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चार आदमी बुरा न कहें डरता है इस बात से, लेकिन यहाँ तो चार ने खुलासा किया है.
जनता की अदालत में न्याय देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों द्वारा इंसाफ मांगने से यह तो जाहिर होगया है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था लहूलुहान हो चुकी है। समय रहते इस व्यवस्था का सही उपचार नही किया गया तो निश्चय ही इसका अंतिम संस्कार भी जल्दी हो जाएगा। चारो न्यायाधीशों के रहस्योद्घाटन से यह भी जाहिर होगया है कि मुकदमों के निपटारे में बंदरबांट हो रही है। क्यो हो रही है, बताने की आवश्यकता नही है। इसलिए राजनेता और अभिनेता चन्द घण्टो में जमानत हासिल कर लेते है। जबकि सामान्य व्यक्ति की फाइल तक कोर्ट पहुँचने में वर्षो लग जाते है।
सीबीआई के न्यायाधीश लोया की रहस्यमय मौत के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। जिन हालातो में लोया की मौत हुई, उससे जाहिर होता है कि एक सोची समझी साजिश के तहत उनकी हत्या की गई थी। लोया के परिजनों का स्पस्ट आरोप है कि उनको नियोजित तरीके से मौत के घाट उतारा गया था। देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था की चुप्पी कई सवाल पैदा करती है। न्यायाधीश लोया भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के काले कारनामो की सुनवाई कर रहे थे। वे कोई फैसला देते या सुनवाई पूरी करते उससे पहले ही रहस्यमय ढंग से मौत के शिकार होगये। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब इस मामले की पुनः जाँच कर मौत के असली कारण उजागर होंगे ताकि न्यायिक व्यवस्था की गिरती साख पर थोड़ा सा पैबंद लगाया जा सके।
भारतीय न्यायिक प्रणाली दुनिया की सबसे पुरानी न्यायिक प्रणालियों में से एक है और आज भी इसमें भारत में सदियों तक रहे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान की ब्रिटिश न्यायिक प्रणाली के कुछ तत्व हैं। देश का सर्वोच्च कानून यानि भारतीय संविधान आज के दौर के कानूनी और न्यायिक प्रणाली की रुपरेखा देता है। भारतीय न्यायिक प्रणाली 'आम कानून प्रणाली' के साथ नियामक कानून और वैधानिक कानून का पालन करती है। हमारी न्याय प्रणाली की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह विरोधात्मक प्रणाली पर आधारित है, यानि इसमें कहानी के दो पहलुओं को एक तटस्थ जज के सामने पेश किया जाता है जो तर्क और मामले के सबूतों के आधार पर फैसला सुनाता है। हालांकि हमारी न्यायिक प्रणाली में कुछ निहित समस्याएं हैं जो इस प्रणाली के दोष और कमजोरियां दिखाती हैं और इन्हें तुरंत सुधारों और जवाबदेही की आवश्यकता है।
भारतीय न्यायिक प्रणाली के सामने चुनौतियां
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार: सरकार की किसी भी अन्य संस्था की तरह भारतीय न्यायिक प्रणाली भी समान रुप से भ्रष्ट है। हाल ही में हुए विभिन्न घोटालों जैसे सीडब्ल्यूजी घोटाला, 2जी घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला और बलात्कार सहित समाज में हो रहे अन्य अत्याचारों ने नेताओं और गणमान्य व्यक्तियों और आम जनता सभी के आचरण पर जोर डाला है और भारतीय न्यायपालिका के काम के तरीकों में भी कमियां दिखाई हैं। यहां जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है। मीडिया भी अवमानना के डर से साफ तस्वीर पेश नहीं करता है। रिश्वत लेने वाले किसी जज के खिलाफ बिना मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के एफआईआर दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है।
लंबित मामलों का बैकलाॅग: भारतीय कानून प्रणाली में दुनिया में सबसे ज्यादा लंबित मामलों का बैकलाॅग है जो कि लगभग 30 मिलीयन मामलों का है। इनमें से 4 मिलीयन हाई कोर्ट में, 65000 सुप्रीम कोर्ट में हैं। यह आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं और इसी से कानून प्रणाली की अयोग्यता का पता चलता है । जजों की संख्या बढ़ाने, और ज्यादा कोर्ट बनाने की बात हमेशा की जाती है पर इसे लागू करने में हमेशा देर या कमी होती है। इसके पीडि़त सिर्फ गरीब और आम लोग ही होते हैं क्योंकि अमीर लोग महंगे वकीलों का खर्च वहन कर सकते हैं और कानून अपने पक्ष में कर सकते हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय और बड़े निवेशक भारत में व्यापार करने से हिचकिचाते हैं। इस बैकलाॅग के कारण ही भारतीय जेलों में बंद कैदी भी पेशी के इंतजार में रह जाते हैं। यह भी बताया गया है कि भारत के आर्थिक हब मुंबई में अदालतें सालों पुराने जमीनी मामलों के बोझ तले दबी हैं जिससे शहर के औद्योगिक विकास में भी बड़ी रुकावट आती है।
भारतीय न्यायिक प्रणाली की एक और समस्या उसमें पारदर्शिता की कमी है। यह देखा गया है कि सूचना के अधिकार को पूरी तरह से कानून प्रणाली से बाहर रखा गया है। इसलिए न्यायपालिका के कामकाज में महत्वपूर्ण मुद्दों, जैसे न्याय और गुणवत्ता को ठीक से नहीं जाना जाता है।
भारतीय जेलों में बंद कैदियों में से ज्यादातर विचाराधीन हैं जो कि उनके मामलों के फैसले आने तक जेल में ही बंद रहते हैं। कुछ मामलों में तो ये कैदी अपने उपर दायर मामलों की सजा से ज्यादा का समय सिर्फ सुनवाई के इंतजार में ही जेल में निकाल देते हैं। इसके अलावा अदालत में खुद के बचाव का खर्च और दर्द वास्तविक सजा से भी ज्यादा होता है। वहीं दूसरी ओर अमीर लोग पुलिस को अपनी ओर कर लेते हैं जिससे पुलिस अदालत में लंबित मामले के दौरान गरीब व्यक्ति को परेशान या चुप कर सकती है।
यह बहुत जरुरी है कि किसी भी देश की न्यायपालिका समाज का अभिन्न अंग हो और उसका समाज से नियमित और प्रासंगिक परस्पर संवाद होता रहे। कुछ देशों में न्यायिक निर्णयों में आम नागरिकों की भी भूमिका होती है। हालांकि भारत में न्यायिक प्रणाली का समाज से कोई संबंध नहीं है जो कि इसे ब्रिटिश न्यायिक सेट-अप से विरासत में मिला है। लेकिन 60 सालों में कुछ बातंे बदली जानी चाहिए। आज भी कानून अधिकारी लोगों से मिलने के लिए करीब नहीं आते हैं।
हम देखते हैं कि सूचना और संचार में इतनी तरक्की से देश के लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आया है, लेकिन इसके बाद भी भारतीय कानून प्रणाली अब भी ब्रिटिश असर वाली दबंग और कपटी लगती है जो कि अमीर लोगों के लिए है और देश और आम लोगों से बहुत दूर है। सच तो यह है कि वर्तमान न्याय प्रणाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया, मानदंड और समय के अनुकूल नहीं है और सिर्फ समाज के एक वर्ग को खुश करने और उनके निहित स्वार्थ के लिए काम करती है। इसलिए इसके तुरंत पुनर्गठन की आवश्यकता है जिससे इसे लोकतांत्रिक और प्रगतिशील समाज के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके।
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