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सिर्फ मोदी के नहीं कांग्रेसियों के खिलाफ भी राहुल को फ्रंटफुट पर खेलना होगा

Shiv Kumar Mishra
19 May 2021 10:54 AM GMT
सिर्फ मोदी के नहीं कांग्रेसियों के खिलाफ भी राहुल को फ्रंटफुट पर खेलना होगा
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कोरोना को देखते हुए काम कर रहा कोई कांग्रेसी तो नामांकन नहीं भरेगा। आप अपनी तरफ से तय करके जिसे चाहो नामांकन भरवा दो। चुनाव टालने से पहले राहुल अगर एक बार यह कह देते तो देखते कि बाजी किस तरह पलटती है!

शकील अख्तर

राहुल गांधी को राजनीति नहीं आती! अगर आती होती तो वे कहते कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव करवाना चाहिए। आज कोरोना का वजह से चुनाव स्थगित हुए हैं। तो क्या जब बगावत पर उतारू 23 कांग्रेसी नेता कांग्रेस संगठन के चुनावों की मांग कर रहे थे तब स्थिति सामान्य थी? पिछले साल उस समय भी कोरोना का प्रकोप ऐसा ही था जब कांग्रेस नेताओं ने एक गुट बनाकर सोनिया गांधी को पत्र लिखा था। और ज्यादा संगीन बात यह थी कि जिस समय पत्र लिखा गया था उस समय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अस्पताल में भर्ती थीं। और

उसी बीमारी की अवस्था में पत्र मीडिया को लीक कर दिया गया था। बीमार अध्यक्ष पर अपनी ही पार्टी के उन नेताओं का दबाव था जिन्हें दस साल के यूपीए शासन काल में सरकार और संगठन में सबसे उंचे पद मिले थे। सोनिया ने गुलामनबी आजाद, आंनद शर्मा, कपिल सिब्बल, मुकुल वासनिक, भूपेन्द्र हुड्डा, मनीष तिवारी, विवेक तनखा, पृथ्वीराज चव्हाण और उन सभी 23 सामने आए और बाकी कई पीछे छुपे हुए नेताओं को अपने 20 -22 साल की पार्टी अध्यक्षता में क्या नहीं दिया था जो ये आज उस समय विश्वासघात पर उतारू हो गए जब कांग्रेस और सोनिया दोनों अपने सबसे कमजोर समय में थे? विश्वासघात शब्द हमारे कई कांग्रेसी दोस्तों को बुरा लगता है। सही भी है काफी कड़ा शब्द है। मगर यही शब्द उन्हें तब बहुत जबर्दस्त और सटीक लगा था जब प्रियंका गांधी ने रायबरेली में अरुण नेहरु के लिए बोला था।

22 साल पहले 1999 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली की एक जनसभा में प्रियंका गांधी ने अरूण नेहरु के लिए गद्दार शब्द का प्रयोग किया था। कहा था भाई की पीठ में छूरा घोंपने वाले। प्रियंका के उस एक भाषण के बाद रायबरेली में हवा बदल गई थी और अरुण नेहरू सीधे चौथे स्थान पर आए थे। कांग्रेस प्रत्याशी कैप्टन सतीश शर्मा चुनाव जीत गए थे। तो उस समय अरुण नेहरु के लिए जो प्रियंका ने कहा था वह आज भी उतना ही सच है। फर्क बस इतना है कि उस समय प्रियंका 27 साल की तेज तर्रार युवा थीं जो अपने पिता राजीव गांधी के साथ विश्वासघात करने वालों को सही सबक सिखाना चाहती थीं और आज वे ज्यादा उदार और सबको एडजस्ट करके साथ चलाने की बड़ी भूमिका में हैं। लेकिन उन्होंने जो कहा था वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। प्रियंका ने रायबरेली की जनता से पूछा था जिसने (अरुण नेहरू) मेरे पिताजी के मंत्रिमंडल में रहते हुए उनके खिलाफ साजिश की। कांग्रेस में रहते हुए सांप्रदायिक शक्तियों से हाथ मिलाया उसे आपने इंदिरा जी की कर्मभूमि रायबरेली में घुसने कैसे दिया? आज में आपसे जवाब मांगने आई हूं! प्रियंका के इन दिल से निकले शब्दों को सुनकर रायबरेली के लोगों की आंखों से आंसू निकल आए थे।

आज भी स्थिति वही है। सोनिया गांधी ने जिन लोगों पर सबसे ज्यादा विश्वास किया उन्होंने ही सबसे बड़े धोखे दिए। प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाया। अरुण जेटली सबसे ज्यादा प्रसन्न हुए थे। कहा था नान सोनियाइट राष्ट्रपति। और बाद में तो वे नानकांग्रेसी भी हो गए जब आरएसएस के नागपुर मुख्यालय जा पहुंचे। 23 पत्र लेखकों के अलावा ऐसे कई कांग्रेसी है जिन्हें सोनिया गांधी ने अपनी भलमनसाहत के तहत आगे बढ़ाया और वे 2014 में कांग्रेस के हारते ही प्रधानमंत्री मोदी के गुणगान में लग गए। बागी कांग्रेसी नेताओं का पिछले दिनों हुआ जम्मू सम्मेलन तो था ही प्रधानमंत्री मोदी को खुश करने के लिए। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री मोदी अभी इन कांग्रेसियों का उपयोग करने के मूड में नहीं हैं। इसलिए बागी वापस सोनिया की तरफ आ रहे हैं। और सोनिया भूलो और माफ करो के अपने मानवीय मिज़ाज के अनुरूप उन्हें फिर से विभिन्न जगहों पर एडजस्ट कर रही हैं। आजाद को एक महत्वपूर्ण कमेटी कोविड रिलिफ टास्क फोर्स का चैयरमेन बनाया और मनीष तिवारी को पांच राज्यों के चुनाव नतीजों की समीक्षा करने वाले दल का सदस्य।

सोनिया के यह कदम हैं तो बहुत उदार, समावेशी और मानवीय मगर क्या राजनीतिक भी हैं? राजनीति में क्या इससे कांग्रेस को फायदा मिलगा? कांग्रेस जितनी कमजोर हो सकती थी हो गई। इससे कमजोर और क्या होगी? इससे अगली अवस्था तो वही है जो मोदी जी कहते हैं, कांग्रेस मुक्त भारत। क्या हर बात पर रूठने वाले अकर्मण्य लड़के ज्यादा खुशामद करने पर घर से भागना छोड़ देते हैं? जिम्मेदार और परिवार के प्रति वफादार हो जाते हैं? नहीं, घर में या राजनीति में कहीं ऐसे उदाहरण नहीं मिलते। भाजपा का उदाहरण सबके सामने है। वहां सात साल से एकल शासन चल रहा है। कई अप डाउन हुए। क्या मजाल कि एक शब्द भी असहमति का निकला हो। खैर यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है। मगर कांग्रेसी जब बार बार मोदी की तरफ देखकर ये कहते हों कि देखिए वे कितने अच्छे हैं तो यह बताना पड़ता है कि उनके राज में भाजपा से कहीं कोई चूं की आवाज भी नहीं आ सकती। यहां कांग्रेस में आप राहुल से लेकर, सोनिया और नेहरू तक किसी को भी कुछ भी कह सकते हैं। हां नेहरू को भी। कांग्रेस संगठन में महासचिव रहे, कई राज्यसभा टर्म पाए लोग कांग्रेस मुख्यलय में बैठकर ठसके से नेहरू के खिलाफ बोलते थे। कांग्रेसी यही देख लें कि मोदी, अमितशाह के बारे में एक शब्द बोलना तो दूर भाजपा में कोई आडवानी या वाजपेयी की अच्छी बात तक नहीं कह सकता है। लेकिन इन सबके बावजूद कांग्रेसियां को अपने यहां कुछ अच्छा नजर नहीं आता और भाजपा में उन्हें लोकतंत्र, सबकी बात सुनी जाने वाली स्थिति नजर आती है।

कांग्रेस की इन परिस्थितयों में सबसे ज्यादा नुकसान दो का हो रहा है। पहला पार्टी के प्रति वफादार कार्यकर्ताओं और नेताओं का। ये कभी धमकी नहीं देते, मांग नहीं करते, पार्टी के लिए क्या किया इसका बखान नहीं करते तो इनकी नहीं सुनी जाती। कांग्रेस में इन्दिरा गांधी के बाद से मेहनती और वफादार कार्यकर्ताओं को पहचाने जाने का सिस्टम खत्म हो गया। इन्दिरा जी जब भी दिल्ली में होती थीं रोज सुबह आम जनता और कार्यकर्ताओं से मिलती थीं। इसके अलावा उन्होंने अपने खास लोगों माखनलाल फोतेदार, यशपाल कपूर, आर के धवन को यह जिम्मेदारी सौंप रखी थी कि कोई भी नेता या कार्यकर्ता आए तो उसकी बात सुनी जाए। सोनिया अपनी तमाम भलमनसाहतों के बावजूद कार्यकर्ताओं और नेताओं से यह संपर्क बरकरार नहीं रख पाईं। समय समय पर बदलने वाले कुछ लोगों के जरिए ही वे कार्यकर्ताओं और नेताओं से जुड़ी रहीं। ये कुछ लोग जो सोनिया को घेरे हुए थे आपस में एक दूसरे की टांग खींचते रहते थे, मगर एक बात में एकजुट थे कि कोई दूसरा और ज्यादा योग्य कांग्रेसी सोनिया के पास नहीं पहुंच जाए। ये चार छह लोग कब आपस में एक दूसरे की जासूसी करवाते थे और कब एक हो जाते थे यह किसी को पता नहीं चलता था। इसका सोनिया को और कांग्रेस को बहुत नुकसान हुआ।

दूसरा जो बड़ा नुकसान हो रहा है वह राहुल की लीडरशीप को। कोरोना के इस खतरनाक दौर में जब सरकार बार बार यह स्थापित करने की कोशिश कर रही है कि सब ठीक है तब एक ही आवाज देश में सच की गूंजती है कि नहीं जनता की हालत बहुत खराब है। उसे मेडिकल सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। राहुल इस समय डरी

हुई बेबस जनता की आवाज बने हुए हैं। ऐसे में जब कांग्रेस में उनका विरोध कर रहे लोगों को फिर स्थान मिलने लगता है तो राहुल का साथ देने वाले लोगों में निराशा फैलती है। युवा सांसद राजीव सातव बहुत हिम्मत से राहुल का साथ देते थे। हमेशा बागियों के निशाने पर रहे। कोरोना से चले गए। मगर जब तक रहे कांग्रेस का और राहुल का झंडा बुलंद किए रहे। पार्टी के अंदर अति समझौतावादी रवैया सच्चे कांग्रेसियों को नुकसान पहुंचाता है। इसलिए राहुल को इस सीडब्ल्यूसी मीटिंग में कहना चाहिए था कि आप चुनाव करवा ही लो। आपने कोरोना के समय ही चुनाव की मांग की थी तो अब भी वही स्थिति है। अगर कोरोना और उससे पीड़ित जनता और मदद कर रहे कांग्रेसी आपकी चिन्ताओं में होते तो आप इस तरह की मांग ही नहीं करते। मुद्दा नहीं बनाते। और अब जब सब कर लिया तो फिर चुनाव करवा भी लो। कोरोना को देखते हुए काम कर रहा कोई कांग्रेसी तो नामांकन नहीं भरेगा। आप अपनी तरफ से तय करके जिसे चाहो नामांकन भरवा दो। चुनाव टालने से पहले राहुल अगर एक बार यह कह देते तो देखते कि बाजी किस तरह पलटती है!

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