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कांग्रेस का धर्म संकट: बदलाव की सुगबुगाहट निर्णायक दौर से पहले ही फुस्स हो जाती है

Shiv Kumar Mishra
25 Aug 2020 7:01 AM GMT
कांग्रेस का धर्म संकट: बदलाव की सुगबुगाहट निर्णायक दौर से पहले ही फुस्स हो जाती है
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राहुल के विकल्प के रूप में बीमार सोनिया जी को एक साल के लिए अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था। यह संकल्प जताया गया था कि साल भर के अंदर अंदुरुनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पूरी करके पूर्णकालिक प्रमुख चुन लिया जाएगा।

कांग्रेस का धर्म संकट! विपक्ष की प्रमुख पार्टी कांग्रेस अपने अंदरूनी उहापोह से उबर ही नहीं पा रही। उसका ऊहापोह जारी है। अहम फैसला रुका हुआ है। बदलाव की कुछ सुगबुगाहट होती है, वह निर्णायक दौर तक पहुंचने के पहले ही फुस्स हो जाती है। साल भर पहले भी यही हुआ था। आज भी पार्टी कार्य समिति की बैठक में भी अंततः यही हुआ। सात घंटे के मंथन में कांग्रेस को नया जीवन देने के लिए कोई अमृत नहीं निकल पाया। हमेशा की तरह अधिसंख्य नेताओं ने गांधी नेहरू परिवार के चारण गीत गाये। समवेत स्वर में यह जताने की कोशिश की कि इस परिवार की अगुवाई के बिना पार्टी फल फूल नहीं सकती। कोरोना संकट के चलते बैठक आन लाइन थी। वर्ना पार्टी के कुछ दिग्गज वफादार नेता तस्वीरों में साष्टांग होते नजर आते। देश, वफादारी के इन कारनामों के भक्ति मय विजुअल देखने से वंचित रह गया ।

.. . बैठक के पहले ही एक लेटर बम का विस्फोट हो चुका था। अंग्रेजी के एक प्रमुख अखबार ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित कर दिया था। यह सनसनीखेज पत्र पार्टी के.23बड़े नेताओं की ओर से पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेजा गया था। इसमें कहा गया कि पार्टी संक्रमण काल से गुजर रही है।ऐसे में बहुत जरूरी है कि एक पुर्णकालिक अध्यक्ष पार्टी को मिले,जो कामकाज में नयी ऊर्जा का संचार कर सके। पार्टी में नया जोश भरने के लिए बड़े बदलाव का काम आगे बढ़ा सके।

यूं तो इस पत्र में बगावत जैसा कोई तत्व नहीं है। लेकिन गोदी मीडिया ने इसे शाम तक बगावत के रूप में ही परोसा। इस आशय की खबर चली कि इस पत्र से राहुल गांधी आगबबूला हुएl उन्होंने पत्र की टाइमिंग पर सवाल उठाए। यहां तक कह दिया कि इस पत्र को लिखने वाले और मीडिया में इसे लीक कराने वाले कुछ नेता भाजपा के संपर्क में हैं। वे जानते हैं। टीवी मीडिया ने घंटों तक इसे सनसनी के रूप में परोसा। यह खबर सूत्रों के हवाले से जारी की गयी थी।

इसे सच्ची खबर मानकर दिग्गज नेता कपिल सिब्बल भी उबाल खा गये। उन्होंने गुस्सा भरा टिवीटर दे मारा। संदेश में कहा वे तीस साल से पार्टी के वफादार सिपाही रहे हैं। अब उनकी निष्ठा पर उंगली उठाई जा रही है। इसी बीच यह खबर आयी की कार्य समिति से गुलाम नबी आजाद ने अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी है। अटकलें शुरू हुईं कि पार्टी टूट की तरफ बढ़ चली है। देर रात तक यथास्थिति बरकरार रहने का ही अमृत निकलकर बाहर आया। ये दावा कि राहुल गांधी ने भाजपा से मिली भगत वाला कोई बयान दिया ही नहीं था। इससे कपिल सिब्बल ने भी अपना टिवीट डिलीट कर दिया। गुलाम नबी भी मस्त आजाद नजर आये। मीडिया के सामने बोले पार्टी की एकजुटता के लिए जरुरी है कि राहुल जी नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाल लें। जबकि राहुल का स्टैण्ड यही है कि पार्टी का नया अध्यक्ष उनके परिवार के बाहर का हो।

एक साल पहले भी इसी सवाल पर पार्टी की सुई अटक गयी थी। आज भी वहीं अटकी है। उम्मीद की जा रही थी कि इतने बुरे दिन देखने के बाद शायद इस गर्वीले इतिहास वाली पार्टी का जमीर जाग जाए?लेकिन कुछ नहीं हुआ। गंभीर रूप से बीमार सोनिया जो को अंतरिम अध्यक्ष बने रहने के लिए मना लिया गया। उम्मीद जताई गयी है कि छह महीने के अंदर पार्टी का महाधिवेशन हो जाएगा।इसी में पूर्ण कालिक अध्यक्ष का चुनाव हो जाएगा। वास्तव में देश की सबसे पुरानी पार्टी का ताजा हश्र एक बिड़ंबना से कम नहीं है। पार्टी की अंदरूनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया एकदम थम गई है। लोकलाज भी नहीं की जा रही है। संगठन में पदाधिकारी नामित होते हैं। नेतृत्व ऊपर से थोपा जाता है। ऐसे मैं जड़हीन नेता बड़े पदों पर दशकों से कुण्डली मारे बैठे हैं। ये लोग जमीनी कार्यकर्ताओं को फुंकारते हैं। उन्हें आगे नहीं बढ़ने देते। जमीनी सियासत से दूर हो चुके नेता चापलूसी से ही पदों पर काबिज हैं। इसी का नतीजा है कि उ.प्र.और बिहार जैसे राज्यों में पार्टी एकदम सिमट गयी है।

पिछले लोकसभा चुनाव में तो राहुल अपनी संसदीय सीट भी नहीं बचा पाए। दिल्ली के चुनाव में पार्टी जीरो पर निपट गयी। यही नतीजा लोकसभा चुनाव में भी रहा था। पिछले साल हुए लोक सभ के चुनाव में पार्टी एक बार फिर पिटी थी। यद्यपि2014 के मुकाबले कुछ सीटें ज्यादा मिली थीं। फिर भी पार्टी की यह करारी हार तत्कालीन पार्टी प्रमुख राहुल गांधी बर्दाश्त नहीं कर पाए।उन्होंने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था। तमाम मनुहार के बाद भी वे दोबारा अध्यक्ष पद संभालने को तैयार नहीं हुए। उस दौर में भी खानदान से बाहर के व्यक्ति को जिम्मेदारी सौंपने की बहस चली थी। लेकिन खानदान के वफादार भारी पड़े थे। मजबूरी के विकल्प के रूप में बीमार सोनिया जी को एक साल के लिए अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था। यह संकल्प जताया गया था कि साल भर के अंदर अंदुरुनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पूरी करके पूर्णकालिक प्रमुख चुन लिया जाएगा। लेकिन कुछ नहीं हुआ। सोनिया जी शिथिल बनी रहीं।

पूर्व अध्यक्ष के तौर पर राहुल ही सोशल मीडिया के जरिये अकेले योद्धा बने रहे। कहीं भी व्यापक स्तर पर पार्टी संघर्ष के लिए नहीं उतरी। वो कमजोर होती रही। राहुल अकेले वीरबालक बने रहे।उनके निशाने पर सिर्फ पीएम मोदी रहे। दूसरे विपक्षी दलों का तो हाल और बुरा रहा। ज्यादातर ऐसे दल क्षेत्रीय हैं। इनका ढ़ांचा तो घरेलू लिमिटेड पार्टी जैसा ही रहा। कुछ सालों में ही इनके ज्यादातर नेता अरबपति बने हैं। ऐसे में सीबीआई और इनकमटैक्स जैसे हथियारों से डरे रहे। इस मामले में राहुल अवश्य बहादुर साबित हुए। लेकिन सिर्फ बयानबाजी से सार्थक हस्तक्षेप नहीं हो पाया। उम्मीद थी कि राहुल और प्रियंका में सचमुच की लोकतांत्रिक भावना है तो वे घर के बाहर के किसी नेता की ताजपोशी करा देंगे।

ऐसा हो जाता तो वंशवादी नेतृत्व के सियासी कलंक से मुक्ति भी मिल जाती। क्योंकि यही मुद्दा कांग्रेस की सबसे कमजोर नस है।यही मुद्दा ,भाजपा के लिए वरदान भी है। लोगों के अंदर यह व्यापक अवधारणा बना दी गयी है कि राहुल गांधी में मोदी जी के मुकाबले का करेंट नहीं हैं। इस लोक अवधारणा को तोड़ने के लिए जरूरी है कि राहुल गांधी त्याग करते हुए दिखें। ऐसा कुछ नहीं हुआ ,तो कांग्रेस धीरे धीरे छय की ओर बढ़ती रहेगी। जो देश के लिए भी शुभ नहीं होगा। मुकाबले में आना है ,तो पार्टी को सत्ता की नहीं, संघर्ष की पार्टी बनना होगा ।

यही समय की मांग है। इसके लिए पहली शर्त है कि एक सक्षम व्यक्ति पार्टी का पूर्णकालिक चेहरा हो, जो कि समाज के कमजोर वर्ग से आया हो। इसे नेहरु गांधी परिवार का दिली समर्थन प्राप्त हो। प्रार्थना करनी चाहिए कि लोकतांत्रिक ढ़ांचे को मजबूत करने के लिए कांग्रेस को सद्बुद्धि आए। वो चंपूगीरी और वंशवादी मोहपाश से कुछ मुक्त हो!

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