धर्म-कर्म

19 जुलाई देवशयनी एकादशी के बाद भूलकर भी न करें ये कार्य!

19 जुलाई देवशयनी एकादशी के बाद भूलकर भी न करें ये कार्य!
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आषाढ़ शुक्ल एकादशी का नाम देवशयनी है। इस दिन उपवास करके सोना, चाँदी, ताँबा या पीतल की मूर्ति बनवाकर उसका यथोपलब्ध उपचारों से पूजन करें और पीताम्बर से विभूषित करके सफेद चादर से ढके हुए गद्दे तकिये वाले पलंग पर शयन करावे। उस अवसर के चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें । जैसे मधुर स्वर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र -पौत्रादि की प्राप्ति के लिए 'तैल' का, शत्रु नाशादि के लिए'कडुवे तैल' का , सौभाग्य के लिए 'मीठे तैल' का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए 'पुष्पादि' भोंगों का त्याग करे। देह शुद्धि या सुन्दरता के लिए परिमित प्रमाण के ' पंचगव्य' का, वंश वृद्धि के लिए नियमित 'दूध' का कुरुक्षेत्रादि के समान फल मिलने के लिए पात्र में भोजन करने के बदले 'पत्र' का और सर्वपापक्षय पूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए 'एकभुक्त', नक्तव्रत, अयाचित भोजन या 'सर्वथा उपवास' करने का व्रत ग्रहण करें। यदि इन चार महीनों में दूसरे के दिए हुये भक्ष्य -भोज्यादि सभी पदार्थों के भक्षण करने का त्याग रक्खें और उपुर्युक्त चार व्रतों में जो बन सके उसको ग्रहण करें तो महाफल होता है।
आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान क्षीरसागर में शेष-शय्यापर शयन करते हैं। अत: इनका उत्सव मनाने के लिए सर्वलक्षण संयुक्त मूर्ति बनवावें। अपनी सामर्थ्य के अनुसार सोना, चाँदी, ताँबा , पीतल या कागज की मूर्ति (चित्र) बनवाकर गायन -बादन आदि समारोह के साथ विधि पूर्वक पूजन करें। रात्रि के समय
' सुप्ते त्वयि जगन्नाथे जगत् सुप्तं भवेदिदम्।
विबुधे च विबुध्येत प्रसन्नो मे भवाव्यय।।
से प्रार्थना करके सुखसाधनों से सजी हुई शय्यापर शयन करावें। भगवान का सोना रात्रि में ,करवट बदलना संधि में ,और जागना दिन मे होता है। इसके विपरीत हो तो अच्छा नही।
' निशि स्वापो दिवोत्थानं संध्यायां परिवर्तनम्।'
यह विशेष है कि शयन अनुराधा के तृतीयांश में, परिवर्तन श्रवण के मध्य तृतीयांश, और उत्थान रेवती के अन्तिम तृतीयांश में होता है। यही कारण है कि आषाढ़,भाद्रपद, और कार्तिक में एकादशी के व्रत वाले पारणा के समय आषाढ़ में अनुराधा का आद्य तृतीयांश, भाद्रपद में श्रवण का मध्य तृतीयांश, कार्तिक में रेवती का अंतिम तृतीयांश व्यतीत होने के बाद( या उसके आरंभ से पहले पारणा करते हैं।
मैत्राद्यपादे स्वपितीह विष्णु:
श्रुतेश्च मध्ये परिवर्तमेति
जागर्ति पौष्णस्य तथावसाने
नो पारणं तत्र बुध: प्रकुर्यात।।
(स्मरण रहे कि एक नक्षत्र लगभग 60 घटी का होता है अतः उसके २०-२० घटी के तृतीयांश बनाकर पहला, दूसरा, या तीसरा देख लेना चाहिये। )
देवशयन के चातुर्मासीय व्रतों में पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, मिथ्या बोलना, मांस, शहद, और दूसरे के दिए हुये दही- भात आदि का भोजन करना और मूली, पटोल, एवं बैगन आदि शाकपत्र खाना त्याग देना चाहिये।
मञ्चखट्वादिशयनं वर्जयेद् भक्तिमान्नर:।
अनृतौ वर्जयेद् भार्यां मांसं मधु परौदनम्।।
पटोलं मूलकं चैव वृन्ताकं च न भक्षयेत्।
ज्योतिषाचार्य पं गणेश प्रसाद मिश्र लब्धस्वर्णपदक, ज्योतिष विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मो.9454953720

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