद सरल है।

जबकि हकीकत यह है की लॉक डाउन के बाद कुछ दिनों के लिए तो करोना संक्रमण की दर कम होती प्रतीत होती है, किंतु यह आग दोबारा जब भड़कती है तो जंगल की आग की तरह इसकी गति बहुगुणित हो जाती है। लॉकडाउन में जो दिशा निर्देश प्रशासन द्वारा दिए जाते हैं इसे लागू करने वाले ना तो इसे भलीभांति पढ़ते हैं, न समझते, हैं और ना उसे सुचारू ढंग से लागू करते हैं, बिना इसके मंशा को समझे सब धन बाइस पसेरी के भाव में तौल डालते हैं। अंततः कुल मिलाकर लाक डाउन के सारे नियम कानून पुलिस के डंडे तथा उनकी गालियों में सिमट जाते हैं। अपने सभ्य नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार के लिए बदनाम पुलिस इन दिनों आम आदमी, विशेषकर गरीबों के साथ, अपने सबसे बुरे चेहरे के साथ पेश आती है।

जाहिर है की लॉकडाउन लगने के बाद , जब लोगों का घर से निकलना ही बंद हो जाता है तो कोरोना की जांच दर कम हो जाती है, और इसलिए कोरोना मरीजों की संख्या में धीरे-धीरे कमी आनी शुरू हो जाती है, सरकार भी खुश और जनता भी खुश। पर यह समस्या का अंत कतई नहीं है।

इधर पुलिस की परेशानियां भी कम नहीं है लगातार अनैतिक, राजनीतिक दबावों में असीमित घंटो तक लगातार कार्य करना, आराम के लिए पर्याप्त समय न मिल पाना। आर्थिक ,सामाजिक तथा पारिवारिक दबावों के साथ ही जब पूरा देश लॉकडाउन के वक्त अपने घरों में आराम से बैठा हो,उस समय चिलचिलाती धूप में चौराहों पर लट्ठ लेकर, शिफ्ट समाप्ति का इंतजार करते, लगातार बेवजह सा खड़े रहना, कुंठा , खीझ तथा गुस्सा पैदा करेगा ही। और ऐसे में कोई भी इक्का दुक्का नागरिक बेचारा भले कितनी भी जरूरी काम से निकला हो, चाहे वह दवाई लेने जा रहा हो किसी मरीज या रिश्तेदार की देखभाल के लिए जा रहे हो अथवा क्षेत्र से आ रहा हूं या जा रहा हो, उसके साथ बदतमीजी से पेश आना लगभग तय है। इस खीझी हुई तथा कुंठित पुलिस के पास सामने वाले व्यक्ति की वाजिब,जरूरत परेशानी मजबूरी को सुनने समझते का सब्र ही नहीं होता। ये प्रायः ऐसे मजबूर व्यक्तियों के साथ भी अपना दुर्गम अपराधी के लिए आरक्षित पेटेंट रवैया ही अपनाते हैं। अगर किसी चौक पर एक साथ 4-6 पुलिसवाले तैनात हुए फिर गजब ही समझैं, यहां छूटभैय्ये नेता,पत्रकार, जाने पहचाने चेहरे तो बच निकलते हैं, लेकिन सीधे साधे और सभ्य नागरिक की खैर नहीं, भले ही वह कितना ही जरूरी काम से क्यों न निकला हो। वह बेचारा लाख अपने जरूरी काम की दुहाई देता रहे पर कई बार यह सब पुलिसकर्मी एक गिरोह की तरह पेश आते हैं, एक नहीं सुनते, बदतमीजी पर आमदा हो जाते हैं, और गाहे-बगाहे हाथ भी उठा देते हैं, लुट-पिटकर आम आदमी चारों ओर एक बार सहमी नजर मार कर देखता है, कि कोई देख तो नहीं रहा है, और देख रहा है तो उनमें कोई उसका परिचित तो नहीं है, और फिर मुंह लटकाए घर लौटता है। ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जब कोरोना से नागरिकों की रक्षा के नाम पर नागरिकों के साथ ही इन पुलिस वालों ने बेरहम दरिंदों की तरह बर्ताव किया है। ऐसा नहीं कि सारे पुलिस वाले ऐसे ही है, इनमें भी कई बहुत ही नेक तथा मानवतावादी पुलिसकर्मी व पुलिसअधिकारी भी मौजूद होते हैं, पर प्राय: ऐसे मौकों पर उनकी एक नहीं चल पाती, सो वो भी चुप लगा जाते हैं। लॉकडाउन में अर्थव्यवस्था के हर स्तर को होने वाले नुकसान के अलावा के अन्य कई गंभीर परिणाम भी देखे जा रहे हैं। इस लाकडाउन के दरमियान यातायात ठप पड़ जाने के कारण मरीजों को अस्पतालों तक पहुंचाने, ऑक्सीजन की व्यवस्था करने से लेकर दवाई तथा अन्य जरूरी चीजें मुहैया कराने के लिए परिवार के सदस्यों को बेहद कठिनाई उठानी पड़ती है। लॉकडाउन के चलते उत्पन्न अव्यवस्था और कुप्रबंधन ने सबसे ज्यादा करोना मरीजों की जान ली है। 15-20 दिनों के लाकडाउन में रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले दैनिक दिहाड़ी मजदूर, शिल्पकार, रेहड़ी-पटरी पर ठेला लगाने वाले तथा छोटे दुकानदार, कामगार, किसान और कृषि मजदूर वैसे ही भूखे मरने की कगार पर हैं। सरकार द्वारा मुफ्त अनाज की घोषणा भी पिछले साल बीस लाख वाले ढपोरशंखी के पैकेज के साथ ही आएगी ,शायद। सरकार खुद ही किंकर्तव्यविमूढ़ है, एक तरफ सोशल डिस्टेंसिंग बरकरार रखने तथा कोरोना को रोकने के नाम पर लाकडाउन लगा रही है, दूसरी ओर अनगिनत शादियों को परमिशन दे रही है, जहां कहने को तो 50 लोगों की अनुमति दी जाती है, पर वहां अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाती है, इसमें जनता का दोष कम है, राजनेताओं का ज्यादा है जो एक तरफ तो 'सख्त लाकडाउन' की घोषणा करते हैं दूसरी ओर राजनीतिक रैलियों में लाखों लोगों को बिना मास्क के आने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं, और खुद भी बिना मास्क के भाषण देते हैं। 8-10 चरणों में आप चुनाव करवाते हैं। विश्व के जनसंख्या में सबसे बड़े राज्य के ग्राम पंचायतों में चुनाव करवाते समय यह भी नहीं सोचते, कि क्या इससे यह बीमारी अब तक इस महामारी से पूरी तरह बचे हुए दूरस्थ गांवों तक भी नहीं पहुंच जाएगी ? आपकी ऐसी कथनी और करनी में अंतर के साथ ही दोहरे मापदंडों और आचरणों के कारण जनता भी भ्रमित हो जाती है, इसलिए लॉकडाउन भी अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। जबकि लाकडाउन से तो कोरोना पीड़ित परिवारों की सभी समस्याएं कई गुनी बढ़ जाती है, रजिस्ट्रेशन, टेस्टिंग, दूध , फल, सब्जी, आक्सीजन, सिलेंडर, रिफिल, एम्बुलैंस, बेड, दवाई, डॉक्टर और अंत में आक्सीजन के लिए यह तड़प तड़प कर जान दे रहे हैं, यह मौतें कोरोना महामारी के कारण नहीं बल्कि लॉकडाउन के कारण उपजी अव्यवस्था कुप्रबंधन ,लचर आपूर्ति व्यवस्था, तथा ध्वस्त हो चुकी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ज्यादा हो रही है। ध्यान रखें ज्यादातर मरीज बीमारी के बजाय एम्बूलैंस,ऑक्सीजन, बेड, दवाई, डाक्टर आदि समय पर ना मिलने के कारण अथवा पर्याप्त ऑक्सीजन न मिलने के कारण मर रहे हैं। कुल मिलाकर कोरोना पीड़ित परिवारों के लिए तथा मजदूर वर्ग तथा कमजोर आर्थिक स्थिति के परिवारों के ऊपर यह लाकडाउन कोरोना से भी बड़ी विपदा बनकर टूट पड़ती है। ऐसा भी नहीं है कि इसका कोई अन्य उपाय ही नहीं है। कोरोना महामारी से बचाव के सभी तरीकों पर कड़ाई से अमल के साथ ही इससे भली-भांति लड़ा जा सकता है। कई देशों में इसे बखूबी साबित करके दिखाया भी है, पर हम तो इतने आत्ममुग्ध हैं कि दाएं बाएं झांकने, देखने समझने की जरूरत ही नहीं समझते। जरा सोचिए इस महामारी के टीके की लागत जहां ₹70 बताई जाती है जिससे वह पहले ₹150 में बेचते हैं फिर ₹400 में फिर ₹600 में और अब 12 सौ रुपए में बेचने जा रहे हैं। आपदा में सुअवसर तलाशने का इससे जबरदस्त उदाहरण कहां मिल सकता है। क्या हमने तो मुर्दा खोर गिद्धों को भी मात नहीं दे दिया है? क्या देश की सरकार से यह नहीं पूछा जा सकता कि, अगर भीतर खाने कोई सेटिंग नहीं है, तो क्यों नहीं राष्ट्रहित में इन वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों का अधिग्रहण किया जाता, तथा चौबीसों घंटे,चार पारियों में कार्य करके अधिकतम संभव उत्पादन क्यों नहीं किया जा सकता और पूरे राष्ट्र को रिकॉर्ड समय में, टीका लगाकर देश को भयमुक्त क्यों नहीं किया जा सकता। सवाल तो भी उठेगा कि जब कोरोना के इलाज के अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा प्रोटोकॉल में नवंबर महीने में ही रेडमिसिविर नामक दवाई को हटा दिया गया था, फिर हमारे यहां इसे लगातार क्यों उपयोग किया जाता रहा, इसकी मांग इस तरह से प्रायोजित तरीके से लगातार क्यों बढ़ाई गई कि ₹900 का इंजेक्शन (जिसमें कि पहले ही कंपनी के लिए भरपूर लाभ प्रावधानित है) उपभोक्ताओं को कालाबाजारी में 25 से ₹40 हजार तक में खरीदना पड़ा।

और अब, इसी हफ्ते हमारे देश की शीर्ष चिकित्सा संस्थान के विशेषज्ञ डॉक्टर ने यह कहते हुए हाथ झाड़ लिया कि यह दवाई इस महामारी में कोई खास कारगर नहीं है‌। सवाल तो उन अस्पतालों पर भी उठेगा ही जिन्होंने कोरोना के इलाज के नाम पर एक-एक मरीज को 7-8 लाख के बिल थमा दिए हैं, ऐसी चिकित्सीय डकैती के कितने ही सच्चे किस्से हवा में तैर रहे हैं। जाहिर है यह सब बिना सरकारों की मिलीभगत अथवा सप्रयास अनदेखी के संभव नहीं है। सरकार का इकबाल बुलंद रहे, वो चाहे तो कुछ घंटों में ही इन सब पर नकेल कर सकती है, तथा पूरी व्यवस्था को पटरी पर ला सकती है। पर अब कारण चाहे जो भी हों, पय लगता नहीं है यह सरकारें ऐसा कुछ ठोस कदम उठा पाएंगी। ये तो देश में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन होने के बावजूद, इसे सुचारू रूप से सभी जरूरतमंदों तक पहुंचाने में भी सफल सिद्ध नहीं हो पा रही हैं, कोरोना महामारी के कारण इस दरमियान हुई लगभग सारी मौतें, बीमारी के बजाय इसी ऐतिहासिक कुप्रबंधन, कुव्यवस्था के मत्थे लिखी जाएंगी। यह देश का दुर्भाग्य ही तो है, कि ऐसे समय में जब देश को एकजुट होकर इस महामारी का सामना करना चाहिए, देश के नेता अपनी राजनीतिक कुर्सियों बढ़ाने, बचाने के सत्ता के खेल में चुनाव लड़ने में व्यस्त हैं, तथा राजनीतिक दुराग्रहों के चलते आरोप-प्रत्यारोप की नूराकुश्ती में व्यस्त हैं, जबकि लोग महामारी के बजाय बहुस्तरीय अव्यवस्था के चलते कीड़े मकोड़ों की तरह पटापट मर रहे हैं।आज केंद्र और राज्यों के बीच जो राजनीतिक सामन्जस्य और समरसता दिखाई देना चाहिए उसका यहां नितांत अभाव दिखता है। एक प्रदेश, दूसरे प्रदेश पर अपनी ऑक्सीजन लूट लेने का आरोप लगाता है इससे बड़ी अराजकता और क्या हो सकती है। यह भी देश तथा न्यायपालिका दोनों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि, हमारी न्यायपालिका को हस्तक्षेप करते हुए "ऑक्सीजन आपातकाल" की घोषणा करने की बात कहते हुए सरकार को "टांग दिया जाएगा" जैसी कठोरतम ऐतिहासिक चेतावनी देनी पड़ती है। आज इन सरकारों तथा इनके नेताओं के लिए अंतिम रूप से यह जरूरी हो गया है, कि जिस राष्ट्र के नाम पर ये पद तथा गोपनीयता की शपथ लेते हैं, उसके हित में अपनी आत्ममुग्धता तथा अहंकार को त्याग कर सभी आपस में मिल बैठकर एकजुटता तथा धैर्य के साथ के एक मजबूत राष्ट्र के रूप में इस महामारी का सामना करें तथा इसमें सभी छोटे बड़े दलों तथा सभी सामाजिक संस्थाओं को भी अनिवार्य रूप से शामिल करें।

लेखक डॉ राजाराम त्रिपाठी राष्ट्रीय संयोजक अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)

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