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ओटीटी प्लेटफार्म: इन खतरों पर बात होनी चाहिए

Shiv Kumar Mishra
16 Sep 2023 5:53 AM GMT
ओटीटी प्लेटफार्म: इन खतरों पर बात होनी चाहिए
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प्रमोद रंजन

संजीव चंदन कमाल के आदमी हैं। ऐसी जिजीविषा वाला व्यक्ति मैंने दूसरा नहीं देखा। इतनी लंबी, शरीर को खा जाने वाली, जानलेवा बीमारी के बावजूद वे लगातार सक्रिय रहे। न सिर्फ सक्रिय रहे, बल्कि उस भीषण बीमारी के दौर में उन्होंने सक्रियता बढ़ा दी। लॉकडाउन के दौरान जैसे-जैसे उनकी किडनी-प्रत्यारोपण की तारीखें नजदीक आती गईं, वैसे-वैसे उनकी सक्रियता बढ़ती गई। बल्कि शायद स्त्रीकाल का यूट्यूब चैनल उन्होंने उसी समय विकसित किया। किडनी-प्रत्यारोपण के बाद भी वे उसी तरह सक्रिय रहे। उस समय घंटो कैमरे पर एंकरिंग करने से लेकर पर्दे के पीछे की तकनीकी जिम्मेवारियां निभाते हुए संजीव को देखना आश्चर्य से भर देता था।

वे स्त्रीकाल नाम की पत्रिका निकालते हैं, स्त्री-विमर्श पर केंद्रित पत्रिका है (और मेरे जानते हिंदी इस विषय पर केंद्रित एकमात्र पत्रिका है ) इसका ताजा अंक सिनेमा के स्त्री-पक्ष पर केंद्रित है, जिसका अतिथि संपादन विभावरी ने किया है।

अंक में ओटीटी पर भी कई लेख हैं। ओटीटी ने सचमुच सिनेमा परिभाषा बदल दी है। ऐसे सार्थक विषयों पर फिल्में बन रही हैं, जिनके बारे में पहले समझा जाता था कि ये विषय साहित्य के लिए ठीक हो सकते हैं, लेकिन इन विषयों पर केंद्रित सिनेमा को दर्शक नहीं मिलेंगे। ओटीटी पर जितने गंभीर विषयों पर फिल्में आ रही हैं और सफल हो रहीं हैं, उसने इस धारणा को ध्वस्त कर दिया है।

दरअसल, सिनेमा-हॉल के दौर में निर्देशक और फाइनांसर की सामने ‘दर्शक की पसंद’ का हौव्वा खड़ा रहता था। उनकी नजर में दर्शक एकाश्म था। यानी, यह मान कर चला जाता था कि दर्शक नाम का प्राणी एक ऐसी भीड़ है, जिसकी रुचियों में कोई विविधता नहीं है।

ओटीटी ने फिल्मों के दर्शक तक पहुंचने के तरीके को बदल दिया। अब हर दर्शक अपनी पसंद की फिल्में देखने, पसंद न आने पर बीच में छोड़ देने, फिल्म से सीरिज, सीरिज से डेक्यूमेंटरी पर जाने के लिए स्वतंत्र था। कैप्शन और डबिंग ने भाषा के बंधनों को भी बहुत ढीला कर दिया है। सिनेमा-हॉल के दौर में यह सुविधा नहीं थी। टीवी के मामले में भी विकल्प सीमित थे।

ओटीटी आने के बाद आभाास हुआ कि एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो गंभीर, विचारोत्तेजक विषयों पर फिल्म देखना चाहते हैं। इस परिवर्तन ने दर्शक की पहचान बदल दी। अब वह पहले की तरह एक ही भीड़ का हिस्सा नहीं है। अब हर दर्शक का एक चेहरा है। एक पहचान है। उसका एक ठोस पता है, जिसे आइपी एड्रेस के नाम से जाना जाता है। बल्कि सिर्फ उसके घर की ही नहीं, बल्कि उसके हर ठिकाने की जानकारी उनके पास है। अब उनके पास पक्की जानकारी है कि कौन क्या पसंद करता है और वे देख सकते हैं कि अच्छी फिल्में पसंद करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। इस प्रकार सार्थक फिल्मों का रास्ता खुला।

लेकिन इस तकनीक के अपने भयावह खतरे भी हैं। खबसे बड़ा खतरा तो यही है कि मुट्ठी भर टेक-कंपनियां ( विभिन्न संचार माध्यमों को चलाने वाली तकनीकी कंपनियां) लोगों की रुचियों को मैनुपुलेट करने की अकूत क्षमता से लैस होती जा रही हैं।

ओटीटी प्लेटफार्म अनावश्यक रूप से हमारे बारे में बहुत सारा डेटा जमा कर रहे हैं। वे लगभग अकाट्य अनुमान लगाने में सक्षम हैं कि उनका कौन सा दर्शक भविष्य में क्या पसंद करेगा। सिर्फ फिल्मों के बारे में ही नहीं, बल्कि ओटीटी प्लेटफार्मों के पास हर उपययोगकर्ता के बारे में ऐसी सैकडों जानकारियां हैं, जिसके बारे में सामान्यत: हम सोच भी नहीं सकते। मसलन, उनके पास जो आंकड़े हैं, उसके आधार पर वे अनुमान लगा सकते हैं कि 2024 के चुनाव में कितने लोग किस पार्टी को वोट कर करेंगे। वे यह भी बता सकते हैं कि किस दर्शक पर किस प्रकार के ‘कंटेंट’ की बमबारी कर उसके राजनीतिक रुझान को प्रभावित किया जा सकता है।

ओटीटी के इस पक्ष पर भी बात होनी चाहिए।

लेकिन कुल मिलाकर अंक अच्छा बना है। सिनेमा-अध्ययन और स्त्री-अध्ययन में दिलचस्पी रखने वालों के लिए निश्चय ही यह संग्रहणीय है।

[प्रमोद रंजन की दिलचस्पी संचार माध्यमों की कार्यशैली के अध्ययन, ज्ञान के दर्शन और संस्कृति, समाज व साहित्य के उपेक्षित पक्षों के अध्ययन में रही है। वे असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं।]

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