राजनीति

प्रचारकों का लोकतंत्र और 2024 की चुनावी तैयारियां

प्रचारकों का लोकतंत्र और 2024 की चुनावी तैयारियां
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इमरजेंसी, उसके विरोधी और फिर उनके धाराशाई होने की बारी?

इमरजेंसी की स्वर्ण जयंती तो 2025 में ही मनेगी। सवाल है कि मनाएगा कौन। लगाने वाली पार्टी सत्ता में रहेगी तो क्या देश को करीब 10 साल अघोषित इमरजेंसी जैसी स्थिति में रखने वाली पार्टी नेपथ्य में चली जाएगी? या इमरजेंसी के विरोधी सत्ता में रहकर वही सब कर रहे होंगे जो अब तक होता रहा है। स्थिति इमरजेंसी से बुरी होगी या जैसा चल रहा है उससे बेहतर होगा या और बुरा होगा। जबाव 2024 के चुनाव के बाद ही मिलेगा और तब सवाल है कि चुनाव होंगे कब? सिर्फ बंगाल जैसे एक छोटे से राज्य का चुनाव आठ चरणों में कराने वाली व्यवस्था क्या ‘एक देश एक चुनाव’ करा लेगी या सत्ता पर कब्जा बनाए रखने के लिए स्विस बैंक में रखा कोई नया धन है जिसे बचाना है।


आपको याद होगा, 100 दिन में लाया जाना था और बांटा जाता तो सबको 15 लाख मिलते। अब उसी को बचाने का सपना दिखाया जा रहा है वह भी तब जब यह मुद्दा ही नहीं है कि 20000 करोड़ रुपए कैसे आ गये और किसके हैं। कुल मिलाकर, चुनाव से पहले की यह स्थिति अघोषित इमरजेंसी की है और तब तो इंदिरा गांधी ‘तानाशाह’ थीं। माहौल उनके खिलाफ था। अभी के ‘तानाशाह’ तो ऐसे प्रधानसेवक और चौकीदार हैं कि उनका कोई विकल्प ही नहीं है। ना उनकी पार्टी ने बनाया ना वंशवाद के विरोधियों के परिवार ने इसकी जरूरत समझी। ऐसे में लोग अगर जानेंगे ही नहीं कि मौजूदा स्थिति को अघोषित इमरजेंसी जैसा कहा जाता है या कहा गया है तो इमरजेंसी के विरोधी प्रचारक जनता को वैसे ही धोखा दे सकते हैं जैसे 2014 में दिया था।

जनता का काम है सजग रहना, मेरा काम है सजग करना। बाकी तो बहुत पहले कहा गया था, "ना बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया"। ऐसे में वोट से भी क्या होता है। 10 साल में जीते हुए विधायक खूब खरीदे गये और आगे सांसद खरीद लिये जाएं तो हम- आप क्या कर लेंगे। अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट में हार जाए और कानून बदल दे फिर भी उसे समर्थन मिलता रहे तो किस्मत ही है और किस्मत का क्या है, अब ज्योतिषियों की भविष्यवाणी पर खिलाड़ियों का चयन किये जाने की खबर है। पहले लोग मुहूर्त दिखाकर शपथ लेते थे। इसलिए विकास तो हुआ है और जबरदस्त है। यह ऐसा है कि खुद करे तो रास लीला कोई और करे तो कैरेक्टर ढीला। मुफ्त की रेवड़ियों के मामले में तो यह जग जाहिर है।

ऐसे में बहुत कुछ या सब कुछ दांव पर है। इसमें देश का आम जवान ही नहीं, ‘जवान’ फिल्म भी शामिल है।जो हालत है और मैं जो कह रहा हूं उसके कई उदाहरण अरविन्द नारायण की पुस्तक, इंडियाज अनडिक्लेयर्ड इमरजेंसी में मिलेंगे। हिन्दुस्तान टाइम्स (29 अक्तूबर 2022) में इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए विपुल मुद्गल ने लिखा था, किताब का शीर्षक विवादास्पद है। लेकिन इंटरनेट पर इस समीक्षा के साथ जो तस्वीर है उसका कैप्शन है, 1 जनवरी 1975 को सड़कों पर छात्र प्रदर्शनकारी। उसी वर्ष 25 जून को आपातकाल की घोषणा की गई। इस फोटो को देखकर याद आया कि मैं भी जब कॉलेज में था तो छात्रों के लिए सरकारी बसों पर कब्जा कर लेना कितना आसान था। इस तस्वीर में कई बसें छात्रों के कब्जे में हैं। अब यह लगभग असंभव है और ऐसे दृश्य तो दिखे ही नहीं। फोटो में भी नहीं।


तो लोकतंत्र का जो हुआ है वह अपनी जगह है। दिलचस्प यह कि इमरजेंसी का विरोध और अघोषित इमरजेंसी और इस व्यवस्था का समर्थन जोरदार है। इमरजेंसी के समय लोग कहते थे कि सख्ती का फायदा हुआ है, ट्रेन समय से चलने लगी है पर कोई इंदिरा गांधी का समर्थन नहीं करता था। तब विपक्ष को आजमाया नहीं गया था और विपक्ष को जब सत्ता मिली तो ढाई तीन साल में ही सब खत्म हो गया। यह कम दिलचस्प नहीं है कि उस समय जो सत्ता के विरोध में थे उनमें से ज्यादातर अब इंडिया में हैं जिसे नरेन्द्र मोदी इंडी अलायंस और घमंडिया कहते हैं। विरोधियों के इस समूह के कारण लोकतांत्रिक ढंग से चुने हुए प्रधानमंत्री अपने स्तर पर इंडिया की जगह भारत लिखने का फैसला करके लागू कर देते हैं और इसकी सूचना पार्टी के एक प्रवक्ता के ट्वीट से देश को मिलती है।

पुस्तक समीक्षा में कहा गया था, “इस बात पर निर्भर कि आप सत्तारूढ़ व्यवस्था से कितना प्यार या नफरत करते हैं, ‘अघोषित आपातकाल’ निश्चित रूप से विपरीत भावनाएं पैदा करेगा। स्ट्रैपलाइन में ‘प्रतिरोध की राजनीति’ यह स्पष्ट करती है कि पुस्तक सत्तावाद के खिलाफ नागरिकों के संघर्ष के बारे में भी है। लेकिन नाम पर ध्यान न दें, पुस्तक इस बात पर एक दिलचस्प कानूनी परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती है कि आज भारतीय लोकतंत्र को क्या नुकसान है और भविष्य की पीढ़ियों के लिए क्या बचाने लायक है।“

हम जो देखने वाले हैं उसके बारे में अनावश्यक रूप से चिंतित हुए या खारिज किए बिना समकालीन को सिद्धांत रूप देना कभी आसान नहीं होता है। लेकिन लेखक ऐसे जाल से बचते हुए अनुभवजन्य साक्ष्य का उपयोग करते हैं और असहमति के साथ राज्य के व्यवहार का उल्लेख करते हैं। पुस्तक के केंद्र में कानून के शासन और मुख्य रूप से राज्य द्वारा व्यक्ति के अधिकारों और स्वतंत्रता का उल्लंघन है। अतीत की निंदनीय घटनाओं के साथ उनकी अच्छी तरह से शोध की गई तुलना हमें याद दिलाती है कि क्या गलत हुआ और उन गलतियों को दोहराने से कैसे बचा जाए।

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