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भारत बंद ये कैसा अंधा कानून ?

भारत बंद ये कैसा अंधा कानून ?
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सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया है कि किसी भी स्वर्ण को दलितों के पर अत्याचार के नाम पर तब तक गिरफ्तार नही किया जाए
अनुसूचित जाति, जन जाति, पिछड़ी जाति और दलितों पर किसी प्रकार का अत्याचार नही हो, यह समाज का प्रत्येक नागरिक चाहता है । लेकिन दलितों के उत्पीड़न के नाम पर सवर्णो पर अत्याचार उससे भी बड़ा अत्याचार है ।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया है कि किसी भी स्वर्ण को दलितों के पर अत्याचार के नाम पर तब तक गिरफ्तार नही किया जाए, जब तक यह प्रमाणित नही हो जाता है कि स्वर्ण ने वास्तव में दलित पर अत्याचार किया है । सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले में गलत क्या है ? किसी दलित के द्वारा झूठी और मनगढ़ंत रिपोर्ट के नाम पर स्वर्ण की एकाएक गिरफ्तारी कानूनसम्मत है ? कदापि नही । बल्कि यह ऐसा कानून है जिसकी आड़ में सवर्णो से दलित बदला लेते है । मैं यह नही कहता कि दलितों पर अत्याचार नही होते है । लेकिन तमाम रिपोर्ट सौ फीसदी सही होगी, इसकी गारंटी देने को कोई तैयार है ?
देश मे दो कानून एक एससी-एसटी तथा दूसरा महिला उत्पीड़न (दहेज विरोधी) कानून बेहद खतरनाक है । दलित द्वारा झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने पर स्वर्ण को आनन-फानन में गिरफ्तार कर लिया जाता है । आरोपी की जमानत हत्या के आरोपी से भी जटिल है । इसी प्रकार दहेज विरोधी कानून का भी भरपूर रूप से दुरुपयोग होता रहा है और आज भी हो रहा है । पति, सास, ननद, देवर, ससुर आदि से बदला लेने का इससे कारगर कोई नुस्खा नही है । आरोपियों की जमानत तक नही हो पाती है । जिस तरह सारे सास-ससुर, पति, देवर, ननद आदि दहेज के लोभी नही होते, उसी प्रकार सारी बहुए भी दूध की धुली नही है । कई महिलाओं ने तो इस कानून को ब्लैकमेल का औजार तक बना रखा है ।
राजनीतिक दलों को वोट से मतलब है, दलितों के अत्याचार से नही । इसलिए दलितों के रहनुमा बनने के लिए राजनीतिक दल भारत बंद के नाम पर आज सड़को पर उतारू है । सभी राजनैतिक दलों और राजनेताओ को इस बात का खतरा है कि कहीं उनका वोट बैंक खिसक नही जाए । इसलिए सभी पार्टियां दलितों की सबसे बड़ी हिमायती बनने का स्वांग रच रही है ।
सच मे राजनीतिक दलों को एससी-एसटी के प्रति इतनी हमदर्दी है तो वह उनकी जमीन के विक्रय पर लगी पाबन्दी को समाप्त क्यो नही करती ? वर्षो से यह कानून चला आ रहा है कि एससी-एसटी की जमीन को दीगर जाति का व्यक्ति नही खरीद सकता । जब यह कानून लागू किया गया था, तब इसकी प्रासंगिकता थी । लेकिन आज यह कानून एससी-एसटी के लिए शोषण का हथियार बन गया है । सीमित क्षेत्र में विक्रय की पाबंदी की वजह से एससी-एसटी के लोगो को ओने-पौने भावो पर जमीन बेचने पर विवश होना पड़ रहा है । जिस जमीन का बाजारू भाव 20 लाख रुपये प्रति बीघा है, पाबन्दी के कारण उस जमीन के कोई 8-10 लाख रुपये प्रति बीघा भी देने को तैयार नही है । अकेले जयपुर शहर में ही एससी-एसटी से ताल्लुक रखने वाली खरबो रुपये की जमीन को गृह निर्माण सहकारी समितियों ने कौड़ियों के भाव खरीद लिया । क्योकि समितियों को कास्टलेस (जाति विहीन) माना गया है । अनेक चतुर लोग कंपनी, फर्म आदि के नाम कृषि भूमि खरीदकर एससी-एसटी लोगो की जेब पर डाका डाल रहे है ।
इस नियम को समाप्त करने के लिए पिछले 20-25 साल से एससी-एसटी के विधायक, नेता आदि जोर लगा चुके है । एससी के नरपतराम बरवड़ जब राजस्व मंत्री थे, तब उन्होंने केबिनेट में भी यह मामला रखा । लेकिन पारित कराने में नाकामयाब रहे । कई अन्य भूमाफियाओं ने इसका पुरजोर विरोध किया ।
इन परिस्थितियों को देखते हुए अप्रासंगिक और अव्यवहारिक हो चुके कानूनों में अविलम्ब बदलाव लाना चाहिए ना कि खाली पीली नेतागिरी के । भारत बंद का आव्हान अव्यवहारिक तो है ही, इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अवमानना भी है ।
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